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एक नम्बूतिरि नारी का प्रतिशोध

अगस्त 10, 2009

केरल समाज की पुरातन व्यवस्थाओं के बारे में हमने इसके पहले भी लिखा है परन्तु किसी और सन्दर्भ में. देखें “स्त्री सशक्तीकरण – एक पुरानी परंपरा“. “एक अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता” वाली लोकोक्ति से तो सभी अवगत होंगे ही परन्तु एक चने ने क्या कर दिखाया और उसका दूरगामी असर कैसा रहा जानने के पूर्व  आवश्यक हो गया है कि कुछ बातों को दुहराया जावे. केरल की वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर नम्बूतिरि ब्रह्मण थे. ये धनाठ्य वर्ग में आते थे. 8 वीं शताब्दी से ही न केवल इन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ, उनपर राजा का वरद हस्त भी रहा. दूसरी निचली जातियों के लोगों पर, नायर सहित, इन्हें बड़े विशेषाधिकार प्राप्त थे. इन्हें बड़ी बड़ी जमींदारियां दे दी गयीं. वस्तुतः पूरा भूभाग ही इनके आधीन था. इनके द्वारा पट्टा दिए जाने पर ही किसी और को भूमि मिल पाती थी, जिसके एवज में उन्हें कर अदा करना होता था. ये लोग आलीशान “मना” में रहा करते थे जो इनका पारंपरिक आवास था. उनके उत्तराधिकार के नियम पितृसत्तात्मक हुआ करते थे परन्तु अपनी संपत्ति को विघटित होने से बचाए रखने के लिए इन्होने व्यवस्था कर रखी थी कि केवल परिवार का ज्येष्ठ पुत्र ही विवाह कर सकता है. अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक से अधिक पुरुष संतान हों तो उनका क्या होगा. वे किसी नम्बूतिरि लड़की से शादी तो नहीं कर सकते परन्तु किसी निम्न जाति की स्त्रियों से “सम्बन्ध” बना सकते थे. इस प्रकार के “सम्बन्धम” से जो संतान उत्पन्न होंगे वे नम्बूतिरि कुल के नहीं माने जायेंगे. क्योंकि:

ब्राह्मणों को छोड़ केरल का शेष हिन्दू समाज “मातृसत्तात्मक” परिवारों का हुआ करता था. मातृसत्तात्मक परिवारों में विवाह नामकी संस्था थी ही नहीं. यह एक ऐतिहासिक सत्य है. कुनबे में जिसे “तरवाड़” कहा जाता है, घर का मुखिया (कर्णन)”मामा” हुआ करता था. घर की वास्तविक सत्ता महिलाओं की रही. घर की कन्याओं के “सम्बन्धम” के लिए साधारणतया किसी ब्राह्मण को वरीयता दी जाती थीं और यहीं उन बिन ब्याहे नम्बूतिरियों का प्रयोजन हुआ करता था. किसी ब्राह्मण के न मिलने पर किसी दूसरे नायर “तरवाड” में ब्राह्मण के संसर्ग से जन्मे किसी युवा को पसंद किया जाता था. “सम्बन्धम” बनाने के लिए भी कुछ औपचारिक्तायें हुआ करती थी. जैसे किसी युवा के द्वारा युवती को एक वस्त्र (अंगोछा पर्याप्त था) भेंट में दिया जाना. इसके बाद वह पुरुष युवती के घर रात बिताने जाया करता और सुबह होते ही अपने घर वापस आ जाता. “सम्बन्धम” को तोड़ना भी बहुत आसान था. उस पुरुष के समक्ष महिला द्वारा अंगोछे (वस्त्र) को दो भागों में फाड़ देना. किसी भी स्त्री के सम्बन्ध एक से अधिक पुरुषों से भी हो सकते थे. यह व्यवस्था समाज के द्वारा सर्वथा मान्य थी और किसी भी प्रकार से इसे हीन भावना से नहीं देखा जाता रहा.

