एक बार आयरिश मूल के एक मित्र टॉम बेकर का भोपाल आना हुआ था. हमारे मित्रों ने उसे साँची घुमा लाने का प्रस्ताव रखा. सुबह नाश्ते के बाद लगभग 10 बजे अपनी कार से निकल पड़े थे. कार हम ही चला भी रहे थे. उन दिनों साँची की सड़क यात्रा बड़ी दुखदायी हुआ करती थी. विदेशी मेहमान को पूरी तरह से साँची के स्तूपों, मंदिरों, विहारों का अवलोकन करवाया गया. स्मारकों के बारे में विस्तार से बतलाने के लिए हम ने ही गाईड का रोल भी अदा किया. शाम होनेपर भोपाल वापसी के लिए हमने मार्ग बदल दिया और तय किया कि रायसेन होकर वापस चलेंगे क्योंकि सड़क अच्छी मिलेगी. रायसेन होकर जाने पर लगभग 35 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करनी होगी, जो हमें स्वीकार था. शाम 5.00 बजे हमलोग रायसेन के लिए निकल पड़े हालाकि साँची से रायसेन तक का मार्ग भी कोई अच्छा नहीं था. लेकिन रायसेन के आगे अच्छी सड़क मिलने की सुनिश्चितता थी.
लगभग 40 मिनटों में हमलोग एक पहाड़ का चक्कर लगाते हुए रायसेन पहुंचे. हम जब कभी भी रायसेन से गुजरते तो उस पहाड़ पर बना भव्य किला हमें मुह चिढाता दिखता. कई बार ऊपर जाने की सोची पर हर बार यही बताया गया कि रास्ता ठीक नहीं है. ऊपर बीहड़ है. लूट खसोट की घटनाएँ भी होती हैं और फिर वहां तो बस खँडहर ही रह गया है. हम मन मसोस कर रह जाते. उस दिन पहाड़ की तलहटी से गुजरते हुए हमारे विदेशी मित्र टॉम बेकर की नज़र किले पर पड़ी. उसके मन में भी किले के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. हमने भी सोचा चलो आज तो ऊपर चढ़ा ही जाए. मुख्य मार्ग के दाहिनी ओर एक सकरी सी सड़क जाती है, पहाड़ की तलहटी तक. रास्ता बहुत ही ज्यादा ऊबड़ खाबड़ था. एकदम धीमी गति में डोलते डालते गाडी अंतिम छोर तक पहुँच ही गयी. वहां गाडी को पार्क कर पहाड़ पर बनी खस्ताहाल सीढ़ियों से हम सभी ऊपर चल पड़े.
हमलोगों ने पाया कि कई लोग किले से नीचे उतर भी रहे थे. उनके हाथों में निर्माण सम्बंधित औजार भी थे. हम लोगों को लगा कि वे सब मिस्त्री होंगे. उनसे पूछ ताछ भी करी. उन्होंने बताया कि ऊपर काम चल रहा है. उन लोगोंने हम लोगों को आश्वश्त किया कि ऊपर कोई खतरा नहीं है. हम लोगों का उत्साह बढ़ गया परन्तु हममे से एक मित्र (श्री देवदास) अपने भारीपन को दोष देते बीच में ही थक कर चट्टान पर बैठ गए.
अतः अंत में हम तीन लोग ही रहे जिन्होंने किले में प्रवेश किया. मुख्य द्वार से घुसने पर ही हमें चारों तरफ जंगल सा दिखा. चारों तरफ बहुत सारे जीर्ण शीर्ण भवन भी थे, और कुछ गुम्बद लिए हुए. वहां बड़ी चिल्लपों हो रही थी. चमगादड़ों का डेरा था. सभी भवन एक विशाल दालान
की तरफ मुह किये हुए थे और बीच में थी एक टूटी फूटी स्थिति में बड़ी सी
बावड़ी. हमें जिसने आकृष्ट किया वह था वहां बनी एक बारादरी. इसकी हालत वैसे तो ठीक ही थी. यहाँ से दूर दूर तक देखा जा सकता था . दूर हमें भोपाल जाने वाली सड़क साफ़ दिख रही थी और नीचे की बस्ती भी.
बगल में एक मकबरा था जिसके दरवाजे बंद थे. हमें लगा था कि यदि इस किले को संरक्षित किया जावे और पहुँच मार्ग बना दिया जावे तो अत्यधिक मात्रा में पर्यटकों को आकर्षित करेगा. संध्या हो चली थी और अँधेरा होने लगा था. अन्दर और अधिक कुछ देखने की स्थिति नहीं रही इसलिए वापस निकल पड़े थे. रास्ते में हमारे मित्र देवदास जी मिल गए और उन्होंने हम लोगों पर चढ़ाई कर दी यह कहते हुए कि हम लोग कहाँ थे. उनका कहना था कि वे भी ऊपर तक चढ़ आये परन्तु हममे से किसी को न पाकर और फिर अँधेरे को देखते हुए लौट आये थे. हमें उनकी बातों पर भरोसा नहीं था.
