कदम्ब वंशीय राजा मयूर शर्मन के समय सर्वप्रथम केरल में ब्राह्मणों का आगमन हुआ. उसके पहले वहां बौद्ध एवं जैन धर्म का बोलबाला रहा. कुछ ब्राह्मण पंडितों ने शास्त्रार्थ कर वहां के बौद्ध भिक्षुओं को परास्त कर दिया. शंकराचार्य (७८८-८२०) के नेतृत्व में हिंदू/सनातन धर्म के पुनरूत्थान के प्रयास स्वरुप शनै शनै बौद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायी कम होते चले गए. चेर वंश के कुलशेखर राजाओं (८०० – ११००) ने भी ब्राह्मणों को प्राश्रय और प्रोत्साहन दिया. कहते हैं कि जो ब्राह्मण उत्तर दिशा से आए उन्हें केरल के ३२ और कर्णाटक के तुलुनाडु के ३२ गांवों में बसाया गया था. यही वहां के नम्बूतिरी ब्राह्मण कहलाते हैं जो अपने आपको स्थानीय कहते हैं. कालांतर में इन्हीं ब्राह्मणों में उपलब्ध भूमि आबंटित कर दी गई थी और एक तरह से वे ही वहां के जमींदार बन बैठे. वे जमीन पट्टे पर दूसरों को खेती या अन्य प्रयोजन के लिए दे दिया करते और एवज में उन्हें वार्षिक भू राजस्व की प्राप्ति होती थी. (कृषि उत्पाद या तरल मुद्रा के रूप में)
नम्बूतिरी ब्राह्मणों के निवास को “मना” और कुछ जगह “इल्लम” कह कर पुकारते है. ये साधारणतया एक बड़े भूभाग पर आलीशान बने होते हैं. इसी के अन्दर सेवकों आदि के निवास की भी व्यवस्था होती थी. नाम्पूतिरी लोग भी उत्तर भारतीय पंडितों की तरह चुटैय्या धारण करते थे लेकिन इनकी चोटी पीछे न होकर माथे के ऊपर कोने में हुआ करती थी. इष्ट देव की आराधना में मन्त्र के अतिरिक्त तंत्र की प्रधानता होती है. पारिवारिक संपत्ति का उत्तराधिकारी केवल ज्येष्ठ पुत्र ही हुआ करता था और वही एक मात्र व्यक्ति विवाह करने का भी अधिकारी होता था. पत्नियों की संख्या चार तक हो सकती थी (Polygamy). परिवार के सभी सदस्य एक साथ “मना” में ही निवास करते थे. इस व्यवस्था से संपत्ति विघटित न होकर यथावत बनी रहती थी. अब परिवार के जो दूसरे युवा हैं उन्हें इस बात की स्वतंत्रता दी गई थी कि वे चाहें तो बाहर किसी अन्य ज़ाति (क्षत्रिय अथवा शूद्र) की महिलाओं, अधिकतम चार से “सम्बन्ध” बना सकते थे. ऐसे सम्बन्ध अधिकतर अस्थायी ही होते थे. “सम्बन्ध” बनने के लिए पसंदीदा स्त्री को भेंट स्वरुप वस्त्र (केवल एक गमछे से काम चल जाता था) दिए जाने की परम्परा थी. वस्त्र स्वीकार करना “सम्बन्ध” की स्वीकारोक्ति हो जाया करती थी. जिस महिला से “सम्बन्ध” बनता था, उसके घर रहने के लिए रात में जाया करते और सुबह उठते ही वापस अपने घर “मना” आ जाते. रात अंधेरे में सम्बन्धम के लिए जाते समय अपने साथ एक लटकने वाला दीप भी ले जाते, जिसकी बनावट अलग प्रकार की होती थी और इसे “सम्बन्धम विलक्कू” के नाम से जाना जाता था.
नम्बूतिरी ब्राह्मणों की इस सामाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरुप जहाँ उनकी आबादी कम होती चली गई, वहीं दूसरी तरफ़ योग्य वर के न मिल पाने के कारण कई नम्बूतिरी कन्यायें अविवाहित ही रह जाती. अंततोगत्वा भारत में हिन्दुओं के लिए समान/सार्वजनिक विवाह और उत्तराधिकार नियम बन जाने से उनकी रुढिवादी परम्पराओं का अंत हुआ. केरल में १९६५-७० में भूमि सुधार कानूनों के लागू होने से नम्बूतिरी घरानों की सम्पन्नता भी जाती रही.
