Archive for मार्च, 2009

उडुपी

मार्च 30, 2009

udupiकन्नूर (Cannanore) में कुछ दिन रुकना हुआ था और तभी हम मदिरा प्रिय मुथप्पन के मन्दिर जा पाये थे. हमलोगों को उडुपी आकर्षित कर रही थी. रेलगाडी से भी जाया जा सकता था लेकिन आस पास भ्रमण के लिए अपने स्वयं का या किराये का वाहन ज्यादा उपयुक्त था. सो हम लोगो ने किराये की गाड़ी की और निकल पड़े थे उडुपी के लिए. मुंबई से उडुपी आना भी आसान है. कोंकण रेलमार्ग पर मडगांव (गोवा) से कुछ और दूर. हमें नहीं लगता कि लोगों के लिए  उडुपी कोई अनजानी जगह होगी. सभी महानगरों में सबसे अच्छे दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए प्रसिद्द उडुपी होटल तो सबने सुना ही होगा. एक और ख्याति भी है. यहाँ का श्री कृष्णजी का प्राचीन मन्दिर. उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्द मनिपाल भी उडुपी से होकर ही जाना पड़ता है, जो करीब ही है. पश्चिमी घाट की सुरम्य तलहटी में बसा यह  कर्णाटक का तीसरा महत्वपूर्ण शहर है और एक सांस्कृतिक केन्द्र भी.

udipisrikrishna11ryउडुपी कर्णाटक के एक ऐसे हिस्से में आता है जिसे तुलुनाडू (नाडू का अर्थ होता है प्रदेश) कहते हैं. जैसे उत्तर प्रदेश का अवध या बुंदेलखंड. तुलुनाडू की स्थानीय भाषा तुलु कहलाती है जो कन्नड़ से भिन्न है. हम वैसे तो सभी भाषाओँ में दखल रखते हैं, परन्तु यह तुलु हमारे पल्ले नहीं पड़ती. पहली बार हमें स्थानीय लोगों से संवाद में परेशानी हुई क्योंकि वे हमें समझ नहीं पा रहे थे. फ़िर हमने अपनी तुरुप चाल चली और सफल भी हो गए. तेलुगु, तमिल, मलयालम सब की खिचडी बनाई और बात बन गई. होटल में पहुँचने  पर हमने पाया कि होटल वाले हिन्दी समझते हैं. खान पान में भी कोई समस्या नहीं थी. रोटी भी (गेहूं की) मिल रही थी. रात विश्राम कर सुबह मन्दिर जाने का कार्यक्रम बनाया गया.

gurukalयहाँ इस रौप्यपीठ में श्री कृष्ण मन्दिर/मठ की स्थापना १३ वीं सदी में श्री माधवाचार्य द्वारा की गई थी. वे एक वैष्णव संत थे और  “द्वैत” मत/सिद्धांत के प्रणेता भी. उन्होंने एक गुरुकुल की भी स्थापना की थी जहाँ आज भी शास्त्रों की शिक्षा दी जाती है. कृष्ण जी का मन्दिर एक विशाल भूभाग पर फैला हुआ है जिसमे गोशाला आदि भी हैं. मन्दिर से ही लगा हुआ निर्मल जल युक्त  एक सरोवर है.temple-tank मन्दिर का परिक्रमा पथ लगभग ३० फीट चौडा है. वैसे यहाँ कोई विशेष भीड़ नहीं थी. मन्दिर के अन्दर ही मठ के द्वारा संचालित दूकाने हैं जहा से प्रसाद आदि का विक्रय होता है. गर्भगृह में काले पत्थर से बने  कृष्ण जी बांसुरी हाथ में लिए आपकी प्रतीक्षा में रहते हैं. हमारे रहते ही गुरुकुल के आचार्य भी वहां आए और विशेष पूजा संपादित कर अपने शिष्यों के साथ चले गए. माधवाचार्य जी के संप्रदाय के ही वहां कुल ८ मठ हैं जो अलग अलग नाम से जाने जाते हैं. मन्दिर तथा उस से सम्बंधित गतिविधियों का सञ्चालन प्रत्येक मठ के द्वारा दो वर्षों के लिए किया जाता है. यहाँ भक्तों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था भी है और हजारों लोग रोज इसका लाभ उठाते हैं. हमने इनके रसोई को भी देख लिया जहाँ आधुनिक संयत्रों द्वारा चावल, दाल, सब्जी, खीर आदि बनाई जाती है. उससे लगा हुआ ही इनका विशाल भंडार गृह भी है.

