बात पुरानी है. हम उन दिनों युवा थे और बस्तर में पदस्थ थे. हम पांच मित्रोंने मिलकर भद्राचलम जाने का कार्यक्रम बनाया. एक गुजराती ‘भाईलाल’, एक तेलुगु ‘बुगता’, एक मराठी ‘मांकड़’, एक स्थानीय गोंड आदिवासी ‘किशोरी’ और हम खुद तमिल. इस तरह हम पांच लोग अलग अलग प्रान्तों से परन्तु पापी पेट के लिए बस्तर में कार्यरत. भाईलाल के पास जीप थी वह भी साथ हो लिया. जगदलपुर से कोटा (Konta) होते हुए भद्राचलम कोई २५० किलोमीटर की दूरी पर है. जगदलपुर बस्तर का मुखालय है. वैसे पहले यह एक जिला था पर अब चार छोटे जिले बन गए हैं. हम लोग जगदलपुर से ही जीप में लद कर खाना वाना खाकर निकल पड़े. गर्मियों के दिन थे परन्तु बस्तर उन दिनों गर्मियों में बड़ा ही आरामदायक हुआ करता था. महज २० किलोमीटर के बाद ही भयानक जंगल प्रारंभ हो जाता है. यहीं सड़क की बायीं तरफ एक गाँव ‘कामानार’ दिखा जहाँ सल्फी के पेड़ थे. हमारे मित्र किशोरी (जो मूलतः स्थानीय गोंड है) ने ऊंचे आवाज में कहा, “देखो रे देख लो, ये सल्फी का झाड़ है” “जिस आदिवासी के पास सबसे अधिक ऐसे पेड़ रहते हैं वह मालदार समझा जाता है” “बहुत मस्त लगता है पीने में. तुम लोगों का बियर फियर सब इसके सामने फ़ैल हैं” फिर उसने यही बताया कि पेड़ के ऊपर एक मटका बाँध दिया जाता है जिसमे पेड़ का रस इकठ्ठा होता रहता है. सुबह सुबह मटके को उतारा जाता है. ताजा माल सेहत के लिए भी अच्छा होता है.
रस्ते में ही कुटुमसर की जग प्रसिद्द गुफाएं और तीरथगढ़ का जलप्रपात छूट जाता है. फिर घाट आती है. जिसे दर्भा घाट कहते है.यह पूरा इलाका वर्त्तमान में कांगेर घाटी राष्ट्रीय अभ्यारण के अंतर्गत आता है. उन दिनों तो पैसे भरो, लाईसेन्स लो और शिकार करो. चाहे शेर मारो या हाथी (वहां हाथी नहीं पाए जाते). शिकार के लिए जंगल के एक बड़े हिस्से को आरक्षित कर लिए जाने की भी सुविधा थी.
लगभग ढाई घंटे के बाद हम सुकमा पहुंचे. यह एक तहसील मुख्यालय है पर बस्ती छोटी है. कभी यहाँ की ज़मींदारी हुआ करती थी. यहाँ से आगे गिट्टी वाला रास्ता था. डामर की सड़क तो केवल सुकमा तक ही थी. जैसे जैसे वहां से आगे बढ़ते गए मौसम में परिवर्तन दिखा. गर्मी लगने लगी थी क्योंकि पठार को छोड़ अब हम लोग समतल भूभाग में थे. पहली बार उस तरफ जाना हुआ था. मैदानी जंगल आ गए. पहाड़ पीछे छूट गए. अब यहाँ का भू परिदृश्य एकदम अनूठा था. उस वीरानी को चीरते हुए हम लोग सामूहिक अन्ताक्षरी गाते आगे बढे जा रहे थे. कोटा १५-२० किलोमीटर पहले से ही पेड़ पौधे भी अचानक बदल से गए. जिधर नजर दौडाओ ताड़ के पेड़ बड़ी संख्या में दिखने लगे मानो उन्हीं का जंगल हो.
पीछे मांकड़ (एक मराठी मित्र) की आवाज आई: अबे उधर देख, वो आदमी झाड़ पर चढ़ रहा है.
बुगता (तेलुगु मित्र) ने कहा अबे ताडी उतारने के लिए चढ़ रहा होगा.
किशोरी ने कहा, गाडी रोको.
सबने पूछा क्यों?
किशोरी ने कहा: “तुम लोग समझते नहीं हो. अभी ताज़ी वाली मिलेगी”.
गाडी रुक जाती है और सब पेड़ की तरफ चल पड़ते हैं.
अब तक वो आदमी उतर चुका होता है, एक मटका लिए.
किशोरी (जो खुद गोंड है) चिल्लाता है “मामा” “मामा”
दोनों मिलकर बात करते हैं. पूरा मटका भर ताडी ५ रुपये में ले लेते हैं.
