अवसर था मेरे एक भतीजे का उपनयन संस्कार. हम छै भाईयों में नीचे से दूसरे पायदान पर एक भाई कोच्ची के जहाजरानी निगम में कार्यरत है. उसे मालूम था कि हम गर्मियों में यात्रा नहीं करते परन्तु हमसे भी रहा नहीं गया. प्यार से बुलाया है तो जाना ही पड़ेगा भले हम अपनी सहधर्मिणी को न ले पायें क्योंकि उनकी तो टांग टूटी थी. बा मुश्किल वाकर के सहारे चल पा रहीं हैं . चूंकि इतल्ला पहले से ही कर दिया गया था, हम ने हिम्मत कर अपने लिए वातानुकूलित शयनयान में टिकट करा ली थी. हमारे लिए एक आकर्षण भी था. उपनयन संस्कार शंकराचार्य जी की जन्म स्थली “कालडि” में और उनके ही संस्थान में आयोजित किया गया था.
हम सभी भाई बहन एवं और उन सब का परिवार पलियाकरा में एकत्रित हुआ था. उसी दिन शाम हम लोगों को कालडि के लिए निकलना भी था. उपनयन तो ५ तारीख को होना था परन्तु एक दिन पूर्व अर्थात ४ तारीख के लिए एक विशेष धार्मिक अनुष्ठान आयोजित था. इसे हमलोग नांदी श्राद्ध कहते हैं. पूर्वजों के आशीष के लिए यह आयोजन है. इसलिए हम सब एक बस और सुमो में लद कर शाम होते होते कालडि पहुँच गए. यहीं रास्ते में ही हमें एक आठ मंजिला गोलाकार भवन दिख गया जिसे कीर्ति स्तम्भ कहते है. इसे कांची कामकोटी मठ, कांचीपुरम द्वारा निर्मित किया गया था. ऊपर जाने के लिए गोलाई लिए सीढियां बनी है और शंकराचार्य के जीवन से सम्बंधित चित्रों से दीवार को सजाया गया है. हम तो गर्मी से त्रस्त थे. ४२ डिग्री, फिर पसीने की बौछार. वहां के लोगों का कहना था कि ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ है. आश्रम परिसर में ही आदि शंकरा न्यास के अतिथि गृह में जगह बुक कराई गयी थी और हमारे प्रिय भाई ने एक वातानुकूलित कमरे की चाभी हमें पकड़ा दी.
हमने अपना और दूसरों का भी सामान आदि कमरे में रखवा कर एक भतीजे और भांजी को साथ ले पास ही बहने वाली पेरियार (पूर्णा) नदी की तरफ चले गये. कालडि में (पहले यह शालका ग्रामम के नाम से जाना जाता था) शिवगुरु एवं आर्याम्बा का ब्राह्मण परिवार रहता था. वर्षों वे निस्संतान रहे. थ्रिस्सूर नगर के बीच बने वडकुनाथन (शिव) मंदिर में आराधना उपरांत उन्हें सन ७८८ ईस्वी में एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम शंकर रखा गया. शंकर के बालकाल में ही पिता स्वर्गवासी हो गये. कालडि का सीधा सा मतलब है “कदमों के तले”. इसके लिए एक रोचक किस्सा भी है. बालक शंकर की माता आर्याम्बा प्रति दिवस प्रातः पेरियार नदी में नहाने जाया करती जो उन दिनों उनके घर से लगभग ३ किलोमीटर की दूरी पर थी. एक दिन अपने बालक को साथ ले जब नदी की ओर जा ही रही थी कि वह मूर्छित हो गिर पड़ी. बालक शंकर से यह सहा नहीं गया. उसने पूरी श्रद्धा से अपने कुलदेव श्री कृष्ण से सहायता मांगी. श्री कृष्ण बालक शंकर की भक्ति से द्रवित हो, आश्वस्त किया कि चिंता मत करो, यह नदी तुम्हारे “कदमों के तले” बहेगी. वही हुआ भी. नदी ने अपना रास्ता बदल लिया और शंकर के घर से लग कर बहने लगी. नदी के बीच एक द्वीप दिखाई देता है. संभवतः यह नदी के दो भागों में बंट कर बहने से बना होगा.
पेरियार (पूर्णा) नदी
नदी जाने वाले मार्ग पर ही वह प्राचीन श्री कृष्ण मंदिर भी पड़ता है. बाहर से ही देखते हुए हम लोग आगे बढ़ गए. फिर उसी के पास एक वेद पाठशाला थी, गुरुकुल जैसी, जहाँ बालक एवं युवा अध्ययन में रत थे. अब तो नदी दिख भी रही थी और एक सूचना फलक भी जो बता रहा था कि यह मगरमच्छ घाट है. कहते हैं कि १६ वर्ष की आयु में ही शंकर वेदांती बन चुका था. उसने अपनी माता से संन्यास ग्रहण करने की अनुमति मांगी थी. माता अपने पुत्र के आग्रह को टाल गयी, अनुमति कैसे दे देती. परन्तु एक दिन नहाते समय शंकर को एक मगरमच्छ ने दबोच लिया. माता किनारे ही थी. शंकर ने चिल्लाकर कहा “माते मुझे संन्यास की अनुमति दे दे तो यह मगरमच्छ मुझे छोड़ देगा”. माता ने कोई दूसरा विकल्प न देख हामी भर दी. मगरमच्छ भी शंकर को छोड़ एक तरफ निकल गया.
