वैसे तो यह लोगों के लिए जानी पहचानी जगह है. चेन्नई जाने वाले अक्सर महाबलीपुरम (मामल्लापुरम) हो आते हैं. एक तो वहां से नजदीक है और दूसरा यह प्रख्यात विश्व धरोहर भी है. अभी अभी कुछ दिनों पहले ममता जी ने अपने ब्लॉग पर अपने ही अंदाज़ में यहाँ के बारे में काफ़ी कुछ बता दिया था इसलिए हम अपने आप को सीमित रखते हुए उन बातों के बारे में जानेंगे जो या तो बताई नहीं गई है और या तो महत्वपूर्ण है.
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दक्षिण भारत के ऐतिहासिक स्थलों में महाबलीपुरम अपना एक अलग स्थान रखता है. अपने अनूठे मंदिरों के स्थापत्य के कारण हमें इसने सदैव ही आकर्षित किया है. जिस तल्लीनता से शिल्पियों ने समुद्र के किनारे प्राकृतिक अवस्था में पाए जाने वाले विशाल शिलाओं को तराश कर देवताओं के लिया आश्रय का निर्माण किया है और प्रस्तरों पर आकृतियाँ उकेरी हैं ऐसा आप को भारत ही नहीं विश्व में भी कही नहीं मिलेगा. इन से मिलती जुलती कलात्मकता ऊंचे पहाड़ियों यथा अजंता, एल्लोरा,उदयगिरी (उड़ीसा) आदि में जरूर पायी जाती हैं. लेकिन महाबलीपुरम में शिल्पी नीचे समुद्री धरातल पर उतर आए. पूरी संभावना है कि ये उन्हीं शिल्पियों का समूह रहा होगा जिन्होने पहाड़ियों पर काम करने के पश्चात् रोज़ी रोटी की तलाश में नीचे की ओर बढ़ते हुये वहां के पल्लव राजा राजसिम्हा (अत्यन्तकमा) से काम देने को कहा.
सर्वप्रथम तो इन शिल्पियों ने समुद्री किनारे पड़े एक बड़े पाषाण खण्ड को लेटे हुये विष्णु का रूप प्रदान किया फ़िर हुआ उनके हुनर का प्रदर्शन, चारों तरफ़ पड़े बड़े बड़े शिलाओं पर. पंचरथ के नाम से प्रख्यात मंदिरों के बाद मानो स्वर्ग की अप्सराओं
के लिए नृत्य करने के लिए सिंह मुख सदृश मंच भी बना दिया. एक तरफ़ आप देख सकते हैं भगीरथ प्रयत्न को किस तरह पत्थरों में चित्रित किया गया. नैसर्गिक रूप से पहाडी से बह कर आने वाले पानी का भी बड़े खूबसूरती से प्रबंधन किया गया है. दो चट्टानों के बीच से पानी गिरता रहा होगा. और इस को नाना प्रकार के जलचर, थलचर आदि को हमारे पौराणिक गाथा के सदृश सराहते दर्शाया गया. गंगा अवतरण का यह दृश्यांकन मनोहारी है. एक और पैनल (कृष्ण मंडप) में श्री कृष्णजी गोवर्धन पर्वत को एक हाथ से उठाये हुये हैं . इस विपत्ति में भी लोग अपने अपने काम में निर्भय होकर लगे हुये हैं. एक ग्वाला दूध दुह रहा है. गाय अपने बछडे को चाट
कर वात्सल्य प्रकट कर रही है लेकिन लगता है कुछ डरी हुई है. वह दूध को रोके हुये है. इस बात की अभिव्यक्ति उसके पूँछ से हो रही है. दूध दुहते हुये उस ग्वाले को जरा गौर से देखें. कान और सर के बाल से बौद्ध प्रभाव परिलक्षित हो रहा है. ऐसी सब बातों को समझने के लिए एक तो हमें वहां कोई समझाने वाला चाहिए और हममे थोडी रूचि का होना भी आवश्यक है.
यह सब काम सन ६३० में हुआ और इसके बाद समुद्र के किनारे बने शेषासायी विष्णु के दोनों तरफ़ शिव मंदिरों का निर्माण लगभग सन ७०० में किया गया जो ‘शोर टेम्पल’ के नाम से प्रसिद्द है. समुद्र के पानी को रोकने के लिए दीवार भी बनाई गई थी. इन मंदिरों के शिखर को देखें तो इनकी निर्माण शैली एकदम भिन्न लगेगी जो साधारणतया दक्षिण के मंदिरों में नहीं पायी जाती.
