कन्नूर (Cannanore) में कुछ दिन रुकना हुआ था और तभी हम मदिरा प्रिय मुथप्पन के मन्दिर जा पाये थे. हमलोगों को उडुपी आकर्षित कर रही थी. रेलगाडी से भी जाया जा सकता था लेकिन आस पास भ्रमण के लिए अपने स्वयं का या किराये का वाहन ज्यादा उपयुक्त था. सो हम लोगो ने किराये की गाड़ी की और निकल पड़े थे उडुपी के लिए. मुंबई से उडुपी आना भी आसान है. कोंकण रेलमार्ग पर मडगांव (गोवा) से कुछ और दूर. हमें नहीं लगता कि लोगों के लिए उडुपी कोई अनजानी जगह होगी. सभी महानगरों में सबसे अच्छे दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए प्रसिद्द उडुपी होटल तो सबने सुना ही होगा. एक और ख्याति भी है. यहाँ का श्री कृष्णजी का प्राचीन मन्दिर. उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्द मनिपाल भी उडुपी से होकर ही जाना पड़ता है, जो करीब ही है. पश्चिमी घाट की सुरम्य तलहटी में बसा यह कर्णाटक का तीसरा महत्वपूर्ण शहर है और एक सांस्कृतिक केन्द्र भी.
उडुपी कर्णाटक के एक ऐसे हिस्से में आता है जिसे तुलुनाडू (नाडू का अर्थ होता है प्रदेश) कहते हैं. जैसे उत्तर प्रदेश का अवध या बुंदेलखंड. तुलुनाडू की स्थानीय भाषा तुलु कहलाती है जो कन्नड़ से भिन्न है. हम वैसे तो सभी भाषाओँ में दखल रखते हैं, परन्तु यह तुलु हमारे पल्ले नहीं पड़ती. पहली बार हमें स्थानीय लोगों से संवाद में परेशानी हुई क्योंकि वे हमें समझ नहीं पा रहे थे. फ़िर हमने अपनी तुरुप चाल चली और सफल भी हो गए. तेलुगु, तमिल, मलयालम सब की खिचडी बनाई और बात बन गई. होटल में पहुँचने पर हमने पाया कि होटल वाले हिन्दी समझते हैं. खान पान में भी कोई समस्या नहीं थी. रोटी भी (गेहूं की) मिल रही थी. रात विश्राम कर सुबह मन्दिर जाने का कार्यक्रम बनाया गया.
यहाँ इस रौप्यपीठ में श्री कृष्ण मन्दिर/मठ की स्थापना १३ वीं सदी में श्री माधवाचार्य द्वारा की गई थी. वे एक वैष्णव संत थे और “द्वैत” मत/सिद्धांत के प्रणेता भी. उन्होंने एक गुरुकुल की भी स्थापना की थी जहाँ आज भी शास्त्रों की शिक्षा दी जाती है. कृष्ण जी का मन्दिर एक विशाल भूभाग पर फैला हुआ है जिसमे गोशाला आदि भी हैं. मन्दिर से ही लगा हुआ निर्मल जल युक्त एक सरोवर है.
मन्दिर का परिक्रमा पथ लगभग ३० फीट चौडा है. वैसे यहाँ कोई विशेष भीड़ नहीं थी. मन्दिर के अन्दर ही मठ के द्वारा संचालित दूकाने हैं जहा से प्रसाद आदि का विक्रय होता है. गर्भगृह में काले पत्थर से बने कृष्ण जी बांसुरी हाथ में लिए आपकी प्रतीक्षा में रहते हैं. हमारे रहते ही गुरुकुल के आचार्य भी वहां आए और विशेष पूजा संपादित कर अपने शिष्यों के साथ चले गए. माधवाचार्य जी के संप्रदाय के ही वहां कुल ८ मठ हैं जो अलग अलग नाम से जाने जाते हैं. मन्दिर तथा उस से सम्बंधित गतिविधियों का सञ्चालन प्रत्येक मठ के द्वारा दो वर्षों के लिए किया जाता है. यहाँ भक्तों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था भी है और हजारों लोग रोज इसका लाभ उठाते हैं. हमने इनके रसोई को भी देख लिया जहाँ आधुनिक संयत्रों द्वारा चावल, दाल, सब्जी, खीर आदि बनाई जाती है. उससे लगा हुआ ही इनका विशाल भंडार गृह भी है.
कृष्ण मन्दिर से बाहर आने पर पता चला कि निकट ही एक प्राचीन शिव मन्दिर भी है. हम तो ठैरे शिव जी के परम भक्त, जल्दी जो मान जाते हैं. यह शिव मन्दिर कृष्ण मन्दिर से भी प्राचीन है. काल का कुछ पता नहीं चल पाया और हमने जानने का प्रयास भी नहीं किया. यहाँ शिव जी को चन्द्रमौलेश्वर कहा जाता है. कहा जाता है कि उडुपी का नाम ही इनके कारण पड़ा. मूलतः यह उडुपा था. ‘उडु’ अर्थात तारे (नक्षत्र) और ‘पा’ अर्थात स्वामी – नक्षत्रों का स्वामी = चन्द्र और चन्द्र को धारण करने वाला चंद्रमौलेश्वर. हमने इनका दर्शन कर अपने आप को धन्य समझा.
बाहर आकर किसी अच्छे होटल की तलाश की गई और हम सब ने पेट भर कर गरमा गरम मसाला दोसा और स्पेशल आलूगुंडे खाए. चटनी तो लाजवाब थी, चाटते रहे. बाज़ार वाजार घूमकर होटल की और चल पड़े. दुपहर के बाद ही फ़िर निकल पड़े मालपे (Malpe) बीच की ओर जो लगभग ६ किलोमीटर की दूरी पर है. बीच को देख कर तो हमारी साँसे थम सी गयीं.
अद्भुत अलौकिक सौदर्य. किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं, भीड़ भाड भी नहीं. बस आप हो और प्रकृति. यहाँ कभी प्राचीन समय में बंदरगाह हुआ करता था. सामने ही समुद्र में एक सुंदर टापू, सेंत मैरीस आइलैंड,
बड़ी बड़ी चट्टानों को पार कर नाव में जाना पड़ता है. ऐसी सुंदर जगह तो हमने जीवन में कहीं नहीं देखी थी.
मालपे बीच में ही एक रिसॉर्ट है जहाँ रहने, खाने पीने की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं. हमने वहां गोल गप्पे खाए. दक्षिण दिशा में १२ किलोमीटर जाने पर एक और सुंदर बीच है और नाम है
‘काउप’ (Kaup). यहाँ चट्टानें कुछ अधिक ही हैं लेकिन उनसे प्राकृतिक सुन्दरता बढ़ जाती है. यहाँ एक प्राचीन लाईट हाउस भी है जो १०० फीट ऊंची है. वहां समुद्र में पाये जाने वाली चट्टानों से नाविकों को आगाह करने के लिए इसे मध्य युग में बनवाया गया था.
इस तरह हमारा उडुपी आना परम सार्थक रहा और खरामा खरामा वापस लौट पड़े गुनगुनाते हुए “कि आवाज़ देके बुला लेगी मुझको”