ललितपुर से हमें गाड़ी पकड़नी थी जो पाँच घंटे विलंब से आने वाली थी. वहीं बैठे रहते तो रात आठ बजने वाले थे. हम तो दिन के बारह बजे के पहले ही पहुँच गये थे. हमने सोचा कि अब क्या करें. भला हो हमारे ड्राइवर का जो हमारी रुझान से परिचित था. उसी ने कहा चलिए साहब अपन देवगढ़ हो आते हैं. और हम लोग निकल पड़े. ललितपुर, उत्तर प्रदेश (दिल्ली – चेन्नई मुख्य रेल मार्ग पर) से मात्र 33 किलोमीटर दक्षिण मे एक रमणीय स्थल है, देवगढ़. पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के अतिरिक्त ऊँची चट्टानों के नीचे घूमती हुई बेतवा नदी एक अनोखी छटा प्रस्तुत करती है. इतना मनोरम है कि आप देखते ही रह जाएँगे और आँखें नहीं थकेंगी. इस प्रकार का प्राकृतिक दृश्य हमने केवल एक जगह और देखी है वह है सांची के पास सतधारा जहाँ पहाड़ियों के नीचे से बेस नदी बहती दिखती है.
पहाड़ी के ऊपर की समतल भूमि पर अनेकों मंदिर बने हुए हैं. बहुत सारे तो ध्वस्त हो गये हैं. एक तरफ कुछ भग्नावशेष दिखे जिसे वराह का मंदिर बताया गया, इसका केवल चबूतरा बचा हुआ है. यहाँ कहा जाता है कि कुल 40 जैन मंदिर और थे जिनमे से आज भी छोटे बड़े मिलाकर कुल 31 बचे हुए हैं. शांतीनाथ जी का मंदिर इन सबमें उल्लेखनीय है. यहाँ मनौती के रूप में खंबों का निर्माण करवाए जाने की परंपरा रही है जिन्हें “मनस्थम्भ” कहा जाता है. ऐसे ही मनौती में शिलाखंड (आयपट्ट) दिए जाने की भी प्रथा थी. यहाँ चारों तरफ से दिखने वाली “सर्वतोभद्र” प्रतिमा तथा 1000 जैन मुनियों की आकृति उकेरी हुई “सहस्त्रकूट” खंबे विशिष्ट हैं. लगभग 8 वीं से 17 वीं शताब्दी तक यह स्थल जैन मतावलंबियों (दिगंबर) का एक केन्द्र रहा है. यहाँ चट्टानों को काट कर बनाए गये गुफा मंदिर (सिद्ध की गुफा), राजघाटी, नहरघाटी आदि भी हैं. बेतवा नदी पहाड़ियों के नीचे बहती है और नीचे जाने के लिए पत्थरों को काट कर सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं. सीढ़ियों से नीचे उतरते समय बाईं तरफ चट्टानों को तराश कर छोटे छोटे कमरे बना दिए गये हैं जिनमे जैन मुनि एकांत में प्रकृति का आनंद लेते हुए अपनी साधना में निमग्न हुआ करते थे. चट्टानों पर लगभग 8 वीं शताब्दी की ब्राहमी लिपि में कई जगह लेख भी खुदे हैं.
हम नीचे नदी तक जाकर वापस लौट आए. फिर ऊपर के दृश्यों को मन में समेटने का प्रयास किया. पूरा इलाका जंगल की तरह झाड़ झंकाड़ से भरा था. ऊंचे घाँस भी उग आए थे. सारांश यह कि रख रखाव का कही नाम नहीं था. कुछ समय बिताकर हमारी वापसी की यात्रा प्रारम्भ हुई. कुछ ही दूर जाना हुआ था कि एक और मन्दिर दिख पड़ा, बिल्कुल जाना पहचाना. हम रुक गए और अवलोकन किया उस गुप्त कालीन मन्दिर का, जिसके शिखर के कई पत्थर धराशायी हो चुके थे. यहाँ यह बताना उचित होगा कि भारत में प्रारम्भ में देवताओं के लिए आश्रय स्थली के रूप में कंदराओं में जगह दी जाती थी जिसके अच्छे उदहारण हैं बराबर (गया), अजंता और एल्लोरा के गुफा मन्दिर. गांवों में तो पेड़ों के नीचे ही देव प्रतिमाएँ विश्राम करती थी, जो आज भी देखा जा सकता है लेकिन फ़िर उनपर तरस आ गया. सर्व प्रथम मैदानी भूभाग में देवता के आश्रय स्थल के रूप में मढिया जैसे चौकोन, शिखर विहीन समतल छत वाले मंदिरों का निर्माण हुआ. फ़िर भक्तों का ख्याल आया तो आगे एक छोटा मंडप जोड़ दिया. 3 री 4 थी सदी के मंदिरों की प्रारंभिक अवस्था के उदाहरण साँची तथा जबलपुर के पास तिगवा में अभी भी विद्यमान हैं. (लिंक पर क्लिक करने पर मन्दिर का चित्र दिखेगा). इसे हम मन्दिर निर्माण कला की शैशव अवस्था कह सकते हैं. तीसरे चरण में मन्दिर को टोपी पहनाई गई. अर्थात छोटे शिखर बनाये जाने लगे. देवगढ़ का यह, लाल बलुआ पत्थर से बना मन्दिर विष्णु को समर्पित है और “दशावतार” मन्दिर कहलाता है. यह शिखरयुक्त “पंचायतन” शैली में बने मंदिरों में प्राचीनतम है जिसका निर्माण लगभग सन 470 में भारतीय इतिहास के उस स्वर्ण युग में हुआ था.
गजेन्द्र मोक्ष (विष्णु द्वारा मगर के चंगुल से हाथी कि रक्षा)
शेषसाई विष्णु (नीचे पॅंच पांडव द्रौपदी सहित)
एक ऊँचे चबूतरे पर चढ़ कर जब प्रवेश द्वार पर पहुँचते हैं तो हमें द्वार के दोनो ओर बनी गंगा और यमुना की मूर्तियाँ सहज ही आकृष्ट करती है. गर्भगृह के अंदर प्रवेश संभव नहीं था अतः हमें मंदिर की परिक्रमा कर ही संतुष्ट होना पड़ा. मंदिर के चारों ओर पौराणिक कथाओं को अभिव्यक्त करती मूर्तियों से सजाया गया है. गजेन्द्र मोक्ष, नर नारायण तपस्या तथा शेषासाई विष्णु की प्रतिमाएँ बहुत ही आकर्षक हैं. अचंभित करने वाला फलक विष्णु वाला है. विष्णु जी अपनी चिर परिचित मुद्रा में शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं. ऊपर की ओर कार्तिकेय अपने मयूर पर आरूढ़, ऐरावत पर बैठे इन्द्र, कमल पर ब्रह्माजी तथा नंदी पर उमा महेश्वर बैठे हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं. शैय्या के नीचे पहली बार पॅंच पांडवों को द्रौपदी सहित दर्शाया गया है. इसके पूर्व ऐसा किसी और मंदिर में नहीं हुआ है. 7 वीं या 8 वीं शताब्दी के कुछ शिव मंदिरों में पांडवों को ज़रूर दर्शाया गया है.
अपनी देवगढ़ यात्रा की
यादों को संजोए हम
लोग संध्या 6 बजे तक
ललितपुर लौट आए फिर
इंतज़ार करते रहे अपनी
ट्रेन का.