क्योंकि मटका लौटाना था, इसलिए बारी बारी सब खूब छक कर ताडी पीते हैं
मटका लौटाकर गाडी फिर चल पड़ती है कोंटा की ओर.
अब जब ताड़ की बात निकली है तो यह भी बताते चलें कि इसमें नारियल जैसे गाढे बैगनी रंग के गोल गोल फल लगते हैं.
इन फलों को जब काटा जाता है तो अन्दर से लगभग मानव ह्रदय के सामान बहुत ही कोमल (जेल्ली जैसे) सफ़ेद खाद्य पदार्थ मिलता है. इसके अन्दर मीठा तरल पदार्थ भरा होता है. यह खाने में अत्यधिक स्वादिष्ट और ठंडक प्रदान करने वाली होती है. रास्ते में तो हमें नहीं मिला परन्तु भद्राचलम पहुँचने के बाद सबने खूब खाया.
कोटा पहुँचने तक अँधेरा हो चला था. चाहते तो थे की सीधे भद्राचलम ही पहुँच जाएँ जो वहां से लगभग ५० किलोमीटर ही रह गया था. समस्या थी ठहरने की. हम लोगोंने कोटा में ही रात बिताना ठीक समझा. सबके सब ताडी के नशे में भी टुन्न थे. वहां आसानी से सरकारी विश्राम गृह भी मिल गया. खाने की भी व्यवस्था हो गयी. एक खानसामा वहां पदस्थ था. हममे से मांसाहार के शौकीनों के लिए तीतर परोसा गया. हमें तो आलू की सब्जी से ही संतुष्ट होना पड़ा.
दुसरे दिन एक दम सुबह सुबह ही कुछ मित्रोंने जीप का हार्न बजाना शुरू कर दिया. मजबूर होकर सब जीप में बैठ गए और भद्राचलम के लिए निकल पड़े. कोटा मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के अंतिम दक्षिणी छोर पर एक तहसील मुख्यालय है. अब जो यात्रा हो रही थी वह आन्ध्र में आता है. सड़क के दोनों ओर खेतों में मिर्च की फसल लह लहा रही थी. लाल लाल मिर्च, ऐसा लग रहा था मानो खेतों में लाल फूल खिले हों. एक डेढ़ घंटे में ही हम लोग गोदावरी नदी के तट पर बसे भद्राचलम पहुँच गए.
अप्रैल 27, 2009 को 7:34 पूर्वाह्न
सुंदर यात्रा विवरण।
अप्रैल 27, 2009 को 9:12 पूर्वाह्न
आपके साथ साथ हम भी घूम रहे है.
अप्रैल 27, 2009 को 9:13 पूर्वाह्न
सर बहुत बडिया यात्रा स्म्स्मरण है ये फल देख कर तो अपने मुह मे भी पानी आ गया आभार्
अप्रैल 27, 2009 को 9:13 पूर्वाह्न
यात्रा की खुमारी अभी तक नहीं उतरी ,इसी से स्वयं स्पष्ट है कि यात्रा कितनी ताडीदार /तगडी रही होगी ! कभी बस्तर के घोटुल प्रथा के बारे में भी बताएं -जब वहां आप रहे ही हैं !
अप्रैल 27, 2009 को 9:24 पूर्वाह्न
दिलचस्प!
अप्रैल 27, 2009 को 9:35 पूर्वाह्न
बस्तर की मनमोहक तस्वीरें और सुंदर विवरण ने इस स्थान की सुन्दरता और भी बडा दी..’
regards
अप्रैल 27, 2009 को 9:57 पूर्वाह्न
मिर्च के पौधों की तस्वीर नही लगाई आपने ..जंगलों में घूमना अलग अनुभव होता है धन्यवाद सुन्दर सी पोस्ट के लिए.
अप्रैल 27, 2009 को 9:58 पूर्वाह्न
बहुत सारगार्वित उम्दा सचित्र जानकारीपूर्ण आलेख के लिए आभार.
महेंद्र मिश्र
जबलपुर.
अप्रैल 27, 2009 को 10:13 पूर्वाह्न
सवेरे सवेरे ही आपके ब्लॉग से आती मदमाती गंध ने आँखों तक असर कर दिया है हाय रे सल्फी…
अप्रैल 27, 2009 को 10:39 पूर्वाह्न
बहुत ओचक और लाजवाब यात्रा संस्मरण हैं आपके. आप लोगों ने खूभ छक कर ताडी पी…शायद नशा इसलिये नही हुआ होगा कि वो ताजी ताडी शायद नीरा कहलाती है,,और उसमे नशा नही होता.
रामराम.
अप्रैल 27, 2009 को 10:40 पूर्वाह्न
भूल सुधार :
ओचक = रोचक
खूभ = खूब
अप्रैल 27, 2009 को 10:47 पूर्वाह्न
PNS jee !
