केरल समाज की पुरातन व्यवस्थाओं के बारे में हमने इसके पहले भी लिखा है परन्तु किसी और सन्दर्भ में. देखें “स्त्री सशक्तीकरण – एक पुरानी परंपरा“. “एक अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता” वाली लोकोक्ति से तो सभी अवगत होंगे ही परन्तु एक चने ने क्या कर दिखाया और उसका दूरगामी असर कैसा रहा जानने के पूर्व आवश्यक हो गया है कि कुछ बातों को दुहराया जावे. केरल की वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर नम्बूतिरि ब्रह्मण थे. ये धनाठ्य वर्ग में आते थे. 8 वीं शताब्दी से ही न केवल इन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ, उनपर राजा का वरद हस्त भी रहा. दूसरी निचली जातियों के लोगों पर, नायर सहित, इन्हें बड़े विशेषाधिकार प्राप्त थे. इन्हें बड़ी बड़ी जमींदारियां दे दी गयीं. वस्तुतः पूरा भूभाग ही इनके आधीन था. इनके द्वारा पट्टा दिए जाने पर ही किसी और को भूमि मिल पाती थी, जिसके एवज में उन्हें कर अदा करना होता था. ये लोग आलीशान “मना” में रहा करते थे जो इनका पारंपरिक आवास था. उनके उत्तराधिकार के नियम पितृसत्तात्मक हुआ करते थे परन्तु अपनी संपत्ति को विघटित होने से बचाए रखने के लिए इन्होने व्यवस्था कर रखी थी कि केवल परिवार का ज्येष्ठ पुत्र ही विवाह कर सकता है. अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक से अधिक पुरुष संतान हों तो उनका क्या होगा. वे किसी नम्बूतिरि लड़की से शादी तो नहीं कर सकते परन्तु किसी निम्न जाति की स्त्रियों से “सम्बन्ध” बना सकते थे. इस प्रकार के “सम्बन्धम” से जो संतान उत्पन्न होंगे वे नम्बूतिरि कुल के नहीं माने जायेंगे. क्योंकि:
ब्राह्मणों को छोड़ केरल का शेष हिन्दू समाज “मातृसत्तात्मक” परिवारों का हुआ करता था. मातृसत्तात्मक परिवारों में विवाह नामकी संस्था थी ही नहीं. यह एक ऐतिहासिक सत्य है. कुनबे में जिसे “तरवाड़” कहा जाता है, घर का मुखिया (कर्णन)”मामा” हुआ करता था. घर की वास्तविक सत्ता महिलाओं की रही. घर की कन्याओं के “सम्बन्धम” के लिए साधारणतया किसी ब्राह्मण को वरीयता दी जाती थीं और यहीं उन बिन ब्याहे नम्बूतिरियों का प्रयोजन हुआ करता था. किसी ब्राह्मण के न मिलने पर किसी दूसरे नायर “तरवाड” में ब्राह्मण के संसर्ग से जन्मे किसी युवा को पसंद किया जाता था. “सम्बन्धम” बनाने के लिए भी कुछ औपचारिक्तायें हुआ करती थी. जैसे किसी युवा के द्वारा युवती को एक वस्त्र (अंगोछा पर्याप्त था) भेंट में दिया जाना. इसके बाद वह पुरुष युवती के घर रात बिताने जाया करता और सुबह होते ही अपने घर वापस आ जाता. “सम्बन्धम” को तोड़ना भी बहुत आसान था. उस पुरुष के समक्ष महिला द्वारा अंगोछे (वस्त्र) को दो भागों में फाड़ देना. किसी भी स्त्री के सम्बन्ध एक से अधिक पुरुषों से भी हो सकते थे. यह व्यवस्था समाज के द्वारा सर्वथा मान्य थी और किसी भी प्रकार से इसे हीन भावना से नहीं देखा जाता रहा.
