Archive for जनवरी, 2009

देवताओं का गढ़ – देवगढ़ (उत्तर प्रदेश)

जनवरी 30, 2009

betwa-at-deogarhललितपुर से हमें गाड़ी पकड़नी थी जो पाँच घंटे विलंब से आने वाली थी. वहीं बैठे रहते तो रात आठ बजने वाले थे. हम तो दिन के बारह बजे के पहले ही पहुँच गये थे. हमने सोचा कि अब क्या करें. भला हो हमारे ड्राइवर का जो हमारी रुझान से परिचित था. उसी ने कहा चलिए साहब अपन देवगढ़ हो आते हैं. और हम लोग निकल पड़े. ललितपुर, उत्तर प्रदेश (दिल्ली – चेन्नई मुख्य रेल मार्ग पर) से मात्र 33 किलोमीटर दक्षिण मे एक रमणीय स्थल है, देवगढ़. पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के अतिरिक्त ऊँची चट्टानों के नीचे घूमती हुई बेतवा नदी एक अनोखी छटा प्रस्तुत करती है. इतना मनोरम है कि आप देखते ही रह जाएँगे और आँखें नहीं थकेंगी. इस प्रकार का प्राकृतिक दृश्य हमने केवल एक जगह और देखी है वह है सांची के पास सतधारा जहाँ पहाड़ियों के नीचे से बेस नदी बहती दिखती है.

shantinath-jain-templeपहाड़ी के ऊपर की समतल भूमि पर अनेकों मंदिर बने हुए हैं. बहुत सारे तो ध्वस्त हो गये हैं. एक तरफ कुछ भग्नावशेष दिखे जिसे वराह का मंदिर बताया गया, इसका केवल चबूतरा बचा हुआ है. यहाँ कहा जाता है कि कुल 40 जैन मंदिर और थे जिनमे से आज भी छोटे बड़े मिलाकर कुल 31 बचे हुए हैं.   शांतीनाथ जी का मंदिर इन सबमें उल्लेखनीय है. यहाँ मनौती के रूप में खंबों का निर्माण करवाए जाने की परंपरा रही है जिन्हें “मनस्थम्भ” कहा जाता है. ऐसे ही मनौती में शिलाखंड (आयपट्ट) दिए जाने की भी प्रथा थी. यहाँ चारों तरफ से दिखने वाली “सर्वतोभद्र” प्रतिमा तथा 1000 जैन मुनियों की आकृति उकेरी हुई “सहस्त्रकूट” खंबे विशिष्‍ट हैं. लगभग 8 वीं से 17 वीं शताब्दी तक यह स्थल जैन मतावलंबियों (दिगंबर) का एक केन्द्र रहा है.  यहाँ चट्टानों को काट कर बनाए गये गुफा मंदिर (सिद्ध की गुफा), राजघाटी, नहरघाटी आदि भी हैं. बेतवा नदी पहाड़ियों के नीचे बहती है और नीचे जाने के लिए पत्थरों को काट कर सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं. सीढ़ियों से नीचे उतरते समय बाईं तरफ चट्टानों को तराश कर छोटे छोटे कमरे बना दिए गये हैं जिनमे जैन मुनि एकांत में प्रकृति का आनंद लेते हुए अपनी साधना में निमग्न हुआ करते थे. चट्टानों पर लगभग 8 वीं शताब्दी की ब्राहमी लिपि में कई जगह लेख भी खुदे हैं.dashavataratemple