केरल के समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग नायरों (इसमे पिल्लई, मेनोन, पणिक्कर, मारार, नम्बियार, कुरूप आदि लोग भी शामिल हैं) का था. तकनीकी दृष्टि से ये शूद्र थे परन्तु योद्धा हुआ करते थे. सेना में ये कार्यरत होते थे अतः क्षत्रिय सदृश माना जा सकता है. इनके समाज में अधिकार स्त्रियों के हाथों हुआ करता था. उत्तराधिकार के नियम आदि स्त्रियों पर केंद्रित थे. इस व्यवस्था को “मरुमक्कतायम” कहा जाता था. इन लोगों में विवाह नामकी कोई संस्था नहीं थी. घर की लड़कियां अपने अपने घरों (जिन्हें “तरवाड़” कहा जाता है) में ही रहतीं. सभी भाई बहन इकट्ठे अपनी माँ के साथ. घर के मुखिया के रूप में मामा (बुजुर्ग महिला का भाई) नाम के लिए प्रतिनिधित्व करता था. किसी कन्या के रजस्वला होने पर किसी उपयुक्त पुरूष की तलाश होती जिस के साथ “सम्बन्धम” किया जा सके. यहीं नम्बूतिरी ब्राहमणों का काम बन जाता था क्योंकि कई विवाह से वंचित युवक किसी सुंदर कन्या से संसर्ग के लिए लालायित रहते थे . नायर परिवार में “सम्बन्धम” के लिए नम्बूतिरी या अन्य ब्राह्मण पहली पसंद होती थी क्योंकि उन्हें बुद्धिमान समझा जाता था. जैसे नम्बूतिरी घरों के युवकों को चार स्त्रियों से सम्बन्धम की अनुमति थी वैसे ही यहाँ नायर समुदाय की स्त्रियों के लिए भी आवश्यक नहीं था कि वे केवल एक से ही सम्बन्ध बनाये रखें. एक से अधिक (Polyandry) भी हो सकते थे. अंशकालिक!. सम्बन्धम, जैसा पूर्व में ही कहा जा चुका है, साधारणतया अस्थायी पाया गया है. लेकिन स्थायी सम्बन्धम भी होते थे, किसी दूसरे संपन्न तरवाड़ के नायर युवक से. कभी कभी एक स्थाई और कुछ दूसरे अस्थायी/ अंशकालिक. एक से अधिक पुरुषों से सम्बन्ध होने की स्थिति में समय का बटवारा भी होता था. पुरूष रात्रि विश्राम के लिए स्त्री के घर आता और सुबह उठते ही अपने घर चला जाता. संतानोत्पत्ति के बाद बच्चों की परवरिश का कोई उत्तरदायित्व पुरूष का नहीं रहता था. सब “तरवाड़” के जिम्मे. परिवार की कन्याओं का सम्बन्ध धनी नम्पुतिरियों से रहने के कारण धन “मना” से “तरवाड़” की और प्रवाहित होने लगा और “तरवाड़” धनी होकर प्रतिष्ठित हो गए. कुछ तरवाडों की प्रतिष्ठा इतनी रही कि वहां की कन्याओं से सम्बन्ध बनना सामाजिक प्रतिष्ठा का भी द्योतक रहा.
नायरों जैसी ही स्थिति राज परिवारों की भी रही. उनकी कन्याओं का सम्बन्ध किसी दूसरे राज परिवार के पुरूष या किसी ब्राह्मण से हो सकता था और राज परिवार के युवकों का सम्बन्ध नायर परिवार की कन्याओं के साथ.
यहाँ यह बताना उचित होगा कि इस पूरी व्यवस्था को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी और किसी भी दृष्टिकोण से इसे हेय नहीं समझा जाता था. बचपन में हमें बड़ा आश्चर्य हुआ करता था यह जानकर कि कोई नायर परिवार की स्त्री हमारी भी कुछ लगती है. यह बात उन्हीं लोगों के द्वारा सगर्व कही जाती थी. केरल में “मरुमक्कतायम” व्यवस्था को हटा कर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तथा हिन्दू विवाह के कानून लागू होने के बाद अब नायर समाज वो नहीं रहा जो ६० वर्ष पूर्व था. वे भी मुख्य धारा से जुड़ चुके हैं.