कृष्ण मन्दिर से बाहर आने पर पता चला कि निकट ही एक प्राचीन शिव मन्दिर भी है. हम तो ठैरे शिव जी के परम भक्त, जल्दी जो मान जाते हैं. यह शिव मन्दिर कृष्ण मन्दिर से भी प्राचीन है. काल का कुछ पता नहीं चल पाया और हमने जानने का प्रयास भी नहीं किया. यहाँ शिव जी को चन्द्रमौलेश्वर कहा जाता है. कहा जाता है  कि उडुपी का नाम ही इनके कारण पड़ा. मूलतः यह उडुपा था. ‘उडु’ अर्थात तारे (नक्षत्र) और ‘पा’ अर्थात स्वामी – नक्षत्रों का स्वामी = चन्द्र और चन्द्र को धारण करने वाला चंद्रमौलेश्वर. हमने इनका दर्शन कर अपने आप को धन्य समझा.

malpe-udupiबाहर आकर किसी अच्छे होटल की तलाश की गई और हम सब ने पेट भर कर गरमा गरम मसाला दोसा और स्पेशल आलूगुंडे  खाए. चटनी तो लाजवाब थी, चाटते रहे. बाज़ार वाजार घूमकर होटल की और चल पड़े. दुपहर के बाद ही फ़िर निकल पड़े मालपे (Malpe) बीच की ओर जो लगभग ६ किलोमीटर की दूरी पर है. बीच को देख कर तो हमारी साँसे थम सी गयीं.st-marys-isle अद्भुत अलौकिक सौदर्य. किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं, भीड़ भाड भी नहीं. बस आप हो और प्रकृति. यहाँ कभी प्राचीन समय में बंदरगाह हुआ करता था. सामने ही समुद्र में एक सुंदर टापू, सेंत मैरीस आइलैंड,st-marys-isl-malpe बड़ी बड़ी चट्टानों को पार कर नाव में जाना पड़ता है. ऐसी सुंदर जगह तो हमने जीवन में कहीं नहीं देखी थी.st-marys1 मालपे बीच में ही एक रिसॉर्ट है जहाँ रहने, खाने पीने की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं. हमने वहां गोल गप्पे खाए. दक्षिण दिशा में १२ किलोमीटर जाने पर एक और सुंदर बीच है और नाम हैkaup-light-house ‘काउप’ (Kaup). यहाँ चट्टानें कुछ अधिक ही हैं लेकिन उनसे प्राकृतिक सुन्दरता बढ़ जाती है. यहाँ एक प्राचीन लाईट हाउस भी है जो १०० फीट ऊंची है. वहां समुद्र में पाये जाने वाली  चट्टानों से नाविकों को आगाह करने के लिए इसे मध्य युग में बनवाया गया था.

इस तरह हमारा उडुपी आना परम सार्थक रहा और खरामा खरामा वापस लौट पड़े गुनगुनाते हुए “कि आवाज़ देके बुला लेगी मुझको”   

 