नम्बूतिरि परिवार की पूर्वोक्त  व्यवस्था के कारण उनके लड़कियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी. क्योंकि बहुत सी कन्यायें मातृत्व का सुख भोगे बगैर बिन ब्याही ही रह जाती थीं. विवाह योग्य वर के होते हुए भी विवाह न हो पाता. इसके समाधान के लिए ज्येष्ठ पुत्र को एक से अधिक विवाह करने की छूट थी जो आंशिक रूप से समस्या का हल बनी. इस से यह भी हुआ कि १८ वर्ष की कन्या को ६० वर्ष के बूढे नम्बूतिरि के साथ शादी करा दिया जाता था. वह कन्या उम्र भर घुटन भरा जीवन व्यतीत करने के लिए वाध्य थी. कई कन्यायें तो जवानी में ही विधवा बन जाती और प्रताड़ना के भागी बनती. विधवा विवाह का कोई प्रावधान नहीं था. इनके समाज में स्त्रियों को “अन्तर्जनम” कहा जाता है अर्थात जो चहार दीवारी में ही रहती हो. बाहर केवल मंदिर या अपने निकटस्थ सम्बन्धी के पास ही जा पातीं जिसके लिए साथ में दासी का होना अनिवार्य था. किसी दूसरे व्यक्ति को अपना मुखडा नहीं दिखा सकती थीं जिसके लिए हर मौसम में एक ख़ास प्रकार का ताड़ के पत्ते से बना छाता लेकर चला करतीं. सामने से कोई आता दिखे तो अपने मुह के सामने छाता ओढ़ लेतीं.Ola Kuda-Nonee

समाज में स्त्रियों को “साधनम्” अर्थात एक वस्तु या सामग्री के रूप में परिभाषित किया गया जाता था लेकिन पूरी व्यवस्था उस  स्त्री रुपी वस्तु के चरित्र को पावन बनाये रखने के लिए समर्पित थी. किसी भी प्रकार का कलुषित/अनैतिक  आचरण असह्य हुआ करता था. जब कभी “मना” (नम्बूतिरि आवास) के किसी “अन्तर्जनम” के चरित्र पर संदेह उत्पन्न होता तो सर्वप्रथम उस “अन्तर्जनम” की दासी से पूछ ताछ की जाती, “दासिविचाराम” नाम की प्रक्रिया के तहत. जब भी इस पूछ ताछ में कुछ मामला बनता तो फिर “अन्तर्जनम” के विरुद्ध अभियोग चलाने के लिए “स्मार्तविचाराम” (समाज के द्वारा स्त्रियों के विरुद्ध न्यायाधिकरण) की प्रक्रिया प्रारंभ किये जाने  हेतु प्रदेश के राजा से, आवश्यक शुल्क जमा कर, निवेदन किया जाता. साधारणतया राजा की अनुमति मिल ही जाया करती थी. यह पूरी प्रक्रिया उस नारी के प्रति दुर्भावना से ही भारित होती थी. अतः सम्बंधित महिला की दुर्गति सुनिश्चित की हुई होती थी. अभियोजन  का कार्य कुछ दिनों तक और कभी कभी महीनों चलता. इस बीच उस महिला को विचाराधीन कैदी की तरह एक अलग कमरे (अचनपुरा/पचोलापुरा) में बंद रखा जाता. अंत में उसे “भ्रष्ट” घोषित कर दिया जाकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता. सम्बंधित स्त्री को मृत मानकर उसका पिंडदान भी कर दिया जाता रहा.  उसकी स्थिति भिकारियों जैसी हो जाती. ऐसी भ्रष्ट घोषित स्त्रियाँ किसी निम्न ज़ाति के पुरुष से विवाह कर गुमनामी में जीवन व्यतीत करतीं या फिर उत्तर मालाबार के मन्नानर/चाकियार के यहाँ आश्रय प्राप्त करतीं. अभियोजन के ऐसे मामले इस्लाम के शरिया कानून की तरह “शंकरस्मृति अथवा लघु धर्म प्रकाशिका” के उपबंधों के तहत किया जाता रहा.