Dr . Arvnd Mishra kee khumaree utar dijiye meree bhee utar jayegee .kuch bhee ho tadee hee hai na . nasha kam aur swasthya uttam !
AUR ARVINDJEE KEE ‘GHOTUL’ VALEE BAT NA BHOOL JAIEGA . VARNA FIR MUJHE HEE SUNANEE PADEGEE . PAR AAPKEE KALAM SE HEE MOHAK BANEGEE .
AAP KE IS ANDAZ ME ALAG MAZA AAYA .
अप्रैल 27, 2009 को 11:10 पूर्वाह्न
मज़ा आ गया साब।आपने याद ताज़ा कर दी भद्रचलम की। हम भी बस्तर से भद्राचलम जा चुके है मग्र गमियो मे नही।सर्दियो मे तो बस्तर से आगे निकलो तो लगता है मानो स्वर्ग मे आ गये है।सच मे कुदरत की बनाई हुई अनमोल तस्वीर है बस्तर्।
अप्रैल 27, 2009 को 12:33 अपराह्न
सुब्रमनियम जी, सचित्र एवं रोचक यात्रा संस्मरण हेतु बहुत धन्यवाद……आपने फल के अन्दर मानव ह्रद्य के समान जिस सफेद खाध्य पदार्थ के बारे में बताया है, वो तो देखने में बिल्कुल “सिंघाडे” के जैसे लगता है.
अप्रैल 27, 2009 को 12:42 अपराह्न
I think this post needs to be detailed. I remember one hindi novel of “Shaanee”, about Bastar. The title was -“shaal vanon ke dweep me.”
now-a-days the naxalite movement has ruined this place very much. Thanks.
अप्रैल 27, 2009 को 3:07 अपराह्न
बस्तर से भद्राचलम की यात्रा ..मानो ख़ुद तय की हो हमने ,विवरण इतना जिवंत है …वैसे आपकी सभी पोस्ट चित्रात्मक शैली मैं मन को भली लगती है …हम तो मध्य भाग मैं ही रहतें हैं लेकिन जाना नही हो सका है …आदिवासियों के सरल-सहज जीवन का मुकाबला हम शहरी कभी नही कर सकतें ..वो जीवन दुनिया मैं चाहे जहाँ हो…आपकी पिछली पोस्ट महिलाओं का धार्मिक….पढा जरूर लेकिन कमेन्ट नही कर पाई ….
अप्रैल 27, 2009 को 4:40 अपराह्न
खूबसूरत चित्र और जीवंत यात्रा वृतांत। ..लेकिन भद्राचलम के लिए कुछ दिन इंतजार करना पड़ेगा।..इंतजार रहेगा।
अप्रैल 27, 2009 को 5:30 अपराह्न
bahut hi sundar yatra varnan,
chitr bhi achchey lagey.
bahut mehnat se likhtey hain aap har post.
aap ke blog par aana kuchh nayi jaankari le kar jana hi hota hai.dhnywaad.
अप्रैल 27, 2009 को 7:24 अपराह्न
बम्बई मेँ कई बार ताड गोले = ताड के फल खाये हैँ
और बहुत पसँद हैँ
ये, यात्रा विवरण बढिया रहा
– लावण्या
अप्रैल 27, 2009 को 7:30 अपराह्न
mirch ke paudhe ka chitra dekh kar achchha laga ..yah kafi tikhi hoti hai.
अप्रैल 27, 2009 को 8:06 अपराह्न
काफी “खाता पीता” सफर रहा।
सुंदर विवरण।
अप्रैल 27, 2009 को 8:07 अपराह्न
ताड़ी का लगभग ऐसा दृष्य मैने दाहोद-पंचमहाल के आस पास आदिवादी इलाके में देखा था।
आपकी पोस्ट हमेशा की तरह बहुत अच्छी है।
अप्रैल 27, 2009 को 8:23 अपराह्न
अब तो पूरा संस्मरण पढने पर ही पता चलेगा कि आपने सल्फी भी पी कि नहीं ?
…फिर से आईये ! …और ये किशोरी क्या किशोरी सिंह ठाकुर हैं ?
अप्रैल 27, 2009 को 10:02 अपराह्न
बहुत रोचक वर्णन है । नीरा ,जैसा कि ताऊ ने कहा है । इसे मैने भी पिया है सुरत मे रहते थे तब पिया करते थे सुबह मे यह नशा नहिं करता है दोपहर बाद नशीला हो जाता है । यह शरीर को बहुत शीतलता प्रदान करता है ।
अप्रैल 27, 2009 को 10:07 अपराह्न
ऐसे ही सफ़र कराते रहे हम आपके साथ है
अप्रैल 27, 2009 को 11:29 अपराह्न
लगता है सल्फ़ी या उसके ही परिवार के पेड़ मैने कई जगह देखे हैं, यहाँ भी हैं। उनमें से कुछ पेय निकलता है या नहिं पता नहीं। ताड़ के फल मैंने भी बहुत खाए हैं।
घुघूती बासूती
अप्रैल 28, 2009 को 8:58 पूर्वाह्न
फिर एक ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए धन्यवाद और अगले की प्रतीक्षा .