हम नीचे नदी तक जाकर वापस लौट आए. फिर ऊपर के दृश्यों को मन में समेटने का प्रयास किया. पूरा इलाका जंगल की तरह झाड़ झंकाड़ से भरा था. ऊंचे घाँस भी उग आए थे. सारांश यह कि रख रखाव का कही नाम नहीं था. कुछ समय बिताकर हमारी वापसी की यात्रा प्रारम्भ हुई. कुछ ही दूर जाना हुआ था कि एक और मन्दिर दिख पड़ा, बिल्कुल जाना पहचाना. हम रुक गए और अवलोकन किया उस गुप्त कालीन मन्दिर का,  जिसके शिखर के कई पत्थर धराशायी हो चुके थेcolumn.  यहाँ यह बताना उचित होगा कि भारत में प्रारम्भ में देवताओं के लिए आश्रय स्थली के रूप में कंदराओं में जगह दी जाती थी जिसके अच्छे उदहारण हैं बराबर (गया), अजंता और एल्लोरा के गुफा मन्दिर. गांवों में तो पेड़ों के नीचे ही देव प्रतिमाएँ विश्राम करती थी, जो आज भी देखा जा सकता है लेकिन  फ़िर उनपर तरस आ गया. सर्व प्रथम मैदानी भूभाग में देवता के आश्रय स्थल के रूप में मढिया जैसे चौकोन, शिखर विहीन समतल छत वाले मंदिरों का निर्माण हुआ. फ़िर भक्तों का ख्याल आया तो आगे एक छोटा मंडप जोड़ दिया. 3 री 4 थी सदी के मंदिरों की प्रारंभिक अवस्था के  उदाहरण साँची तथा जबलपुर के पास तिगवा में अभी भी विद्यमान हैं. (लिंक पर क्लिक करने पर मन्दिर का चित्र दिखेगा). इसे हम मन्दिर निर्माण कला की शैशव अवस्था कह सकते हैं. तीसरे चरण में मन्दिर को टोपी पहनाई गई. अर्थात छोटे शिखर बनाये जाने लगे. देवगढ़ का यह, लाल बलुआ पत्थर से बना मन्दिर विष्णु को समर्पित है और “दशावतार” मन्दिर  कहलाता है. यह शिखरयुक्त “पंचायतन” शैली में बने मंदिरों में प्राचीनतम है जिसका निर्माण लगभग सन 470 में भारतीय इतिहास के उस स्वर्ण युग में हुआ था.

gajamokshamगजेन्द्र मोक्ष (विष्णु द्वारा मगर के चंगुल से हाथी कि रक्षा)

vishnu-pandavasशेषसाई विष्णु (नीचे पॅंच पांडव द्रौपदी सहित)

एक ऊँचे चबूतरे पर चढ़ कर जब प्रवेश द्वार पर पहुँचते हैं तो हमें द्वार के दोनो ओर बनी गंगा और यमुना की मूर्तियाँ सहज ही आकृष्ट करती है. गर्भगृह के अंदर प्रवेश संभव नहीं था अतः हमें मंदिर की परिक्रमा कर ही संतुष्ट होना पड़ा. मंदिर के चारों ओर पौराणिक कथाओं को अभिव्यक्त करती dancing-ganaमूर्तियों से सजाया गया है. गजेन्द्र मोक्ष, नर नारायण तपस्या तथा शेषासाई विष्णु की प्रतिमाएँ बहुत ही आकर्षक हैं. अचंभित करने वाला फलक विष्णु वाला है. विष्णु जी अपनी चिर परिचित मुद्रा में शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं. ऊपर की ओर कार्तिकेय अपने मयूर पर आरूढ़, ऐरावत पर बैठे इन्द्र, कमल पर ब्रह्माजी तथा नंदी पर उमा महेश्वर बैठे हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं. शैय्या के नीचे पहली बार पॅंच पांडवों को द्रौपदी सहित दर्शाया गया है. इसके पूर्व ऐसा किसी और मंदिर में नहीं हुआ है. 7 वीं या 8 वीं शताब्दी के कुछ शिव मंदिरों में पांडवों को ज़रूर दर्शाया गया है.

deogarh-mapअपनी देवगढ़ यात्रा की

 यादों को संजोए हम

 लोग संध्या 6 बजे तक

 ललितपुर लौट आए फिर

 इंतज़ार करते रहे अपनी

 ट्रेन का.

प्रथम दो चित्रों को छोड़ सभी हमारे मित्र बॉब किंग (Vaticanus) द्वारा
 
 अंग्रेजी में यह लेख यहाँ देखें
 
 
 

 

 

 

१००० वर्ष पूर्व के प्रजातंत्र का संविधान

जनवरी 26, 2009

 

 shiva-temple

दक्षिण भारत में चेन्नई से ८३ किलोमीटर की दूरी पर चेंगलपेट के पास एक कस्बा है “उतीरामेरूर” और आबादी लगभग २३०००. यह सन ८८० के दशक में चोल वॅशी राजा परंतगा सुंदरा चोल के आधीन था. उस राजाओं के जमाने में भी ग्राम प्रशासन में प्रजातंत्र का जो अनोखा उदाहरण मिलता है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुसभ्य और उन्नत थी. बस अड्डे के पास ही एक शिव मंदिर है. उसकी दीवारों पर चारों तरफ हमारे संविधान की धाराओं की तरह ग्राम प्रशासन से संबंधित विस्तृत नियमावली उत्कीर्ण है जिसमें ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन विधि का भी उल्लेख मिलता है. इसे राजा परंतगा सुंदरा चोल ने अपने शासन के १४ वें वर्ष उत्कीर्ण करवाया था. उन दिनों ग्राम uthiramerur-insसभा के सदस्यों के निर्वाचन हेतु जो पद्धति अपनाई जाती थी उसे “कुडमोलै पद्धति” कहा गया है. कूडम का अर्थ होता है मटका और ओलै ताड़ के पत्ते को कहते है. गाँव के केंद्र में कहीं एक बड़े मटके को रख दिया जाता था और नागरिक, उम्मेदवारों में से अपने पसंद के व्यक्ति का नाम एक ताड़ पत्र पर लिख कर मटके (Ballot Box) में डाल दिया करते थे.  बाद में उसकी गणना होती थी और ग्राम सभा के सदस्यों का चुनाव हो जाया करता था.