अब हम १९०५ के उस ऐतिहासिक घटना पर केन्द्रित होते हैं जब एक चने ने नम्बूतिरि समाज की छाती में मूंग दली. “स्मार्तविचाराम” के इस प्रकरण में अभियुक्त रही एक सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, साहित्य और कला (कथकली) का गहन अध्ययन की हुई विदूषी “तात्री” (सावित्री). तात्री, मुकुंदपुरम तहसील के कल्पकस्सेरी अष्टमूर्थी नम्बूतिरि की संतान थी. प्रारंभ से ही वह खुले विचारों की (विद्रोही!) थी. यहाँ तक कहा जाता है कि उसके कुंडली के अनुसार वह परिवार के लिए अनिष्ट लेकर ही जन्मी थी. यह भी कहा गया है कि उसके पिता और जीजा द्वारा उसका यौन उत्पीडन भी हुआ था. खैर, १८ वर्ष की आयु में ही उसका विवाह ६० वर्ष के चेम्मनतट्ट कुरीयडथ रामन नम्बूतिरि से कर दिया जाता है. संभवतः तात्री उस नम्बूथिरि के मना (आवास) से भाग निकलती है और छद्म रूप में वहीँ कहीं नगर वधु की तरह रहने लगती है. उसके अनुपम सौन्दर्य की चर्चा चल पड़ती है और दूर दूर से लोग पहुँचने लगते हैं. परन्तु तात्री केवल अभिजात्य वर्ग के लिए ही उपलब्ध थी क्योंकि उसके मन में तो कुछ और ही था. तात्री के सौन्दर्य की खबर उसके पति रामन नम्बूतिरि को भी मिलती है (या पहुंचाई जाती है) और वह भी एक दिन निकल पड़ता है, रात के अँधेरे में, उससे संसर्ग सुख प्राप्त करने के लिए. तात्री के घर पहुँचने पर रामन नम्बूतिरि की समुचित आव भगत होती है और उसे शयन कक्ष में पहुंचा दिया जाता है जहाँ उसकी प्रतीक्षा की जा रही थी. वहां यथोचित सत्कार के बाद जब रामन विदा हो रहा होता है तभी वह तात्री को ठीक से देख पाता है. उसे एकाएक एहसास होता है कि यह तो उसकी पत्नी सावित्री ही थी. बात समझ में आने पर वह वहां से भाग निकलता है.

दुसरे ही दिन रामन नम्बूतिरि नें समाज के करता धर्ताओं के समक्ष अपनी व्यथा बताई और सावित्री (तात्री) के विरुद्ध “स्मार्तविचाराम” गठित किये जाने हेतु राजा से निवेदन किया गया. परन्तु तात्री ने भी अपनी चाल चली उसने राजा से निवेदन किया कि न्याय एक पक्षीय न होकर यदि कोई पुरुष भी अनैतिक आचरण का दोषी पाया जाता हो तो उसे भी सामान दंड दिया जाना होगा. राजा बड़ा न्याय प्रिय था. उसने तात्री की बात मान ली और उसे प्रथम अभियुक्त बनाया गया . हलाकि “स्मार्तविचाराम” की प्रक्रिया स्त्रियों के विरूद्ध ही किये जाने की परंपरा थी परन्तु राजाज्ञा का विरोध नम्बूतिरि वर्ग के द्वारा किया नहीं जा सका. पेरुवनम नामके एक ग्राम (जो प्राचीनतम नम्बूतिरि बसाहटों में से एक है) के जातवेदन नम्बूतिरि को इस “स्मार्तविचाराम” रुपी न्यायाधिकरण  का प्रमुख बनाया गया जिनके तीन और विद्वान नम्बूतिरि सहयोगी थे जिन्होंने तात्री से गहन पूछ ताछ करना प्रारंभ किया. इस बीच उसे विचाराधीन कैदी की तरह अलग कमरे (अचनपुरा/पचोलापुरा) में रख पहरेदार नियुक्त कर दिए गए.Smarthavicharanam