नम्बूतिरि परिवार की पूर्वोक्त व्यवस्था के कारण उनके लड़कियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी. क्योंकि बहुत सी कन्यायें मातृत्व का सुख भोगे बगैर बिन ब्याही ही रह जाती थीं. विवाह योग्य वर के होते हुए भी विवाह न हो पाता. इसके समाधान के लिए ज्येष्ठ पुत्र को एक से अधिक विवाह करने की छूट थी जो आंशिक रूप से समस्या का हल बनी. इस से यह भी हुआ कि १८ वर्ष की कन्या को ६० वर्ष के बूढे नम्बूतिरि के साथ शादी करा दिया जाता था. वह कन्या उम्र भर घुटन भरा जीवन व्यतीत करने के लिए वाध्य थी. कई कन्यायें तो जवानी में ही विधवा बन जाती और प्रताड़ना के भागी बनती. विधवा विवाह का कोई प्रावधान नहीं था. इनके समाज में स्त्रियों को “अन्तर्जनम” कहा जाता है अर्थात जो चहार दीवारी में ही रहती हो. बाहर केवल मंदिर या अपने निकटस्थ सम्बन्धी के पास ही जा पातीं जिसके लिए साथ में दासी का होना अनिवार्य था. किसी दूसरे व्यक्ति को अपना मुखडा नहीं दिखा सकती थीं जिसके लिए हर मौसम में एक ख़ास प्रकार का ताड़ के पत्ते से बना छाता लेकर चला करतीं. सामने से कोई आता दिखे तो अपने मुह के सामने छाता ओढ़ लेतीं.
समाज में स्त्रियों को “साधनम्” अर्थात एक वस्तु या सामग्री के रूप में परिभाषित किया गया जाता था लेकिन पूरी व्यवस्था उस स्त्री रुपी वस्तु के चरित्र को पावन बनाये रखने के लिए समर्पित थी. किसी भी प्रकार का कलुषित/अनैतिक आचरण असह्य हुआ करता था. जब कभी “मना” (नम्बूतिरि आवास) के किसी “अन्तर्जनम” के चरित्र पर संदेह उत्पन्न होता तो सर्वप्रथम उस “अन्तर्जनम” की दासी से पूछ ताछ की जाती, “दासिविचाराम” नाम की प्रक्रिया के तहत. जब भी इस पूछ ताछ में कुछ मामला बनता तो फिर “अन्तर्जनम” के विरुद्ध अभियोग चलाने के लिए “स्मार्तविचाराम” (समाज के द्वारा स्त्रियों के विरुद्ध न्यायाधिकरण) की प्रक्रिया प्रारंभ किये जाने हेतु प्रदेश के राजा से, आवश्यक शुल्क जमा कर, निवेदन किया जाता. साधारणतया राजा की अनुमति मिल ही जाया करती थी. यह पूरी प्रक्रिया उस नारी के प्रति दुर्भावना से ही भारित होती थी. अतः सम्बंधित महिला की दुर्गति सुनिश्चित की हुई होती थी. अभियोजन का कार्य कुछ दिनों तक और कभी कभी महीनों चलता. इस बीच उस महिला को विचाराधीन कैदी की तरह एक अलग कमरे (अचनपुरा/पचोलापुरा) में बंद रखा जाता. अंत में उसे “भ्रष्ट” घोषित कर दिया जाकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता. सम्बंधित स्त्री को मृत मानकर उसका पिंडदान भी कर दिया जाता रहा. उसकी स्थिति भिकारियों जैसी हो जाती. ऐसी भ्रष्ट घोषित स्त्रियाँ किसी निम्न ज़ाति के पुरुष से विवाह कर गुमनामी में जीवन व्यतीत करतीं या फिर उत्तर मालाबार के मन्नानर/चाकियार के यहाँ आश्रय प्राप्त करतीं. अभियोजन के ऐसे मामले इस्लाम के शरिया कानून की तरह “शंकरस्मृति अथवा लघु धर्म प्रकाशिका” के उपबंधों के तहत किया जाता रहा.