अप्रैल 28, 2009 को 10:11 अपराह्न
SASMARAN BAHOT HI KHUBSURATI SE LIKHAA HAI AAPNE BAHOT HI KARINE SE SJAAYAA BHI HAI… WO AAP JIS FRUIT KE BAARE ME BAAT KAR RAHE HAI AUR USKE JELY KE BAARE EM WO MAINE KHAAYE HAI…
BADHAAYEE AAPKA AUR AABHAAR AISE POST PADHWAANE KE LIYE..
ARSH
अप्रैल 28, 2009 को 11:13 अपराह्न
bahut achha yatra vritant…
अप्रैल 28, 2009 को 11:22 अपराह्न
बहुत सुन्दर यात्रा विवरण.
आलेख की शुरुवात पर ऑबजेक्शन: बात पुरानी है तब हम युवा थे…फिर कैसे पुरानी, आप तो आज भी युवा ही हैं जनाब!! 🙂
अप्रैल 29, 2009 को 5:31 पूर्वाह्न
पूरे यात्रा विवरण को पढ़कर आनन्द आ गया । ताड़ी पीकर नाचने वाले एक अधेड़ व्यक्ति की बड़ी आकर्षक उपस्थिति रहती है हमारे कस्बे में भी ।
चित्र मोहक हैं । धन्यवाद ।
अप्रैल 29, 2009 को 5:50 पूर्वाह्न
रोचक यात्रा विवरण.अगली कड़ी की प्रतीक्षा में.
अप्रैल 29, 2009 को 10:34 पूर्वाह्न
आपको तो पक्का जैल होने वाली है…जानते है तीतर वन्य पक्षियों मं गिना जाता है…
अप्रैल 29, 2009 को 11:55 पूर्वाह्न
यह ताड़ के पेड़ तो हमारे यहां भी ख़ूब होते हैं और ताड़ी भी ख़ूब पी जाती है. पर अपनी तो हसरत ही रह गई. अभी तक पीने का मौक़ा नहीं मिला.
अप्रैल 29, 2009 को 2:36 अपराह्न
बढिया जानकारी।आभार।
अप्रैल 29, 2009 को 3:11 अपराह्न
Beautifully detailed. I saw that berry type fruit on my trip to Renukaji.
Always love such travelogs. thanks
अप्रैल 29, 2009 को 4:47 अपराह्न
मनोरंजक और जानकारीपूर्ण यात्रा वृत्तान्त। फोटो ने पोस्ट में चार चांद लगा दी है।
———-
सम्मोहन के यंत्र
5000 सालों में दुनिया का अंत
अप्रैल 29, 2009 को 8:58 अपराह्न
सच काफी हसीं दिन थे जो हम सबकी जिंदगी मे आते है
आपने इतनी अच्छी तरह से बताया की लगता है की मैं भी आपके साथ ही हूँ!
बहुत खूब!
अप्रैल 30, 2009 को 12:58 पूर्वाह्न
likh aur fotografs dono ati sundar. baut bahut badhai padhkar ghoomne ka dil kar raha hai.
अप्रैल 30, 2009 को 6:51 अपराह्न
बहुत मेहनत से तैयार सरस, रोचक यात्रा वर्णन।
बस्तर तो सचमुच प्रकृति का अनमोल खजाना है। आज यहां
नक्सली राक्षस घूम रहे हैं।
मई 3, 2009 को 7:44 अपराह्न
देर से आने के लिए क्षमा !!
चुनावी व्यस्तता के बाद आपकी यह यात्रा वर्णन पढ़ कर अच्छा लगा !!
मनमोहक तस्वीरें और सुंदर विवरण!!
लगता है कि ताडी के बारे जिज्ञासा को देखते हुए आपको एक पोस्ट इस पर भी लिखनी पड़ेगी !!
मई 4, 2009 को 8:23 अपराह्न
Bhadrachalam main bhi ja chuka hun ek baar. Aapke sath nye root se punah ghum le raha hun. Dhanyavad.
मई 7, 2009 को 12:54 अपराह्न
जीवंत विवरण।
शुक्रिया।
क्या आज के बस्तर में ऐसी यात्रा की कल्पना भी की जा सकती है?
अफसोस।
जनवरी 9, 2013 को 8:04 पूर्वाह्न
बस्तर को जिस नजरिये से देखो सुंदर लगता है, न जाने क्यों सरकार के फैसले इसको मोलिकता सुन्दरता पर बदनुमा दाग लगते जा रहे है..