विवेचना में तात्री नें अपने ऊपर लगाये गए सभी आरोप स्वीकार कर लिए. इसके बाद प्रारंभ हुआ उसकी ओर से प्रत्यारोपों का दौर. समाज के एक से एक प्रतिष्टित लोगों का मुखौटा उतारा जाने लगा. नाम बताना ही पर्याप्त न था. प्रमाण भी देने थे. अब उन गणमान्य पुरुषों की बारी थी. प्रति दिन नामित व्यक्ति को एक समूह में शामिल कर शिनाख्ती परेड जैसा कार्यक्रम होता जिसमे व्यक्ति विशेष की पहचान की जाती. एक एक कर वे भी कठघरे में खड़े किये गए. प्रत्येक के शरीर के अंदरूनी भागों में पाए जाने वाले चिन्ह आदि के बारे में तात्री द्वारा विवरण दिया जाता और पुष्टि की जाती. जैसे जैसे नैतिकता के कर्णधारों की गिनती बढती गयी, पूरे इलाके में तहलका मच गया. कुछ लोग तो मारे भय के घर बार छोड़ परदेस भाग खड़े हुए और कुछोने पूजा पाठ आदि करवाई जिससे तात्री याद न रख सके. लगभग 7 माह की अवधी में कुल 64 लोगों पर आरोप लगा. जिसमे 30 नम्बूतिरि, 10 अय्यर,13 अम्बलावासी और 11 नायर शामिल थे. इस संख्या को देख राजा स्वयं चिंतित हो उठा. उसे इस बात का भी भय था कि ६५ वां वह स्वयं न बने इसलिए एन केन प्रकारेण ६४ की संख्या पहुँचने पर आगे की कार्यवाही रोक दी गयी और 13 जुलाई 1905 की रात तात्री तथा  64 अन्य अभियुक्तों पर दंड की घोषणा कर दी गयी. तात्री को चालकुडी नदी के किनारे किसी घर में नजरबन्द रखा गया परन्तु कहते हैं कि वह वहां से भाग निकली थी. उसका क्या हुआ इस बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है.

यह बात उल्लेखनीय है कि इस अभियोजन में सह आरोपियों पर न्याय डगमगाता नहीं दिखा. विशेषकर जब स्वयं न्यायाधिकरण के प्रमुख के दो भाई भी सम्मिलित थे. साधारणतया ऐसे प्रकरणों में सह आरोपी “स्मार्तविचाराम” रुपी न्यायाधिकरण के प्रमुख “स्मार्तन” को भी प्रलोभन आदि देकर बच निकलते रहे हैं.   इस घटना ने  नम्बूतिरियों की अस्मिता को झकझोर दिया और उस समाज को आत्मचिंतन के लिए मजबूर कर दिया. नम्बूतिरि समाज के कुछ लोगों ने “योगक्षेमम” नामक एक सभा गठित की जिसके माध्यम से उन्होंने समाज में “सम्बन्धम” जैसे प्रावधानों को उखाड़ फेंकने और  नम्बूतिरि युवाओं के विवाह आदि के नियमों में शिथिलता बरते जाने के लिए सामाजिक सुधारों हेतु संकल्प लिया. भारत की आजादी के बाद तो पूरा बदलाव आ ही गया, क्योंकि हिन्दुओं के उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून सामान रूप से हिन्दुओं के सभी वर्गों पर लागू हो गयी. मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी इसके साथ ही समाप्त हो गयी.

प्रेरणा: उल्लतिल मन्मधन

बैलाडीला का लौह अयस्क

अगस्त 3, 2009

अभी कुछ ही दिनों पूर्व ही एक अन्य ब्लॉग “आरंभ” से पता चला था कि 11वीं सदी में ही दक्षिण के चोल वंशीय राजाओं ने बैलाडीला पहाड़ियों से लोहे का दोहन कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना खोल रखा था. इसका मतलब यही हुआ कि उस समय से ही बैलाडीला में लोहे की उपलब्धता के बारे में जानकारी हो चली थी. बस्तर के आदिवासी भी बैलाडीला में पाए जाने वाले पत्थरों से लोहा निकालने में सिद्धहस्त हैं. उनके सभी औजार स्थानीय अयस्क से ही निर्मित होते आ रहे हैं. यदि आप भोपाल में मानव संग्रहालय आते हैं तो उन आदिवासियों के द्वारा लोहा बनाये जाने की विधि और लोहे से निर्मित कलात्मक कृतियों से भी साक्षात्कार कर सकते हैं. परंतु  विशाल पैमाने पर वहाँ के लौह अयस्क के उत्खनन एवं निर्यात की कुछ अलग ही कहानी है.