अब हम १९०५ के उस ऐतिहासिक घटना पर केन्द्रित होते हैं जब एक चने ने नम्बूतिरि समाज की छाती में मूंग दली. “स्मार्तविचाराम” के इस प्रकरण में अभियुक्त रही एक सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, साहित्य और कला (कथकली) का गहन अध्ययन की हुई विदूषी “तात्री” (सावित्री). तात्री, मुकुंदपुरम तहसील के कल्पकस्सेरी अष्टमूर्थी नम्बूतिरि की संतान थी. प्रारंभ से ही वह खुले विचारों की (विद्रोही!) थी. यहाँ तक कहा जाता है कि उसके कुंडली के अनुसार वह परिवार के लिए अनिष्ट लेकर ही जन्मी थी. यह भी कहा गया है कि उसके पिता और जीजा द्वारा उसका यौन उत्पीडन भी हुआ था. खैर, १८ वर्ष की आयु में ही उसका विवाह ६० वर्ष के चेम्मनतट्ट कुरीयडथ रामन नम्बूतिरि से कर दिया जाता है. संभवतः तात्री उस नम्बूथिरि के मना (आवास) से भाग निकलती है और छद्म रूप में वहीँ कहीं नगर वधु की तरह रहने लगती है. उसके अनुपम सौन्दर्य की चर्चा चल पड़ती है और दूर दूर से लोग पहुँचने लगते हैं. परन्तु तात्री केवल अभिजात्य वर्ग के लिए ही उपलब्ध थी क्योंकि उसके मन में तो कुछ और ही था. तात्री के सौन्दर्य की खबर उसके पति रामन नम्बूतिरि को भी मिलती है (या पहुंचाई जाती है) और वह भी एक दिन निकल पड़ता है, रात के अँधेरे में, उससे संसर्ग सुख प्राप्त करने के लिए. तात्री के घर पहुँचने पर रामन नम्बूतिरि की समुचित आव भगत होती है और उसे शयन कक्ष में पहुंचा दिया जाता है जहाँ उसकी प्रतीक्षा की जा रही थी. वहां यथोचित सत्कार के बाद जब रामन विदा हो रहा होता है तभी वह तात्री को ठीक से देख पाता है. उसे एकाएक एहसास होता है कि यह तो उसकी पत्नी सावित्री ही थी. बात समझ में आने पर वह वहां से भाग निकलता है.
दुसरे ही दिन रामन नम्बूतिरि नें समाज के करता धर्ताओं के समक्ष अपनी व्यथा बताई और सावित्री (तात्री) के विरुद्ध “स्मार्तविचाराम” गठित किये जाने हेतु राजा से निवेदन किया गया. परन्तु तात्री ने भी अपनी चाल चली उसने राजा से निवेदन किया कि न्याय एक पक्षीय न होकर यदि कोई पुरुष भी अनैतिक आचरण का दोषी पाया जाता हो तो उसे भी सामान दंड दिया जाना होगा. राजा बड़ा न्याय प्रिय था. उसने तात्री की बात मान ली और उसे प्रथम अभियुक्त बनाया गया . हलाकि “स्मार्तविचाराम” की प्रक्रिया स्त्रियों के विरूद्ध ही किये जाने की परंपरा थी परन्तु राजाज्ञा का विरोध नम्बूतिरि वर्ग के द्वारा किया नहीं जा सका. पेरुवनम नामके एक ग्राम (जो प्राचीनतम नम्बूतिरि बसाहटों में से एक है) के जातवेदन नम्बूतिरि को इस “स्मार्तविचाराम” रुपी न्यायाधिकरण का प्रमुख बनाया गया जिनके तीन और विद्वान नम्बूतिरि सहयोगी थे जिन्होंने तात्री से गहन पूछ ताछ करना प्रारंभ किया. इस बीच उसे विचाराधीन कैदी की तरह अलग कमरे (अचनपुरा/पचोलापुरा) में रख पहरेदार नियुक्त कर दिए गए.