कोच्चि (Cochin) के यहूदी

मार्च 25, 2009

सितंबर माह के अंत में, दो साल पहले मेरा सपरिवार कोच्चि (कोचीन) जाना हुआ. मेरा एक छोटा भाई अपनी कार में हमें शहर के विभिन्न हिस्सों में घुमा रहा था. एक गली के मुहाने में गाड़ी खड़ी कर उसने बताया कि यही ज्यूस स्ट्रीट (यहूदी मोहल्ला) है. हम लोग गाड़ी से उतरकर सड़क पर खड़े हो गये. मैने चारों तरफ नज़र दौड़ाई. तभी मुझे याद आया कि मैने मलयालम में एक फिल्म देखी थी. नाम था “ग्रामाफोन”. बड़ी अच्छी फिल्म थी. उसमे एक यहूदी लड़की की प्रेम कहानी थी. जो इसी मोहल्ले की थी. भाई के साथ मै धीरे धीरे गली में आगे बढ़ते हुए फिल्म के सभी दृश्यों को सजीव होते देख रहा था. गली के दोनों ओर मकान और दुकान साथ साथ थे.  दूकानों में विदेशी पर्यटकों को लुभाने, कलात्मक पुरा वस्तुओं का अंबार था. एक दूकान के अंदर गया तो  देखता हूँ कि पीछे एक बड़ा सा गोदाम है. बड़ें बड़े नक्काशीदार दरवाज़े, चौखट, खंबे (पुराने भव्य मकानों से उखड़े हुए), फर्नीचर, काँसे के बर्तन, मूर्तियाँ, और ना जाने क्या क्या रक्खे थे. मुझे वो जगह किसी अजायब घर से कम नहीं लगी. बाहर निकलते निकलते एक तबेले में ढेर सारी चीनी मिट्टी की बनी, रंग बिरंगे गोल गुटके (टेबल आदि में लगनी वाली नाब) पड़े थे. मैने कीमत पूछी और 4/6 खरीद भी ली.

Jews Street (Afternoon)

Jews Street (Afternoon)

कुछ और आगे बढ़ने पर दाहिनी ओर एक मकान के सामने कुछ लोग इकट्ठे होकर आपस में बातचीत करते दिखे. सिद्धार्थ की तरह हमारे मन में भी कौतूहल जागा कि मामला क्या है. उस घर के निकट पहुँच कर खिड़की से अंदर झाँक कर देखा. एक मृत व्यक्ति पलंग पे पड़ा था. सिरहाने और बगल में तेल के दिए जल रहे थे. पूछ ताछ करने पर पता चला कि कोच्चि में रहने वाला यह तेरहवाँ यहूदी था. मतलब बारह अभी और बचे हैं. अंतिम संस्कार के लिए कम से कम दस यहूदियों का होना ज़रूरी बताया गया. इसलिए लोग आस पास बसे इनके लोगों को इकट्‍ठा करने निकले हैं. जब तक कोरम पूरा नहीं हो जाता, शव यों ही पड़ा रहेगा.ना जाने क्यों मुझे एक विचित्र सी अनुभूति हो रही थी. मैं उस घर के अंदर चला गया और मृत देह के पास खड़े होकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की. कुछ देर वहाँ रुक कर बाहर आ गया.

यह मोहल्ला कभी संभ्रांत एवं संपन्न यहूदी परिवारों से भरा पड़ा था. अधिकतर लोग मसालों के व्यापारी थे. कुछ लोग छोटा मोटा काम/धन्दा करने में भी परहेज नहीं रखते थे. यहूदी समाज मुख्यतः तीन वर्गों में बँटा हुआ था. पहला, स्थानीय (जो प्राचीन काल से हैं) जिन्हे काले यहूदी भी कहा जाता था (जो वास्तव में काले नहीं थे), दूसरा वर्ग विदेशी या परदेसी यहूदियों का था जो स्पेन, हॉलॅंड, ईजिप्ट आदि देशों से १५ वीं शताब्दी के बाद प्रताड़ना से बचने के लिए आ बसे. इन्हे गोरे यहूदी कहा गया. एक तीसरा वर्ग भी था जो पहले दास (गुलाम) हुआ करते थे जिन्हे मुक्ति के बाद यहूदी धर्म में दीक्षित किया गया था. इनकी सामाजिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी. पुर्तगालियों ने जिस इलाक़े में भी आक्रमण किया, वहाँ के लोगों को पकड़ कर जहाज़ में ले जाते और उन्हें जबरन गुलाम बना लेते. मुझे ऐसा लगता है कि केरल के तीसरी श्रेणी के यहूदी दक्षिण पूर्व एशिया के द्वीप समूहों से रहे होंगे. इन सभी वर्गों के अपने अलग अलग प्रार्थना स्थल हुआ करते थे.