बैलाडीला की पहाड़ियाँ, जहाँ प्रचुर मात्रा में उच्चतम कोटि के लौह अयस्क भंडार हैं, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में स्थित है. इस औद्योगिक क्षेत्र के दो प्रमुख नगर हैं. पहला किरन्दुल और दूसरा बचेली. रायपुर से किरन्दुल की दूरी 424 किलोमीटर है जबकि बचेली 12 किलोमीटर पहले पड़ता है. आज से सौ वर्ष पूर्व ही लिखा गया था कि बैलाडीला पहाड़ बैल के डील के आकार का होने के कारण इस नाम से पुकारा जाता है. ऊँचाई में यह पहाड़ समुद्र की सतह से 4133 फीट ऊँचा है. इस पहाड़ के ऊपर दो रेंज बराबर मिली हुई चली गयी हैं जिनके बीचों बीच सॉफ कुदरती मैदान है. यहाँ से तीन बड़ी नदियाँ निकलती हैं जिनके किनारे किनारे बेंत का सघन जंगल लगा हुआ है. इन झरनों का पानी इतना ठंडा रहता है कि ग्रीष्म काल के दुपहरी में भी इनमे स्नान किया जावे तो दाँत किटकिटाने लगते हैं. यहीं पर बस्तर रियासत के समय के कुछ निर्माण आदि थे. यह जगह उनकी ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी.

19वीं सदी के अंत में श्री पी एन. बोस, जो एक ख्याति प्राप्त भूगर्भशास्त्री थे, खनिजों की अपनी खोज में बैलाडीला पहुँच गये थे और उन्हें वहाँ मिला उच्च कोटि का लौह अयस्क. तदुपरांत भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के श्री क्रूकशॅंक (crookshank) ने 1934-35 में पूरे इलाक़े का सर्वेक्षण कर भूगर्भीय मान चित्र बनाया और 14 ऐसे पहाड़ी क्षेत्रों (भंडारों-डेपॉज़िट्स) को जहाँ बड़ी मात्रा में लौह अयस्क उपलब्ध थे, क्रमवार चिन्हित किया.

भारत के लौह अयस्क पर अध्ययनरत टोक्यो विश्व विद्यालय के प्रोफेसर एउमेऊरा (Eumeura) ने जापान के इस्पात उत्पादन करने वाले मिलों के संघटन को बैलाडीला मे उच्च कोटि के लौह अयस्क की उपलब्धता के बारे में अवगत कराया. उन दिनों जापान के इस्पात मिल उच्च कोटि के लौह अयस्क के निरंतर आपूर्ति के लिए प्रयासरत थे. यह तो उनके लिए खुश खबरी थी. सन 1957 में उनका एक प्रतिनिधि मंडल श्री असादा के नेतृत्व में भारत पहुँचा और विभिन्न लौह अयस्क क्षेत्रों का भ्रमण किया. उनके इस अध्ययन और पूर्ण संतुष्टि ने ही भविष्य में भारत और जापान के बीच होने वाले समझौते की बुनियाद रखी थी. मार्च 1960 में भारत सरकार एवं जापानी इस्पात मिलों के संघठन के मध्य अनुबंध के तहत बैलाडीला से 40 लाख टन एवं किरिबुरू (उड़ीसा) से 20 लाख टन कच्चे लोहे का निर्यात जापान को किया जाना तय हुआ.