विवेचना में तात्री नें अपने ऊपर लगाये गए सभी आरोप स्वीकार कर लिए. इसके बाद प्रारंभ हुआ उसकी ओर से प्रत्यारोपों का दौर. समाज के एक से एक प्रतिष्टित लोगों का मुखौटा उतारा जाने लगा. नाम बताना ही पर्याप्त न था. प्रमाण भी देने थे. अब उन गणमान्य पुरुषों की बारी थी. प्रति दिन नामित व्यक्ति को एक समूह में शामिल कर शिनाख्ती परेड जैसा कार्यक्रम होता जिसमे व्यक्ति विशेष की पहचान की जाती. एक एक कर वे भी कठघरे में खड़े किये गए. प्रत्येक के शरीर के अंदरूनी भागों में पाए जाने वाले चिन्ह आदि के बारे में तात्री द्वारा विवरण दिया जाता और पुष्टि की जाती. जैसे जैसे नैतिकता के कर्णधारों की गिनती बढती गयी, पूरे इलाके में तहलका मच गया. कुछ लोग तो मारे भय के घर बार छोड़ परदेस भाग खड़े हुए और कुछोने पूजा पाठ आदि करवाई जिससे तात्री याद न रख सके. लगभग 7 माह की अवधी में कुल 64 लोगों पर आरोप लगा. जिसमे 30 नम्बूतिरि, 10 अय्यर,13 अम्बलावासी और 11 नायर शामिल थे. इस संख्या को देख राजा स्वयं चिंतित हो उठा. उसे इस बात का भी भय था कि ६५ वां वह स्वयं न बने इसलिए एन केन प्रकारेण ६४ की संख्या पहुँचने पर आगे की कार्यवाही रोक दी गयी और 13 जुलाई 1905 की रात तात्री तथा 64 अन्य अभियुक्तों पर दंड की घोषणा कर दी गयी. तात्री को चालकुडी नदी के किनारे किसी घर में नजरबन्द रखा गया परन्तु कहते हैं कि वह वहां से भाग निकली थी. उसका क्या हुआ इस बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है.
यह बात उल्लेखनीय है कि इस अभियोजन में सह आरोपियों पर न्याय डगमगाता नहीं दिखा. विशेषकर जब स्वयं न्यायाधिकरण के प्रमुख के दो भाई भी सम्मिलित थे. साधारणतया ऐसे प्रकरणों में सह आरोपी “स्मार्तविचाराम” रुपी न्यायाधिकरण के प्रमुख “स्मार्तन” को भी प्रलोभन आदि देकर बच निकलते रहे हैं. इस घटना ने नम्बूतिरियों की अस्मिता को झकझोर दिया और उस समाज को आत्मचिंतन के लिए मजबूर कर दिया. नम्बूतिरि समाज के कुछ लोगों ने “योगक्षेमम” नामक एक सभा गठित की जिसके माध्यम से उन्होंने समाज में “सम्बन्धम” जैसे प्रावधानों को उखाड़ फेंकने और नम्बूतिरि युवाओं के विवाह आदि के नियमों में शिथिलता बरते जाने के लिए सामाजिक सुधारों हेतु संकल्प लिया. भारत की आजादी के बाद तो पूरा बदलाव आ ही गया, क्योंकि हिन्दुओं के उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून सामान रूप से हिन्दुओं के सभी वर्गों पर लागू हो गयी. मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी इसके साथ ही समाप्त हो गयी.
अगस्त 10, 2009 को 7:03 पूर्वाह्न
बहुत रोचक व ज्ञानवर्धक जानकारी है ।
अगस्त 10, 2009 को 8:01 पूर्वाह्न
इस संबंध मे कई बार जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी जो आज अनायास ही आपके इस लेख द्वारा शंत हो गई. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
अगस्त 10, 2009 को 8:42 पूर्वाह्न
पिता और जीजा द्वारा ….शोषण ? वृद्ध से विवाह ? ६४ अभिजात्य … नगर वधु से संसर्ग के लिए नामित ? आरोपियों की संख्या बढती देख कार्यवाही रोकी गई ? …और तात्री को दंड भी दे दिया गया !
विलक्षण कथा है ‘नारी शोषण’ और तब के ‘हालात’ की , सच कहें तो तात्री के पास पलटवार के अतिरिक्त कोई विकल्प भी कहाँ था ! उसने इतिहास को दिशा दी , बदलाव का कारण बनी, बड़ी बात है !
तात्री मेरे लिए एक सम्मानित स्त्री है !