सभी जानते हैं कि केरल में मसाले होते हैं जिनकी माँग विदेशों में खूब रही है. प्राचीन समय से ही केरल के तट पर मुज़रिस नामक एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था जिसे आज कोडुनगल्लूर के नाम से जानते हैं. कहा जाता है कि इसराइल के यहूदी राजा सोलोमन भारतीय उत्पाद की प्राप्ति के लिए अपने जहाज़ सोपारा (मुंबई के पास) और मुज़रिस भेजा करता था. यह यहूदियों के भारत और विशेष कर मुज़रिस से संपर्क की शुरुआत थी. कहा जाता है कि ईस्वी सन 68 में,  येरुशलेम के यहूदी मंदिर को नष्ट किए जाने और भगाए जाने के परिणाम स्वरूप करीब 1000 यहूदी स्त्री पुरुषों का जत्था येरूशेलम से भाग कर शरण लेने मुज़रिस (कोडुनगल्लूर) पहुँचा. इन्हे वहाँ पनाह मिली और अधिकतर लोग कोडुनगल्लूर में बस गये. कुछ अन्यत्र निकटवर्ती कस्बों में जा बसे (माला, परावुर, चेन्नमंगलम, चोवघाट आदि). यहूदियों के आने का सिलसिला, खेपों में सदियों तक चलता रहा. अधिकतर लोगों ने व्यापार एवं कृषि को अपनाया. अपने परिष्रम के बूते यहूदी संपन्न होते गये और प्रतिष्टित हो गये. सन 1000 के लगभग राजा भास्कर रवि वर्मा के शासन काल में जोसेफ रब्बन (इसुप्पु इरब्बन) तथा 72 अन्य यहूदी परिवारों को कोडुनगल्लूर से लगा हुआ अन्जुवनम नामक क्षेत्र, संपूर्ण स्वायत्तता के साथ, दान स्वरूप प्रदान किया गया. उन्हे करों में छूट का भी प्रावधान था. इस दान की पुष्टि के लिए ताम्र पत्र भी जारी किया गया था परंतु जो ताम्र पत्र आज उपलब्ध है, वह प्रतिलिपि मात्र है, मूल प्रति गायब है. विडंबना यह है कि 12 वीं सदी तक का  ऐसा कोई भी पुरातात्विक मान्य प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यहूदियों के केरल में पूर्व से बसे होने की पुष्टि की जा सके. चेन्नमंगलम में एक शिलाखंड प्राप्त हुआ है जो किसी कब्र का शीर्ष भाग रहा होगा. इस पर हिब्र्यू लिपि में “सारा, इसराइल की पुत्री, 1269” अंकित है. यही एकमात्र प्राचीनतम प्रमाण यहूदियों के पक्ष में है.

13 वीं शताब्दी के आस पास किसी प्राकृतिक विपदा के कारण (संभवतः सूनामी) केरल का तटीय क्षेत्र अस्त व्यस्त हो गया. नये कुछ टापू भी बन गये. कोडुनगल्लूर का बंदरगाह अनुपयोगी हो गया. मजबूरी में व्यापारिक नौकाएँ कोच्चि के तट पर लंगर डालने लगीं. कोडुनगल्लूर की जगह कोच्चि एक बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर कर आया. तत्कालीन प्रशासन ने कोडुनगल्लूर के व्यापार से जुड़े यहूदियों को विस्थापित कर कोच्चि के निकट पूर्व दिशा में, कोचूअंगाड़ी नाम से  प्रख्यात इलाक़े में बसा दिया. कालांतर में मट्तांचेरी, जहाँ वर्तमान ज्यूस स्ट्रीट है एक व्यावसायिक स्थल के रूप में विकसित किए जाने हेतु यहूदियों को आबंटित किया गया. प्रताड़ना से बचने के लिए, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, पश्चिमी देशों से भी  यहूदी कोच्चि में आकर बसने लगे. एक सिनागॉग (प्रार्थना स्थल) मट्तांचेरी में भी 1568 में बना.  यहूदियों को राजकीय आश्रय एवं सम्मान का यह प्रमाण है क्योंकि यह धर्मस्थल राजा के महल और मंदिर से एकदम सटकर है.