Bailadila

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इसके लिए आवश्यक था कि बैलाडीला के चयनित और भंडार क्रमांक 14 के रूप में चिन्हित क्षेत्र में आवश्यक विकास तथा संयंत्रों की स्थापना की जावे. इन बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के लिए जापान की सरकार ने आवश्यक भारी उपकरण, तकनीकी सहायता तथा धन राशि उपलब्ध कराई जिसका समायोजन निर्यात किए जाने वाले लौह अयस्क के विरुद्ध होना था. योजना का क्रियान्वयन राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC) के द्वारा किया गया. उन दिनों अख़बार में खबर थी कि लौह अयस्क के निर्यात किए जाने के लिए पूरा खर्च जापान वहन कर रही है और वह 20 वर्षों तक वहाँ के अयस्क का दोहन करेगी. जून 1963 में वहाँ कार्य प्रारंभ किया गया और 7 अप्रेल 1968 को सभी प्रकार से पूर्ण हुआ. लौह अयस्क का निर्यात इसके पूर्व से ही प्रारंभ हो गया था. आजकल तो तीन भंडारों (डेपॉज़िट) से अयस्क का दोहन हो रहा है. डेपॉज़िट क्रमांक 5 में जनवरी 1977 से और डेपॉज़िट क्रमांक 11सी में जून 1987 से.loading

यहाँ पाए जाने वाला लौह अयस्क “फ्लोट ओर” कहलाता है. अर्थात जो सतह पर ही मिलता हो और जिसके उत्खनन के लिए ज़मीन के अंदर नहीं जाना पड़ता. उत्खनन की पूरी व्यवस्था तो हो गयी. अब बात आती है उसके निर्यात की. चूँकि जापान के साथ अनुबंध हुआ था तो समुद्री मार्ग से ही अयस्क जाएगा. बैलाडीला के लिए निकटतम बंदरगाह विशाखापट्नम था. सड़क मार्ग से अयस्क की ढुलाई लगभग असंभव बात थी. इसलिए बैलाडीला के तलहटी से विशाखापट्नम को जोड़ने के लिए 448 किलोमीटर लंबे रेलमार्ग के निर्माण का भी प्रावधान परियोजना में शामिल था. यही सबसे बड़ी चुनौती भी रही. भारत के सबसे पुरानी पूर्वी घाट पर्वत शृंखला को भेदते हुए लाइन बिछानी थी. भेदना (बोग्दे बनाना) भी उतना आसान नहीं थाrailway_tunnel_araku_vally by Debabrata क्योंकि पूर्वी घाट पर्वत शृंखला की चट्टाने क्वॉर्ट्साइट श्रेणी की थी और वर्षों के मौसमी मार से जर्जर हो चली थीं. ऊँचाई भी 3270 फीट, कदाचित् विश्व में इतने अधिक ऊँचाई पर ब्रॉड गेज की रेल लाइन की परिकल्पना अपने आप में अनोखी थी. इसके लिए एक अलग परियोजना अस्तित्व में आई. नाम था DBK रेलवे प्रोजेक्ट (दंडकारण्य बोलंगीर किरिबुरू रेलवे प्रॉजेक्ट). जापान के साथ करार के तहत 20 लाख टन लौह अयस्क किरिबुरू (उड़ीसा) से भी निर्यात किया जाना था इसके लिए तीन नये रेल लाइनों की आवश्यकता थी परंतु जहाँ तक बैलाडीला का सवाल है, इसके लिए विशाखापट्नम से 27 किलोमीटर उत्तर में कोत्तवलसा से किरन्दुल तक 448 किलोमीटर लंबी लाइन बिछानी थी. परंतु जैसा हमने पूर्व में ही कहा है यह कोई बिछौना नही था बल्कि यह कहें कि लाइन को लटकानी थी. हमें गर्व होना चाहिए की हमारे इंजीनियरों ने असंभव को संभव बनाया  वह भी इतने कम समय में. 87 बड़े बड़े पुल जो अधिकतर 8 डिग्रीirfa.org

की मोड़ लिए और कुछ तो 150 फीट ऊंचे खम्बों पर बने, 1236 छोटे पुलिए, 14 किलोमीटर से भी लम्बी सुरंगें (कुल लम्बाई). सबसे बड़ी कठिनाई थी कार्य स्थल पर भारी उपकरणों को पहुँचाना. यहाँ तक  लोहे और सीमेंट को भी ले जाना भी दुष्कर ही था. कार्य प्रारंभ हुआ था 1962 में और 1966 में यह रेलवे लाइन तैयार हो गयी. लौह अयस्क की ढुलाई 1967 में प्रारंभ हुई. इस पूरे परिश्रम की लागत थी मात्र 55 करोड़ और आज होता तो 5500 करोड़ लगते क्योंकि तीन चौथाई तो लोग खा पी जाते. इस रेलमार्ग के सफल निर्माण से ही प्रेरित होकर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण रेलमार्ग बनाये जाने की बात सोची गयी थी.Map