inscriptionउत्कीण अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि ग्राम सभा कि सदस्यता के लिए जो निर्धारित मानदंड थे वे हमें शर्मिंदा करते हैं. निर्वाचन में भाग लेने के लिए जो पात्रताएँ दर्शाई गई हैं वे निम्नानुसार हैं.

१. प्रत्येक उम्मेदवार के पास एक चौथाई वेली (भूमि का क्षेत्र) कृषि भूमि का होना आवश्यक है.
२. अनिवार्यतः उसके पास स्वयं का घर हो.
३. आयु ३५ या उससे अधिक  परंतु ७० वर्ष से कम हो.
४. मूल भूत शिक्षा प्राप्त किया हो और वेदों का ज्ञाता हो.
५. पिछले तीन वर्षों में उस पद पर ना रहा हो.

ऐसे व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य नहीं बन सकते:

१. जिसने शासन को अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो.
२. यदि कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया हो तो उसके खुद के अतिरिक्त
उससे रक्त से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सात पीढ़ियों तक अयोग्य रहेगा.
३. जिसने अपने कर ना चुकाए हों.
४. गृहस्त रह कर पर स्त्री गमन का दोषी.
५. हत्यारा, मिथ्या भाषी और दारूखोर.
६. जिस किसी ने दूसरे के धन का हनन किया हो.
७. जो ऐसे भोज्य पदार्थ का सेवन करता हो जो मनुष्यों के खाने योग्य ना हो.

ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो ३६० दिनों का ही रहता था परंतु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी. उस समय के लोगों की प्रशासनिक एवं राजनैतिक सूजबूझ का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि लोक सेवकों के लिए वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में आचरण के लिए आदर्श मानक निर्धारित थे.

ग़लत आचरण के लिए जुर्माने की व्यवस्था बनाई गयी थी. जुर्माना ग्राम सभा ही लगाती थी और जिसे भी यह सज़ा मिलती, उसे दुष्ट कह कर पुकारा जाता. जुर्माने की राशि प्रशासक द्वारा उसी वित्तीय वर्ष में वसूलना होता था अन्यथा ग्राम सभा संज्ञान लेते हुए स्वयं मामले का निपटारा करती. जुर्माने की राशि के पटाने में देरी किए जाने पर विलंब शुल्क भी लगाया जाता था. निर्वाचित सदस्य भी ग़लतियों के लिए जुर्माने के भोगी बन सकते थे.

इन्हीं शिलालेखों से पता चलता है कि स्वर्ण या स्वर्ण आभूषणों के व्यवसाय को पारदर्शी बनाए रखने के लिए स्वर्ण के परीक्शण कि व्यवस्था बनाई गयी थी. इसके लिए एक १० सदस्यों वाली समिति होती थी जो स्वर्ण तथा उससे बने आभूषणों को सत्यापित करती थी. ३ माह में एक बार ग्राम सभा के सम्मुख उपस्थित होकर इस समिति को शपथ लेना होता था कि उन्होने कोई भ्रष्ट आचरण नहीं किया है. इसी तरह अलग अलग कार्यों के लिए समितियों का गठन किया जाता था जैसे, जल आपूर्ति, उद्यान तथा वानिकी, कृषि उन्नयन आदि आदि. और ऐसे हर समिति के लिए अलग से दिशा निर्देश भी दिए गये है.

सार्वजनिक विद्यालयों में व्याख्यताओं की नियुक्ति के भी नियम थे. अनिवार्य रूप से वे शास्त्रों, वेदों आदि के ज्ञाता रहते थे और सदैव बाहर से ही बुलाए जाते थे.

एक वो थे और एक हम हैं!

मंदिर का चित्रसरवनन अय्यर

as.saravanan@gmail.com