एक टूटी हुई गुम्बद के अन्दर से आकाश का दृश्य
तोपों की कब्रगाह
किले की दीवार पर पाया गया शिलालेख
रायसेन नगर को एक हिन्दू शासक रायसिंह ने 1143 ईसवी में बसाया था और लगभग उसी कालावधि में वर्त्तमान किले का निर्माण हुआ. परन्तु ६ वीं सदी के एक दुर्ग के वहां स्थित होने के संकेत मिलते हैं. रायसेन में सन 1485 ईसवी के आस पास गयासुद्दीन घौरी के शासनकाल में मस्जिद, मदरसे और कई इमारतों के निर्माण किये गए थे. एक और राजपूत सरदार का उल्लेख मिलता है जो तोमर था. नाम था सिल्हादी (शिलादित्य). उत्तरी मालवा इस के कब्जे में रहा. सन 1531 में सिल्हादी ने गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह को मालवा पर विजय दिलाई. यह एक संयुक्त अभियान था जिसमे मेवाड़ के राणा सांगा की सेना ने भी भाग लिया था. प्रतिफल स्वरुप सिल्हादी को उज्जैन और सारंगपुर के सूबे दिए जाने थे. मालवा विजय के पश्चात बहादुर शाह को लगा कि सिल्हादी और अधिक शक्तिशाली हो जावेगा और सुलतान के लिए भी खतरा बन सकता है. अतः उसने अपना इरादा बदल दिया और सिल्हादी को रायसेन के किले को खाली कर सौपने और वापस बरोडा जाने को कहा. सिल्हादी इसके लिए कतई तैयार नहीं था और उसके इनकार किये जाने पर बहादुर शाह द्वारा कैद कर लिया गया. सन 1532 में बहादुर शाह ने सिल्हादी को लेकर रायसेन के किले की घेराबंदी कर दी. उन दिनों किला सिल्हादी के भाई लक्ष्मण राय के कब्जे में था. महीनों की घेराबंदी से भी किले पर बहादुर शाह का अधिपत्य नहीं हो सका. सिल्हादी ने बहादुर शाह से स्वयं अकेले किले में प्रवेश कर अपने भाई को समझाने की पेशकश की और इस प्रस्ताव को मान लिया गया. सिल्हादी किले में प्रवेश कर गया. किले में दोनों भाई गले मिले और उपलब्ध विकल्पों पर विचार किया. रसद की कमी थी और अधिक समय तक शत्रु को रोके रखना संभव नहीं दिख रहा था. सिल्हादी की पत्नी दुर्गावती ने भी जौहर की तैय्यारी कर ली. वह अपने पुत्र वधु (राणा सांगा की बेटी) और उसके दो बच्चों समेत चिता में कूद पड़ी. ७०० अन्य महिलाओं ने भी उनका साथ दिया. सिल्हादी अपने भाई और किले में उपलब्ध सैनिकों के साथ शस्त्र धारण कर सुलतान की सेना से भिड गया. किले की तलहटी में ही दोनों वीर गति को प्राप्त हुए. संभवतः बहादुर शाह किले को पूरनमल के आधीन छोड़ गया था क्योंकि सन 1543 में शेर शाह सूरी ने पूरनमल से इस किले को छीन लिया था. सन 1760 से यह किला भोपाल के नवाबों के आधीन रहा.
रायसेन किले के अन्दर जो भवन हैं उनमे बादल महल, रोहिणी महल, इत्रदान महल और हवा महल प्रमुख हैं. ऊपर ही १२ वीं सदी के एक शिव मंदिर के होने की भी पुष्टि होती है जिसके पट वर्ष में एक बार शिव रात्रि के दिन खोले जाते हैं. लोहे के दरवाज़े (ग्रिल गेट) में मन्नत मांगते हुए रंगीन कपडे या धागे को बाँधने की परंपरा बन गयी है. कुछ लोग तो प्लास्टिक की पन्नियों को ही बाँध जाते हैं.
उसी पहाड़ी से लगी हुई कई गुफाएं भी हैं जिनमें भीमबैठका की तर्ज पर शैल चित्र पाए जाते हैं. किला वैसे तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में ले लिया गया है परन्तु किले के उद्धार के प्रति पूर्ण उदासीनता बनी रही. सुना है कि किले तक पहुँच मार्ग निर्मित हो चुका है और अभी कुछ दिनों पूर्व अख़बारों से अवगत हुए कि राज्य शासन ने किले को एक पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने हेतु पर्यटन निगम से प्रस्ताव आमंत्रित किये हैं.
नोट: श्री रवीश व्यास जी ने इन सुन्दर चित्रों को उपलब्ध कराकर प्रेरित किया