विशाखापट्नम से बैलाडीला (किरंदुल) रेल मार्ग को  KK (कोत्तवलसा – किरंदुल) लाइन कहा गया था. आजकल विशाखापट्नम से एक्सप्रेस रेलगाडी चलती है. सितम्बर 1980 से यह रेल मार्ग विद्युतिकृत है, जब की भारत के महत्वपूर्ण लाईने भी विद्युतिकृत नहीं हुई थीं. ऊंचे पहाडियों पर से गुजरने के कारण भू परिदृश्य अद्वितीय है. इतनी सुन्दर वादियों में यात्रा किसीAraku

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अन्य ट्रेन की हो ही नहीं सकती. यह गाडी अरकू घाटी (फूलों की घाटी) से जब गुजरता है तो सांस थम सी जाती है. यहीं “बोर्र गुहालू” नाम की विख्यात गुफा भी है जिसके अन्दर बिजली से प्रकाश की व्यवस्था की गयी है. इसी नाम का स्टेशन भी है. इस रेल लाइन से जुड़ा हमारा एक रोमांचक अनुभव भी रहा है. विदित हो कि विशाखापट्नम में जापान के जहाज लंगर डाले खड़े रहते थे. किरंदुल से लौह अयस्क रेलगाडी में पहुँचता और सीधे जहाज के गोदी में डिब्बे उलट दिए जाते. ऐसी व्यवस्था वहां की गयी थी. एक जहाज में आठ रेलगाडियों का माल समाता था. इसलिए एक बार पूरे आठ रेलगाडियों को एक साथ जोड़कर लौह अयस्क ले जाया गया. मीलों लम्बी उस गाडी को देखने जनता उमड़ पड़ी थी. दुर्भाग्यवश यह प्रयोग सफल न हो सका. गाडी के कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए थे.

बात हमने बैलाडीला के लौह अयस्क से प्रारंभ की थी. अब जबकि जापान के साथ किया गया अनुबंध कालातीत हो चला है, अयस्क के खपत के लिए विशाखापट्नम में एक इस्पात संयंत्र के स्थापित किये जाने का औचित्य समझ में आ रहा है. इस पर भी उँगलियाँ उठी थीं कि बस्तर के विकास के लिए विशाखापट्नम के बदले बस्तर में ही इस्पात कारखाने क्यों स्थापित नहीं किये गए. यह सोच अपनी जगह सही है परन्तु उस रेलमार्ग की फिर कोई उपयोगिता नहीं रह जाती. अब क्योंकि बैलाडीला क्षेत्र के लौह भंडार का पूरा उपयोग अकेले एक संयंत्र के बूते के बाहर है, इसलिए बस्तर के विकास को ध्यान में रखते हुए NMDC, 14000 करोड़ रुपयों के निवेश से जगदलपुर के समीप नगरनार में एक एकीकृत इस्पात संयत्र की स्थापना कर रही है. इसकी आधारशिला रखी जा चुकी है और आवश्यक भूमि का भी अधिग्रहण हो गया है. कुछ निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी इस्पात संयत्रों के लिए अनुज्ञा दी जा चुकी है. टाटा समूह के द्वारा चित्रकोट के निकट लोहंडीगुडा में तथा एस्सार समूह को बचेली में. सबसे बड़ी समस्या वहां के माओ वादियों/नक्सलियों द्वारा किया जाने वाला विरोध है. इस कारण सभी योजनायें अधर में हैं. हाँ इस बीच एस्सार वाले बैलाडीला से लौह अयस्क को चूर्ण रूप में (पानी के साथ) पाइप लाइन के माध्यम से विशाखापट्नम पहुँचाने मे सफल रहे हैं.

न जाने कब जाकर इस नक्सल समस्या का समाधान हो पायेगा. इन आयातित परभक्षियों के कारण बस्तर का विकास अवरुद्ध हो चला है.