हमने पिछली पोस्ट में बताया था कि मुंबई प्रवास में कुछ आस पास की जगहों को देखने गए थे. वज्रेश्वरी के गरम पानी के कुन्ड भी उनमे एक थे. वहां से लौटते समय पुनः वीरार आना ही था जहाँ हम ५ बजे शाम ही पहुँच गए. बचे हुए समय का पूर्ण दोहन करने के लिए साल्वे जी ने “नालसोपारा” चलने का प्रस्ताव रखा. (नालसोपारा दादर स्टेशन से वेस्टर्न सबर्बन रेलमार्ग पर लगभग ४८ किलोमीटर दूर अंतिम पड़ाव “वीरार” के पहले पड़ता है). हमने झट हामी भर दी परन्तु पूछा कि वहां क्या है. उन्होंने समुद्र तट की बात की तो हमने एक अलग जगह बताई. वे चकित हुए. उन्हें नहीं मालूम था कि सोपारा गाँव में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी सदी में निर्मित कोई स्तूप भी है. वे बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि वे स्वयं बौद्ध धर्म के अनुयायी थे. १५-२० मिनट में ही हम लोग पूछते पाछते ASI (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा संरक्षित उस स्मारक तक पहुँच ही गए.
वास्तविकता तो यह है कि “नाल” और “सोपारा” दो अलग अलग गाँव थे. रेलवे लाइन के पूर्व “नाल” है तो पश्चिम में “सोपारा”. अब यह एक बड़ा शहर हो गया है और बहु मंजिले इमारतों की बस्ती बन गयी है. लेकिन जब हम लोग पुराने सोपारा गाँव के करीब पहुंचे तो भूपरिदृश्य एकदम बदला हुआ लगा. चारों तरफ हरियाली थी. बहुत सारे पेड़ थे परन्तु उनमे ताड़ की अधिकता मनमोहक थी. सड़क के एक किनारे सरोवर था
तो दूसरी ओर एक टीला. ASI का सूचना फलक भी लगा था. जब हम लोग अन्दर प्रवेश कर रहे थे तो बारिश होने लगी और हमने एक बड़े पेड़ का सहारा लिया. सामने ही वह प्राचीन बौद्ध स्तूप नीले रंग के तिरपाल से ढंका हुआ था. चारों तरफ ईंट और पत्थर लाकर रखे गए थे जिनसे स्तूप के वास्तविक स्वरुप को मूर्त रूप दिया जाने वाला है. सदियों से क्षरण झेलता वह स्तूप अब कहीं संरक्षित हो रहा है, यह जान कर ख़ुशी हुई परन्तु दुःख भी हुआ कि हम उसे उसके वर्त्तमान
स्थिति में नहीं देख सके. वहां बुद्ध और साथ ही किसी बौद्ध भिक्षु की मूर्ती भी थी. हमें बताया गया कि यहाँ से निकली मूर्तियाँ, शिलालेख आदि औरंगाबाद के संग्रहालय में प्रर्दशित हैं. वहां तैनात चौकीदार सेना से सेवानिवृत्त होकर पुनः ASI की सेवा में आया था. रहने वाला तो उत्तर प्रदेश का था परन्तु उसने हमें उस स्तूप के बारे में यथा संभव जानकारी प्रदान की.
वर्षों पूर्व क्षेत्र में किये गए उत्खनन से पता चलता है कि सोपारा में बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म स्थलों की बहुलता थी जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से अब लुप्त हो चली है. स्वर्गीय डा. भगवानलाल इन्द्रजी ने सन १८९८ में मुंबई के रोयल येशिअटिक सोसाइटी को सोपारा में बौद्ध स्तूप के अतिरिक्त कई हिन्दू मंदिरों के खंडहरों की जानकारी दी थी. डा. भगवानलाल इन्द्रजी के ही शब्दों में:
“That ancient Hindu temples did exist in this part of the country is without doubt, the many fragments found in the villages around testifying to this, but so complete has been their destruction at the hands of the Muhammadans and Portuguese that their very sites have become obliterated. It was then with a great deal of satisfaction that I discovered and unearthed the foundations of a large Hindu temple at Sopara itself.”
कुछ मंदिरों का निर्माण पूर्ण ही नहीं हुआ था. वहां की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि ब्रह्माजी के एक विलक्षण आदमकद (६ फीट) मूर्ती की थी और मूर्तिकार इसे भी पूरा नहीं कर पाए थे. मूर्ती का अपूर्ण हिस्सा लगभग एक फीट का नीचे है जो अब सीमेंट से जड़ दिया गया है. क्या वहां ब्रह्मा जी का मंदिर बन रहा था या केवल किसी अन्य मंदिर में अलंकरण के लिए उसे बनाया गया, यह अभी प्रश्न ही बना हुआ है. कुछ मंदिर अधूरे ही क्यों रह गए यह भी अज्ञात है. सोपारा के समुद्र तट पर बंदरगाह को तलाशने की कोई कोशिश की गयी हो यह भी नहीं मालूम. अतः बंदरगाह का वास्तविक स्थल अज्ञात ही है.
जिस प्रकार दक्षिण भारत के पश्चिमी तट पर ईसा पूर्व से ही “मुज़रिस” (कोडूनगल्लूर) विदेश व्यापर के लिए ख्याति प्राप्त बंदरगाह रहा उसी प्रकार उत्तर भारत के पश्चिमी तट पर उसी कालक्रम में सोपारा भी भारत में प्रवेश के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था. इस बंदरगाह का संपर्क विभिन्न देशों से रहा है. सोपारा को सोपारका, सुर्परका जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता था. प्राचीन अपरानता राज्य की राजधानी होने का भी गौरव सोपारा को प्राप्त है. इस्राइल के राजा सोलोमन के समय से ही बड़ी मात्रा में उनके देश से व्यापार का उल्लेख मिलता है. कदाचित बाइबिल में उल्लेखित भारतीय बंदरगाह “ओफिर” सोपारा ही था. बौद्ध साहित्य “महावंश” में उल्लेख है कि श्रीलंका के प्रथम राजा, विजय ने “सप्पारका” से श्रीलंका के लिए समुद्र मार्ग से प्रस्थान किया था. प्राचीन काल में सोपारा से नानेघाट, नासिक, महेश्वर होते हुए एक व्यापार मार्ग उज्जैन तक आता था. इस बात की पुष्टि नानेघाट में सातवाहन वंशीय राजाओं के शिलालेख से होती है, जो मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद हावी हो गए थे. सोपारा इनके आधीन आ गया था. नानेघाट में तो बाकायदा चुंगी वसूली एवं भण्डारण हेतु प्रयुक्त पत्थर से तराशा हुआ कलश आज भी विद्यमान है.
बौद्ध स्तूप के चारों तरफ अच्छे से देख लेने के बाद हम लोग लौट पड़े. रास्ते में चक्रेश्वर महादेव जी का प्राचीन मंदिर एक बड़े ताल के बगल से था. यहाँ दर्शन तो पिंडी के हुए परन्तु वहीँ बेचारे ब्रह्माजी भी थे जिनकी चर्चा ऊपर की है.