16वीं शताब्दी में केरल तट पर पुर्तगालियों (1502-1663) का अधिपत्य हो गया. पुर्तगाली धार्मिक रूप से परम असहिष्णु और कट्टरवादी लोग थे. उन्होने कोडुनगल्लूर के यहूदियों को जबरन धर्मांतरित किया. बड़ी संख्या में यहूदी कोच्चि की ओर कूच कर गये. पुर्तगालियों ने उनके प्रार्थना स्थलों को,  सभी अभिलेखों (रेकॉर्ड्स) समेत जला दिया . यहाँ तक कि उन्होने उनके कब्रिस्तान को भी नहीं बक्शा. इस तरह यहूदियों के किसी समय कोडुनगल्लूर में पाए जाने के सभी प्रमाण विलुप्त हो गये. 17वीं सदी में डचो (हॉलॅंड की डच ईस्ट इंडिया कंपनी 1663-1795) का आगमन हुआ.  पुर्तगालियों के साथ युद्ध में यहूदियों ने स्थानीय (कोच्चि के)राजा के साथ मिलकर डचो की मदद की. पुर्तगली परास्त हुए और साथ ही यहूदियों के उन्नति तथा समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो गया. हॉलॅंड वासियों ने कोच्चि के यहूदियों के लिए उनके धार्मिक ग्रंथ “तोरा” तथा प्रार्थना की पुस्तकों की छपी हुई प्रतियाँ सुलभ कराईं. सन 1760 में परदेसी सिनागॉग में घंटा घर भी बना जो आज भी है. कालांतर में अँग्रेज़ों का शासन आया फिर भारत आज़ाद भी हो गया. कोच्चि के यहूदी, समाज में प्रतिष्टित बने रहे.

एक यहूदी राष्ट्र के रूप में “इसराइल” के बन जाने के बाद दुनिया भर से यहूदी लोग इसराइल चले गये. भारत के यहूदियों ने भी इसराइल का रुख़ किया. बूढ़े और बीमार लोगों को पीछे छोड़ गये. दर्जन भर जो लोग बचे हैं, वे दिन ही तो गिन रहे हैं.my-synagogue

Synagogue - Interior

ऊपर: कोच्ची का वर्त्तमान सिनागोग नीचे: अन्दर का चित्र.

गली में कुछ दूरी पर ही यहूदियों का प्रार्थना स्थल(1568) (परदेसी सिनेगॉग) था मानो कह रहा हो, तुम्हे क्या मालूम हमारा दर्द. अंदर से यह सिनागॉग बड़ा ही भव्य है. साजसज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया है. छत से बहुत सारे झाड़ फानूस लटक रहे हैं जिन्हे बेल्जियम से मँगवाया गया था. फर्श पर चीन से लाए गये नीले सिरामिक टाइल्स बिछे हैं. उनपर हाथ से चित्रकारी की गयी है. खूबी यह कि सभी की कलाकारी भिन्न है. सन 1760 में सिनागॉग के ऊपर क्लॉक टॉवेर बनाया गया था. अब यह सिनागॉग संरक्षित कर दिया गया है.

 

यह लेख मूलतः शास्त्री जी के “सारथी” चिट्ठे पर प्रकाशित हुआ था  हमारे इस चिट्ठे में समाविष्ट करने के लिए पुनः प्रकाशित करना पड़ा है.