सरदार के.एम् पणिक्कर जो एक ख्याति प्राप्त इतिहासकार, प्रशासक और कूट्नीतिग्य रह चुके हैं का मानना है कि नायरों को एक हिंदू जाति के रूप में न देख उन्हें एक अलग अनुवांशिक श्रेणी (जैसे मंगोल आदि) में रखा जाना चाहिए क्योंकि उनकी, अपने वैवाहिक नियम, उत्तराधिकार सम्बन्धी परम्परा, युद्ध कला (कलरि पयट्टू), युद्ध की देवी (भद्रकाली), पुरखों की पूजा, कथकली जैसे कला संस्कार आदि से एक अलग पहचान है. इस नायर समाज ने देश के लिए अनेकों विद्वान् दिए हैं जिन्होंने अपने अपने क्षेत्र में झंडे गाडे. सर्वश्री वी.के. कृष्ण मेनोन, रक्षामंत्री, के.पी एस.मेनोन, प्रथम विदेश सचिव, बी.आर. नायर, रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष, माधवन नायर, इसरो के अध्यक्ष, के.पी.केंडेथ, पश्च्चिमी कमान के प्रमुख और भारत पाक युद्ध के हीरो, जे.एन. दीक्षित (परमू पिल्लई के पुत्र) सुरक्षा सलाहर, कई पूर्व के रियासतों में दीवान आदि अनेकों नाम मिलेंगे.
मार्च 8, 2009 को 8:16 पूर्वाह्न
शोधपरख आलेख.. पर पता नहीं इस परंपरा के बाद भी क्यों हमारा समाज इतना स्त्री विरोधी या कहें तो “वायस” है..
मार्च 8, 2009 को 8:19 पूर्वाह्न
आपने सामाजिक व्यवस्थाओं का जो चित्रण प्रस्तुत किया है वह कई कट्टर पंथियों के लिए आँखें खोल देने वाला है । समाज में वर्ण व्यवस्था के बावजूद ऎसी वैमनस्य की स्थिति नहीं थी जैसी अब है ।
मार्च 8, 2009 को 8:44 पूर्वाह्न
bahut hi gyanvardhak lekh haibadhai
मार्च 8, 2009 को 9:06 पूर्वाह्न
भारत एक प्राचीन देश है और इस में सभी परंपराएँ मिलती हैं। उन के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। परिवार का विकास भी शनै शनै हुआ है। भारत भी उस से अछूता नहीं रहा है।
मार्च 8, 2009 को 9:55 पूर्वाह्न
It was very interesting to know about the history of Hindu / Sanaatan Dharma, and their liberal attitude, the matriarchal tradition. It’s far advanced than our modern time’s valueless culture of ‘dating’. That is also an example to Show that ‘Hindu’ is not just a tradition, but also a true religion.
Most timely article on ‘women’s’ day.
Thanks for an enlightening post .
मार्च 8, 2009 को 10:03 पूर्वाह्न
महिला दिवस पर ही नहीं …..हमें .हमेशा ही अपने पर गर्व है ….अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभ कामनाएं
मार्च 8, 2009 को 10:53 पूर्वाह्न
आपके प्रति प्रशंसात्मक भाव की एक बार पुन: सघन पुष्टि!
बहुत सुन्दर!
मार्च 8, 2009 को 11:33 पूर्वाह्न
आपनें एक नई जानकारी दी जो अद्भुत है.
मेरे एक नायर मित्र नें कहा था कि शादी की बाद वह पत्नी के घर गया, और मातृ प्रधान परिवार के बारे में पता चला. ये व्यवस्था उपरोक्त जानकारी के बाद हुई है, या अलग ही है?
मार्च 8, 2009 को 11:38 पूर्वाह्न
Thanks for this informative article
मार्च 8, 2009 को 11:39 पूर्वाह्न
yogyaparak rachana…. jinki ham khud aadharshila hai unko hi ham dhaar pe rakhte hai…. yupyogi jaankari ke sath thodi history ka gyan mila .. dhero abhaar aapka…..