…..और हाँ “कईयों (पुरुषों) नें तात्री की स्मृतियों से अपना नाम विलोपित करने के लिए पूजा करवाई” …जबरदस्त /रोचक /अदभुत, विवरण !
अगस्त 10, 2009 को 8:56 पूर्वाह्न
विवाह संस्था का जन्म ही संपत्ति के उत्तराधिकार के कारण हुआ। संपत्ति के उत्तराधिकार ने ही इस के विभिन्न रूप तय किए। विवाह संस्था में उत्पीड़न तो है ही। यह समाज विकास के एक स्तर पर उत्पन्न हुई है इस कारण इसे समाप्त भी होना है।नया स्वरूप तो भविष्य के गर्भ में है।
अगस्त 10, 2009 को 1:10 अपराह्न
बहुत ख़ूब! उसने वही किया जो उसे करना चाहिए था. एक दिन यही स्थिति दहेज लोभ के कारण उत्तर भारतीयों के सामने भी आने वाली है.
अगस्त 10, 2009 को 1:58 अपराह्न
विलक्षण घटना. नारी की शक्ति को दर्शाती हुई तथा शोषण की कथा.
अगस्त 10, 2009 को 2:22 अपराह्न
जोरदार….
अगस्त 10, 2009 को 2:29 अपराह्न
Tatri ki nirbhayata aur chaturai ne tatkalin samaj ko jhakjhor kar rakh diya hoga. Rochak post, aabhar.
अगस्त 10, 2009 को 3:14 अपराह्न
आपने तो को एक युग काल को साक्षात कर दिया ! सामाजिकी और न्यायव्यवस्था में अध्ययन रूचि वालों के लिए एक दस्तावेज !
अगस्त 10, 2009 को 4:41 अपराह्न
तात्री की कथा एक साँस में पढ़ गया । तात्री सचमुच में समाज सुधारक महिला थी । समाज को सुधरने के लिये उसी श्रेणी के आघात की आवश्यकता होती है, जिस श्रेणी का तात्री ने उपयोग किया । इसीलिये नारी देवी एवं शक्ति के रुप में पूजी जाने योग्य हैं । भाषा, शैली, और प्रस्तुतीकरण की उत्कृष्ठता के लिये साधुवाद ।
अगस्त 10, 2009 को 4:44 अपराह्न
बहुत ही रचक और सतब्ध कर देने वली कहानी है इसका उल्लेख पहले कहीं नहीं पढा या सुना ।इस दस्तावेज़ के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
अगस्त 10, 2009 को 5:56 अपराह्न
सौ साल पहले के समाज का विवरण पढ़कर आवाक् रह गया मैं। कैसे – कैसे नियम बना डाले समाज ने? आपका लेख पढ़कर मैने तत्काल आपको अपने ब्लॉगरोल में डाल लिया है। अब नियमित आना-जाना होगा।
मुझे केरल में रहने वाले नम्बूदरी ब्राह्मणों और अन्य जाति वर्गों से सम्बन्धित आज की सामाजिक स्थिति के बारे में जानने की इच्छा है। आप इसमें मेरी मदद करेंगे क्या?
अगस्त 10, 2009 को 10:22 अपराह्न
kamaal ki jaankari hai…vakai kuch striyan janm se hi vidrohi hoti hain, chahe kitna bhi path padha diya jaaye wo samaj ke kitni roodhiyon ke prati na sahaj hoti hain aur na sawal karna chhodti hain.
badlav aane me aisi naariyon ka bahut bada hath raha hai…savitri ke bare me btane ka shukriya.
अगस्त 10, 2009 को 11:32 अपराह्न
अत्यन्त स्तंभित कर देने वाली विलक्षण घटना!! हमने तो कभी आज तक इस के बारे में न पढा ओर न ही सुना। तात्री ने तो समाज को एक नई दिशा दे डाली।
अगस्त 11, 2009 को 2:14 पूर्वाह्न
Bahut hee rochak par naree shoshan ko rekhankit karata hua lekh. Halanki Tatri ke liye manme samman jaga hai ki usane himmat dikhaee aur stree purush ke liye saman niyamon ka aagrah kiya bhee aur manwaya bhee.