कहा जाता है की समुद्र के किनारे कई और मन्दिर थे क्योंकि तमिल साहित्य में ऐसा कुछ उल्लेख हुआ है. सन २००४ में आए सुनामी में समुद्र के गर्भ से अनेकों गढ़ी हुई शिलाएं प्रकट हुई थीं. कुछ के चित्र यहाँ हम दे रहे हैं. इससे भी कुछ पुराने और मंदिरों के समुद्र के द्वारा हनन किए जाने की बात में कही सत्यता दिकती है. सदियों पहले महाबलीपुरम या शायद उस समय इसे मामल्ल पट्टनम कहा जाता रहा होगा, एक फलता फूलता बंदरगाह था. पहाड़ी के ऊपर चट्टान पर तेल भरने के लिए जगह बनाई गई है जिसे रात को जलाया जाता था ताकि नाविक समुद्र में भटक न जायें. यह हमारा प्राचीनतम दीप स्थंभ (लाईट हाउस) है.
जिन शिल्पियों (तमिल में स्थापति) ने यहाँ अपनी कल्पनाओं को पाषाण शिलाओं में साकार किया उनके वंशज आज भी महाबलीपुरम के इर्दगिर्द बसते हैं और पत्थरों को आकृति देते देखे जा सकते हैं.
अगली किश्त 1 मार्च को देखें अंग्रेज शिव लिंग ले गए
Archive for फ़रवरी, 2009
महाबलीपुरम (मामल्लापुरम)
फ़रवरी 26, 2009Archaeology, History, Iconography, Mythology, Travel में प्रकाशित किया गया | 42 Comments »
विश्व का विशालतम शिव
फ़रवरी 23, 2009शिवरात्रि के इस अवसर पर विशेष प्रस्तुति
पेरिअप्पा पेरिअप्पा आप इस महाशिवरात्रि के लिए मुरुदेश्वर के शिव के बारे में लिखिए न. मुंबई से हमारी भतीजी गौरी ने कहा. तो फ़िर तू ही लिख दे न. नहीं न पेरिअप्पा अभी एक्साम्स हैं. अभी लिखने बैठूंगी तो अम्मा खा जायेगी, अच्छा आप का नाम ले लूंगी. हमने बिना सोचे विचारे ही कह दिया जरुरत नहीं है. मन ही मन हमने सोचा कही परीक्षा में नंबर कम आए तो नाहक हम कारक न बन जायें. लीजिये फ़िर इस शिवरात्रि पर विशेष.
रावण शिव जी का परम भक्त था. एक बार रावण ने खूब तपस्या करी और शिव जी को प्रसन्न कर दिया. वरदान स्वरुप रावण ने शिव जी से “अत्मलिंग” की मांग रखी. शिव जी ने कहा ठीक है लेकिन इसे जमीन पर मत रखना नहीं तो फ़िर वह वहां से नहीं उठेगा. रावण “अत्मलिंग” को हाथ में लिए लंका के लिए निकल पड़ा. इस लिंग के प्राप्ति पर रावण अमर और अदृश्य हो सकता था. नारद मुनि को इसकी भनक लग गई थी. वे सीधे विष्णु जी के पास पहुंचे और कहा नारायण अनर्थ होने जा रहा है.
दुष्ट रावण भूलोक ही नहीं बल्कि देवलोक में भी हाहाकार मचायेगा. उसे रोकिये. तब तक तो रावण गोकर्ण तक पहुँच ही गया था. विष्णु ने अपना करतब दिखाया. मध्याह्न में ही सूर्य को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया. रावण शिव जी की सांध्य पूजा किया करता था. अब वह धर्म संकट में पड़ गया. इस बीच नारद ने गणेश जी को भी पटा लिया था जिसके कारण गणेश जी स्वयं ब्राह्मण के वेश में रावण के समीप प्रकट हो गए. रावण ने उस ब्राह्मण स्वरुप गणेश जी से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को अपने हाथों में रखे ताकि वह सांध्य पूजा कर सके. ब्राह्मण ने बात मान ली परन्तु कह भी दिया कि आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही पुकारेगा और फ़िर उस लिंग को छोड़ कर चलता बनेगा. रावण ने “अत्मलिंग” को ब्राह्मण के हवाले कर पूजा करने निकल पड़ा. रावण के जाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं (गोकर्ण) रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए. रावण अपनी पूजा से निपट कर जब वापस आया तो अत्मलिंग को जड़वत पाया. उसने उठाने कि भरसक कोशिश की पर सफल न हो सका. फ़िर क्रोध में आकर अत्मलिंग के अलग अलग भागों को उखाड़ कर इधर उधर फेंकने लगा. जिस वस्त्र से लिंग ढंका हुआ था वह आकर मुरुदेश्वर में गिरा और तब से एक महत्वपूर्ण शिव क्षेत्र के रूप में प्रसिद्द हुआ.