मार्च 8, 2009 को 12:07 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकारी दी है । समाज की वर्ण का व्यवस्था बहुत सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है |
मार्च 8, 2009 को 1:21 अपराह्न
इस तरह की सामाजिक व्यवस्था के बारे में पहली बार पढ़ा है ! बहुत अच्छी जानकारी देने के लिए आभार !
मार्च 8, 2009 को 3:11 अपराह्न
आप अपने एक एक लेख पर जो मेहनत करते हैं, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये, कम है.
आपका ब्लॉग एक ऑनलाइन किताब की तरह है.
मार्च 8, 2009 को 3:58 अपराह्न
अब तक मैं दक्षिण भारत की संस्कृति और परंपराओं से अपरचित हूं। आपके पास आकर काफी कुछ सीखने-समझने को मिलता है। आपका ब्लाग एक दस्तावेज की तरह लगता है मुझे।
मार्च 8, 2009 को 4:34 अपराह्न
बहुत ही अच्छी जानकारी दी आप ने,यानि भारत मै वो सब हुआ है जिस की आज दुहाई दी जाती है, फ़िर धीरे धीरे परिवार …. भी बनने शुरु हुये, भारतीया इतिहास मै पता नही क्या क्या दफ़न है , आप से बहुत सी जान कारी मिलती है, जो बहुत ही बहुमुल्य है.
धन्यवाद
आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है
मार्च 8, 2009 को 6:13 अपराह्न
आपके अन्य सभी लेखों की भाँति यह भी जानकारी से भरपूर है। ऐसी जानकारी मिली जो शायद हमें किसी दूसरे स्रोत से न मिल पाती।
आपके द्वारा दिये गये फोटो का तो कोई जवाब ही नहीं ! सबसे उपर जो घर का फोटो है, मुझे स्वर्ग का घर लग रहा है!
मार्च 8, 2009 को 7:06 अपराह्न
दिलचस्प है. यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नम्बूतिरी लोग उत्तर भारत से ही गए हैं.
मार्च 8, 2009 को 7:22 अपराह्न
इतनी विस्तृत जानकारी देने का शुक्रिया ।
नम्बूतिरी ब्राह्मणों के बारे मे जानाने का भी मौका मिला ।
मार्च 8, 2009 को 9:12 अपराह्न
Yah to bahut hi gyanvardhak jaaankari hai.
ek sodhparak lekh..sach mein prashanshniy hai.
samayik bhi..mahila diwas par..sabhi mahilaon ke liye ek tohfa hai.
abhaar sahit
http://www.alpana-verma.blogspot.com
मार्च 8, 2009 को 9:18 अपराह्न
tohfa is liye kaha hai kyonki Bharat ki pracheen sabhyta se sambandhit aise anokhe aur aankh khol dene wale lekh aap ke is blog par ..padhne ko mil rahe hain yah sabhi ke liye hi tohfa hain
मार्च 8, 2009 को 9:34 अपराह्न
पहले भी पढा था दक्षिण मेँ कर्णाटक व केरल की मातृसत्तात्मक परँपराओँ के बारे मेँ
एक प्रश्न है कि क्या आज भी वे लोग इसी व्यव्स्था को अपनाये रखना चाहते हैँ ?
– लावण्या
मार्च 8, 2009 को 10:05 अपराह्न
इस नवीनतम जानकारी एवं विश्लेषण के लिए आभारी हूँ, बेहद रुचिकर एवं उत्तर भारतियों के लिए लगभग अछूता विषय !
सादर
मार्च 9, 2009 को 1:19 पूर्वाह्न
बहुत लाजवाब लेख लिखा है आपने. मातृसतात्मक स्वरूप के बारे मे मैने शाश्त्री जी से अभी युं ही जिज्ञासा वश पूछा था तब उनहोने बताया था कि अब यह परंपरा बदल रही है. इस बारे मे कभी फ़ुरसत और विस्तार से प्रकाश डालने की कृपा करे.
रामराम.
मार्च 9, 2009 को 5:18 पूर्वाह्न
bahut badhiya lekh. abhaar.