अगस्त 11, 2009 को 8:27 पूर्वाह्न
रोचक, अद्भुत और संग्रहणीय जानकारी.. साधुवाद
अगस्त 11, 2009 को 9:50 पूर्वाह्न
आदीमकाल से चली आ रही नारी शोषण की कथा कुछ नई नहीं है पर तात्री का प्रतिशोध उनके लिये मन में श्रद्धा उत्पन्न करता है। रोचक व प्रेरक जानकारी के लिये धन्यवाद
अगस्त 11, 2009 को 9:56 पूर्वाह्न
naari shakti since 1905
अगस्त 11, 2009 को 10:09 पूर्वाह्न
१९०५…..यह तो बहुत अधिक पुरानी घटना नहीं है..एक सदी पहले तक ऐसा सब होता रहा ???जान कर आश्चर्य हुआ.इस प्रतिशोध की एतिहासिक कथा पहली बार जानी.
एक नम्बूतिरि नारी के इस प्रतिशोध ने बाकि स्त्रियों के लिए जीवन बेहतर बना दिया इस के लिए उसे हमेशा याद किया जाता रहेगा.अकेले एक ऐसी व्यवस्था को उस ने तोडा जो इतने समय तक बे रोक टोक चली आ रही थी.इस में उस राजा की न्यायप्रियता का भी बराबर योगदान है जिसने तात्री को मौका दिया औरमातृसत्तात्मक व्यवस्था भी इसके साथ ही समाप्त हो सकी .
अगस्त 11, 2009 को 10:36 पूर्वाह्न
तो यह था मातृसत्तात्मक समाज।
बहुत बहुत धन्यवाद।
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का ‘त्रिया राज’ में फँसना और गुरु गोरखनाथ का उन्हें वापस लाना – शायद कोरी गल्प न हो।
मातृसत्तात्मक समाज भी नारी को सुखी नहीं रख सका। क्या इसलिए कि वह पुरुष वर्चस्ववादी समाज की नदी के बीच द्वीप की तरह था ? नदी द्वीप को निगल गई।
जाने क्यों यशपाल की ‘दिव्या’ याद आ गई?
अगस्त 11, 2009 को 10:39 पूर्वाह्न
@ दिनेशराय द्विवेदी
सर, विवाह संस्था का कोई विकल्प यदि इस समय आप के पास है तो बताएँ। भविष्य में तो बहुत कुछ परिवर्तित होना है।
सम्भवत: मनुष्य ही न रहे !
अगस्त 11, 2009 को 1:43 अपराह्न
मन ओ झकझोर देने वाली पोस्ट.
{ Treasurer-T & S }
अगस्त 11, 2009 को 1:54 अपराह्न
subrmanyan ji , namaskaar
behad gyaanvardhak jankari ke liye kotish: dhanywad .
renu..
अगस्त 13, 2009 को 6:57 अपराह्न
kuchh nahi badla.
अगस्त 13, 2009 को 10:29 अपराह्न
नम्बूदिरी समाज के बारे में समृध्द जानकारी यहाँ मिलती रही है. केरल के इस अनूठे पित्रसत्तात्मक समाज के बारे में जानकर हमने काफी कुछ add किया है.आभार.
अगस्त 15, 2009 को 4:38 अपराह्न
क्या नारी के विषय में नम्बूदिरी समाज अन्य की अपेक्षा अभी भी अधिक दकियानूस है?
अगस्त 16, 2009 को 10:09 अपराह्न
बहुत अच्छा लेख….बहुत बहुत बधाई….बस लाजवाब ही कह सकता हूँ…
अगस्त 18, 2009 को 12:44 अपराह्न
रोचक लेख।तात्री ने समाज को एक नई दिशा दी।अच्छी जानकारी मिली।
अगस्त 20, 2009 को 9:27 अपराह्न
बहुत अच्छी लगी शोषण पहले भी था और अब भी
सितम्बर 2, 2009 को 1:02 अपराह्न
Hamen fir se aisaa samaaj sthapit karna hoga.
( Treasurer-S. T. )