शंकराचार्य जी का पारिवारिक श्री कृष्ण मंदिर
सूचना पटल
विदित हो कि इसी नदी के किनारे शंकराचार्य जी का घर था. परन्तु वास्तविक स्थल अज्ञात रहा. शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित प्रथम पीठ श्रृंगेरी (कर्णाटक) में है. २० वीं सदी के प्रारंभ में श्रृंगेरी पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य ने कालडि में पेरियार नदी के उत्तरी भाग में खोज बीन की और उन्हें एक पाषाण स्तम्भ मिला. इसके आधार पर यह निश्चित हुआ कि शंकराचार्य जी की माता का अंतिम संस्कार उसी जगह किया गया था. उनका घर भी वहीँ था क्योंकि उन दिनों मृतकों का दाह संस्कार घर के दक्षिण भाग में ही कर दिया जाता था. घरों के चारों तरफ का भूभाग भी काफी फैला हुआ होता था. यदा कदा आजकल भी यह परंपरा दिखाई पड़ जाती है.
द्वार के बगल भित्ति चित्र
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित कर्णाटक के श्रृंगेरी पीठ ने ही शंकराचार्य जी के मूल निवास की जगह एक भव्य एवं सुन्दर मंदिर समूह तथा आश्रम का निर्माण कराया है. मंदिर के मुख्य द्वार के अगल बगल भित्ति चित्र बने हैं जो शंकराचार्य जी के जीवन से जुडी घटनाओं पर आधारित है. मुख्य द्वार के छत के अंदरूनी भाग में उस समय भी चित्रांकन का कोई कार्य चल रहा था. अन्दर प्रवेश करने पर एक बरामदा है. सीधे आगे खुला प्रांगण जिसमे एक सुन्दर बगिया है.
बगिये के बीच एक बड़ा हौज जिसमें दो तीन रंगों के मन मोहक कमल खिले हुए थे.बरामदे से होकर बायीं तरफ जाएँ तो वहां माँ शारदा का मंदिर है जिसके सामने एक बड़ा सा हाल. यहाँ संगीत आदि के कार्यक्रम होते रहते हैं. हाल के अंत से एक और बरामदा जो मंदिर के दायें बने दूसरे हाल
को जोड़ता है. बायीं तरफ ही बरामदे से लगी शंकराचार्य जी की माता अर्याम्बा की समाधी है जिसके सामने प्राचीन पाषाण स्तम्भ है.
माता अर्याम्बा की स्मृति में – प्राचीन स्तम्भ अपने मूल स्थान में
दाहिने हाल में प्रवेश के पूर्व एक कोने में गणेश जी का एक छोटा मंदिर है और मंदिर के सामने हवन कुण्ड बना है. दाहिने हाल से जुड़ा हुआ एक और मंदिर है जिसमें शंकराचार्य जी विराजमान हैं. पूरा परिसर एकदम साफ़ सुथरा. यहाँ प्रवेश के लिए धर्म या जाति आधारित किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है. आश्रम परिसर के ही वेद पाठशाला में अध्ययन रत सन्यासियों द्वारा वहां के मंदिरों में प्रातः एवं संध्या आरती के समय सामूहिक वेद पाठ किये जाने की परंपरा भी है और उस समय वहां उपस्थित रहना एक विशेष अनुभव रहेगा.
हमने पाया कि दिन ढलते ही कई बसें पर्यटकों को लेकर आती है और उनमें कर्णाटक तथा महाराष्ट्र के लोग अधिक होते हैं. वहीँ खाना बनवाते है जिसके लिए सामग्री और कारीगर साथ आये होते हैं. रात को कमरे मिल गए तो ठीक नहीं तो बाहर बने होमिओपेथिक क्लिनिक के अन्दर और बरामदों में विश्राम करते हैं. रात की आरती में भाग लेते हैं और प्रातःकाल नदी में नहा धो कर पुनः दर्शन आदि कर लौट पड़ते हैं. वहां पर खाने पीने की समुचित व्यवस्था नहीं है. मात्र एक दूकान है जहाँ चाय/कोफी, ठंडा पानी, बोतल बंद पेय तथा स्नेक्स उपलब्ध रहता है. दूकान सुबह १० बजे के बाद ही खुलती है और रात ८ बजे बंद भी हो जाती है. शहर लगभग २ किलोमीटर दूर है. परन्तु वहां के शांत वातावरण में एक दिन रुकना आनंद दायक रहता है. कुछ वृद्ध दम्पति तो यहाँ स्थाई रूप से निवास कर रहे हैं. उनके लिए आवासीय परिसर अलग से है. वे अपनी सेवाएं मंदिर संचालन के लिए देते हैं.
रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित अद्वैत आश्रम भी कालडी में कार्यरत है. उसका भवन बांगला शैली में बना है. आदि शंकर न्यास के द्वारा कई महाविद्यालय (अभियांत्रिकी सहित) एवं स्कूलों का संचालन किया जाता है. कालडी में ही श्री शंकरा संस्कृत विश्वविद्यालय भी है जहाँ संस्कृत के अतिरिक्त रंगमंच, नृत्य, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, विभिन्न भारतीय भाषाओँ आदि के अध्ययन और शोध की सुविधा उपलब्ध है.
एर्नाकुलम (कोच्ची) से कालडी की दूरी मात्र २८ किलोमीटर है. कोच्ची के हवाई अड्डे से तो यह केवल ६ किलोमीटर पर है. एर्नाकुलम जाने वाले मुख्य रेल मार्ग पर अन्गामाली नामका स्टेशन पड़ता है. यहाँ से कालडी मात्र १० किलोमीटर पर है. बस अथवा टेक्सी की कोई कमी नहीं है.
यहाँ चटका लगाकर कालडी का विहंगम दृश्य गूगल के सौजन्य से देख सकते हैं.