समयचक्र: रंगीन चिठ्ठी चर्चा : सिर्फ होली के सन्दर्भ में तरह तरह की रंगीन गुलाल से भरपूर चिठ्ठे
मार्च 9, 2009 को 10:50 पूर्वाह्न
कुछ केरल के मित्रों ने वहां की सामाजिक व्यवस्था के बारे में बताया था,पर इतनी विस्तृत जानकारी नहीं थी.हमारे देश के उत्तर पूर्व के राज्यों में भी मातृ- प्रधान व्यवस्था है. मातृ-प्रधान समाज हो या पुरुष प्रधान, आवश्यकता सिर्फ इसकी है की दोनों का आदर हो, किसी भी समाज में स्त्रियों का शोषण न हो और दोनों के अधिकारों की सुरक्षा हो. सुन्दर लेख के लिया बधाई !
मार्च 9, 2009 को 1:19 अपराह्न
मैं ई-मेल से आपका ब्लाग प्राप्त करता हूं। ई-मेल से मिले सन्देश में, पोस्ट के शीर्षक पर क्लिक करने से ब्लाग खुल जाता हे। किन्तु आज, अचानक अभी-अभी ही कोई समस्या उपस्थित हो गई लग रही हे। पोस्ट के शीर्षक पर टिप्पणी करने पर कोई भी ब्लाग नहीं खुल रहा है।
मार्च 9, 2009 को 2:37 अपराह्न
sundar jankaree. dhanyavad.
मार्च 9, 2009 को 4:01 अपराह्न
Achhai jankari parak lekha…
मार्च 9, 2009 को 7:27 अपराह्न
कहां से लाते हैं आप इतनी सारी रोचक जानकारियां…..हमेशा की तरह ही अद्भुत….
मार्च 9, 2009 को 7:55 अपराह्न
अन्तत: शाम लगभग सात बजे तकनीकी व्यवधान दूर हुआ और आपकी यह पोस्ट पढ पाया।
श्रीबद्रीनाथ धाम में ‘नम्बूदरी’ को प्रधान पुजारी के पद पर आसीन देख जो जिज्ञासा उपजी थी, वह आपकी इस पोस्ट से समाप्त हुई-नम्बूदरी मूलत- उत्तर से आए थे यह जानकर।,
किन्तु पोस्ट की कुछ बातें परस्पर विरोधी लगती हैं।
नम्बूदरियों के लिए आप एक ओर कहते हैं – ‘पत्नियों की संख्या चार तक हो सकती थी (Polygamy).’ किन्तु आगे कहते हैं – ‘नम्बूतिरी ब्राह्मणों की इस सामाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरुप जहाँ उनकी आबादी कम होती चली गई, वहीं दूसरी तरफ़ योग्य वर के न मिल पाने के कारण कई नम्बूतिरी कन्यायें अविवाहित ही रह जाती.’ यह कैसे सम्भव है। क्या नम्बूदरियों में स्त्री-पुरुष अनुपात 4:1 से भी अधिक (अर्थात् चार स्त्रियां और एक पुरुष) था जो चार-चार पत्नियां रखने की छूट के बाद भी नम्बूदरी कन्याएं अविवाहित रह जाती थीं?