यहाँ का प्राचीन शिव मन्दिर समुद्र के किनारे कंदुकागिरी पर बना है और उसकी बनावट, शिल्प आदि से चालुक्य – कदम्ब शैलियों का मिश्रित प्रभाव परिलक्षित होता है. मन्दिर के अन्दर के शिल्प और कलात्मकता लुभावनी है. इस मन्दिर की देखरेख के लिए प्रबंधक के रूप में श्री मंजुनाथ शेट्टी अपनी सेवाएं दे रहे हैं. इन्होने स्वेच्छा से सिंडिकेट बैंक के अपने अधिकारी पद से सेवा निवृत्ति ले ली थी. यहाँ की एक विशेषता यह है कि इस मन्दिर के आस पास भीख मांगने वाले नहीं दिखेंगे. कोई भी दूकानदार पूजा सामग्री खरीदने के लिए भी आपके पीछे नहीं पड़ेगा. कुछ बच्चे जरूर घूम रहे होते हैं जो वहां के चित्रों को बेचने में लगे हैं. पाँच रुपये के दस. मन्दिर के पीछे एक पुराना किला भी है और कहा जाता है कि टीपू सुलतान ने इस किले का जीर्णोद्धार कराया था.
मुरुदेश्वर की आज कल की प्रसिद्धि तो यहाँ के विशाल शिव जी के कारण हो गई है. यह प्रतिमा उसी कंदुका गिरी के शीर्ष पर बनी है, पुराने मन्दिर के ऊपर कुछ दायीं ओर. मूर्ति की ऊँचाई १२३ फीट है जिसके कारण दूर दूर से ही दिखाई भी देती है. शिव जी के एकदम नीचे पैरों तले एक सुरंग नुमा हाल है. यहाँ पर पौराणिक कथाओं के आधार पर झांकिया बनी हैं. रावण, गणेश जी ब्राह्मण के वेश में और ऐसी ही कथाओं से सम्बंधित अन्य प्रतिमाएँ रखी है. इनके बारे में कन्नड़ और हिन्दी में कमेंट्री चलती है. अतिरिक्त शुल्क देकर अंग्रेजी का केसेट भी लगवाया जा सकता है. यह सब अभी अभी ही किया गया है. जहाँ एक तरफ़ शिव जी की यह प्रतिमा विशालतम है वहीं इन तक आने के लिए सिंह द्वार पर राजगोपुरम जो बना है वह भी बेमिसाल है. इसकी ऊँचाई २४९ फीट है और इसके मुकाबले कोई दूसरा गोपुरम नहीं है. गोपुरम के दरवाजे पर ही दो विशाल हाथी द्वारपाल के रूप में बनाये गए हैं. इस पहाडी के तीन ओर समुद्र है जो अपेक्षाकृत शांत है. लगा हुआ बीच भी है जो साफ़ सुथरी और मनमोहक है. यहाँ नग्न या अर्ध नग्नावस्था में रेत पर लेटे रहना निषिद्ध है हलाकि विदेशी पर्यटकों की यहाँ कोई कमी नहीं है. कुछ दूरी पर रेत पर ही कई नौकाएं दिखेंगी. शाम होते होते समुद्र से आखेट कर नौकाएं वापस आती दिखती हैं. उनके वापसी पर वहां मछलियों की बिक्री भी होती देख सकते हैं.
यहाँ आस पास ही ४ होटल हैं. बगीचे से लगा हुआ एक रेस्ट हाउस है जहाँ रहने का किराया जेब पर भारी नहीं पड़ता. मन्दिर की ओर जाते समय समुद्र से सटा हुआ ‘नवीन बीच रेस्टोरेंट’ बड़ी अच्छी जगह बना है. अन्दर नाश्ता करते हुए समुद्र का नज़ारा बड़ी संतुष्टि दायक होती है.
मुरुदेश्वर में इस विश्व के सबसे ऊंचे शिव जी, भव्य राज गोपुरम, पर्यटकों के लिए सुविधाएँ आदि की व्यवस्था करने के लिए पूरा का पूरा श्रेय श्री आर.एन. शेट्टी, को जाता है जो यहाँ के एक प्रमुख उद्योगपति हैं. उन्होंने मुर्देश्वर को एक बड़े पर्यटन केन्द्र के रूप में विकासित करने के लिए ५० करोड़ रुपये की राशि लगायी थी. इन सबके आलावा मुरुदेश्वर में कुछ बहुत ही सुंदर थीम पार्क भी हैं..
मुरुदेश्वर कर्णाटक के भटकल तहसील में मुंबई – थिरुवनन्थपुरम रेल मार्ग पर पड़ता है और गाडियां यहाँ रूकती भी हैं. बीकानेर और जोधपुर से भी रेलगाडियां मिलती हैं. दिल्ली की ओर से आने के लिए कोंकण मार्ग पर जानेवाली गाड़ियों को चुना जा सकता है. गोवा से मुर्देश्वर की दूरी मात्र १६० किलोमीटर है. यहाँ से उडुपी भी नीचे १०० किलोमीटर की दूरी पर है. मुरुदेश्वर स्टेशन से मन्दिर या बीच तक के लिए ऑटोवाले २० रुपये लेते हैं. हुबली में उतरकर भी यहाँ आया जा सकता है.
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