एक ओर आप लिखते हैं – ‘केरल के समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग नायरों (इसमे पिल्लई, मेनोन, पणिक्कर, मारार, नम्बियार, कुरूप आदि लोग भी शामिल हैं) का था.’ .(जिनकी)….’किसी कन्या के रजस्वला होने पर किसी उपयुक्त पुरूष की तलाश होती जिस के साथ “सम्बन्धम” किया जा सके. यहीं नम्बूतिरी ब्राहमणों का काम बन जाता था क्योंकि कई विवाह से वंचित युवक किसी सुंदर कन्या से संसर्ग के लिए लालायित रहते थे . नायर परिवार में “सम्बन्धम” के लिए नम्बूतिरी या अन्य ब्राह्मण पहली पसंद होती थी’
एक ओर नम्बूदरी युवकों के (विवाह योग्य अविवाहित नम्बूदरी युवतियों के अभाव के कारण) विवशत: अविवाहित होने की बात करते हैं जबकि आपउ पहले ही कह चुके हैं कि नम्बूदरी युवतियां अविवाहित रहने लगी थीं, और दूसरी ओर नम्बूदरी युवकों के विवाह नायर समाज की युवतियों से होने की बात कह रहे हैं।
कहीं न कहीं कोई सूत्र अनुपस्थित है।
मार्च 9, 2009 को 10:12 अपराह्न
प्रिय बैरागी जी,
हमें लगता है कि इस बार हम ठीक से नहीं समझा पाए.और इस बात का हमें खेद है. नम्पुतिरी और नायर समाज अलग अलग हैं पर एक दुसरे पर निर्भर भी रहे. नम्पुतिरी लोगों में विवाह की प्रथा थी लेकिन घर का बड़ा ही शादी कर सकता था और बाकी लोगों के लिए किसी निम्न जाति की महिला से संपर्क/संसर्ग (आज के हिसाब से रखैल) मान्य था, न कि विवाह. जो बच्चे इस संपर्क/सम्बन्ध से पैदा होते थे वे अपनी माँ के परिवार के ही बने रहते. नम्पुतिरी युवतियों के होते हुए भी बड़ी संख्या में युवक अविवाहित रहने के लिए वाध्य थे. ऐसी स्थिति में अविवाहित युवतियों की संख्या भी बढ़ जाने की सम्भावना थी इसलिए नियम बना दिया गया कि एक नम्पुतिरी जो शादी के लिए अधिकृत था वह एक से अधिक पत्नियों के साथ विवाह कर सकता है. यह इस लिए कि विवाह योग्य ब्राह्मण कन्याओं को खपाया जा सके. लेकिन इसके बावजूद स्थितियां ऐसी बनी जहाँ कई नम्पुतिरी कन्याओं को अविवाहित जीवन बिताना पड़ा.
हमें लग रहा है की अभी इतना कहना पर्याप्त रहेगा.
मार्च 9, 2009 को 10:46 अपराह्न
मैंने आपकी पोस्ट के अंतर विरोधों पर ध्यान नहीं दिया पर बैरागी जी कि एक बात मुझे पहेली नुमा लगी जिसमे उन्होंने बद्री नाथ धाम में दक्षिण भारतीय पुजारियों की जिज्ञासा उनके मूलतः उत्तर भारत से आने के तथ्य को जानकार दूर होने के बारे में लिखा है.
दक्षिण भारत में ब्राहमणों के आने से वहां वर्गी कृत समाज की नींव पडी.कई विद्वानों के ब्राहमणों की उत्पत्ति को स्थानीय मानने के बावजूद ये लगभग स्वीकार्य ही है कि दक्षिण में ब्राहमणों को अग्रहार भूमि देकर बसाया गया और वे संभवतः उत्तर देश से आये थे.पर इससे बद्रीनाथ सहित उत्तर भारत के कई मंदिरों के रावल पुजारियों की बात का क्या लेना देना है? मंदिरों की व्यवस्था स्वतंत्र परम्पराओं की उपज है . नाथद्वारा के पुष्टि मार्गी पीठ में तैलंग पुजारी इसलिए होते है क्योंकि वल्लभाचार्य ने यही व्यवस्था दी थी.
मार्च 10, 2009 को 4:53 पूर्वाह्न
भारतीय समाज की विविधतापूर्ण सामाजिक/सांस्कृतिक परंपराओं की बहुत ही रोचक और उपयोगी जानकारी। आभार।
मार्च 10, 2009 को 6:35 पूर्वाह्न
बहुत ही अच्छी जानकारी दी आभार
मार्च 10, 2009 को 7:29 पूर्वाह्न
हमेशा की तरह इस बार भी जानकारी अनूठी थी. पाठकों के बीच संवाद से और PNS के स्पष्टीकरण से और भी रोचक.
पनस जी, आप से कुछ खास अनुरोध इस महिला दिवस पर .छोटे छोटे पॉकेट्स ही सही दुनियाँ भर मे कुछ समाज मात्रु सत्तात्मक व्यवस्था मे चल रहे हैं . पाया जाता है कि वहां ज़्यादा परिवारिक शांति प्रेम है और अपराध नगण्या.
पुरूस सततात्मक समाजों की हिंसक प्रवृत्तियाँ और उसके प्रभाव भी नदारत. ऐसे किसी अध्ययन की जानकारी तो है पर स्रोत नहीं पता .इस पर कुछ सामग्री उपलब्ध कराएँ तो कृपा होगी..
वक्त आ गया है कि सोचा जाए कि क्या पुरुष सत्तात्मक समाज व्यवस्थाओं कि बिदाई हो.
मार्च 10, 2009 को 8:38 पूर्वाह्न
प्रिय व्यास जी,
बदरीनाथ धाम कि स्थापना शंकराचार्य जी ने की थी और उनके साथ केरल के नम्पुतिरी ब्राह्मण गए थे. जिन्हें उन्होंने पुजारी के रूप में नियुक्त किया. आपका कहना बिलकुल सही है की यह एक स्वतंत्र व्यवस्था थी.जयपुर के अमर किले के अन्दर एक दुर्गा जी का मंदिर है. वहां के पुजारी बंगाली ब्राह्मण हैं. वहां बंगाली ब्राहमणों की एक बस्ती ही बन गयी है.
सस्नेह,
सुब्रमणियन
मार्च 10, 2009 को 10:55 पूर्वाह्न
बहुत ही बढिया और विस्तृत जानकारी नम्बूद्री ब्राह्मणों के बारे में । मातृसत्ताक पध्दती और नायर समाज के बारे में भी जानकरी मिली । आपकी हर पोस्ट कुछ विशेष ही होती है ।
मार्च 10, 2009 को 12:22 अपराह्न
द. भारत के ब्राहमणों और नायरों पर महत्वपूर्ण जानकारी दी आपने. शुक्रिया और होली की शुभकामनाएं.
मार्च 10, 2009 को 12:56 अपराह्न
@राज सिंह जी:
हमने स्पष्ट तो नहीं किया था लेकिन महिला दिवस पर इस लेख को लिखने का हमारा उद्देश्य भी यही था कि सुधी पाठक वर्ग में इस मुद्दे पर विचार विमर्श हो. हम प्रयत्न करेंगे कि कुछ सामग्री संकलित करें. आभार.
मार्च 11, 2009 को 12:41 पूर्वाह्न
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ .
मार्च 11, 2009 को 3:29 अपराह्न
सुन्देर परंतु विचित्र या यह कहिये कि बचपन से जो परिस्थितियाँ देखी हैँ उनसे अलग.
आपके दवारा सशक्त प्रस्तुतिकरण की बधाई
मार्च 11, 2009 को 3:47 अपराह्न
होली कैसी हो..ली , जैसी भी हो..ली – हैप्पी होली !!!
होली की शुभकामनाओं सहित!!!
प्राइमरी का मास्टर
फतेहपुर
मार्च 17, 2009 को 1:43 अपराह्न
एकदम ही नयी, नायब और आश्चर्यजनक जानकारी मिली आपकी इस पोस्ट से…..बहुत बहुत आभार आपका..
साथ ही यह भी लगा की कितना कम जानते हैं हम अपने ही देश की सभ्यता संस्कृति के बारे में…
ऐसे ही नयी बातें बताकर हमारा ज्ञानवर्धन करते रहें.आभार.
अप्रैल 2, 2009 को 6:03 पूर्वाह्न
[…] दिया जाना और स्वीकार किया जाना विवाह (“सम्बन्धम”) का परिचायक था. मजबूरन राजा को अपनी […]
अप्रैल 20, 2009 को 6:01 अपराह्न
bhut hi gyanvrdhrdhak jankari.
abhar
अगस्त 10, 2009 को 6:06 पूर्वाह्न
[…] परन्तु किसी और सन्दर्भ में. देखें “स्त्री सशक्तीकरण – एक पुरानी परंपरा“. “एक अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता” […]
अक्टूबर 6, 2010 को 9:08 अपराह्न
The information is very new to me. Thanks for this beautiful post.
Regards,
अक्टूबर 21, 2010 को 12:57 अपराह्न
शायद आपका ब्लाग ही ऐसा है जहाँ मेरे लिये हमेशा ही नई जानकारी होती है। बहुत ग्यानवर्द्धक पोस्ट। धन्यवाद।
अक्टूबर 21, 2010 को 12:57 अपराह्न
शायद आपका ब्लाग ही ऐसा है जहाँ मेरे लिये हमेशा ही नई जानकारी होती है। बहुत ग्यानवर्द्धक पोस्ट। धन्यवाद। शुभकामनायें।