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उदयगिरी (विदिशा)

मई 10, 2010

अपनी कार से एक रविवार परिवार सहित निकल पड़े थे, विदिशा के करीब उदयगिरी के लिए. दूरी लगभग ६० किलोमीटर. नाश्ता आदि से निपट कर निकलना हुआ था और चूंकि पूरा परिवार था, विलम्ब तो होना अवश्यम्भावी था.  भरी दुपहरी में पहुंचना हुआ. विदिशा तो जाने की आवश्यकता नहीं थी. शहर या यों कहें बस्ती के पहले ही रेलवे पुल के अंडर ब्रिज को पार करने के बाद बायीं तरफ का रास्ता सीधे उदयपुर जाता  है. बीच में एक मोड़ आती है, बायीं तरफ, फिर एक सकरी परन्तु अच्छी सड़क उदयगिरी को जाती है. इस जगह को हमने पूर्व में भी देखा था. परन्तु परिवार समेत जाने का आनंद या कष्ट कुछ और ही होता है. किसी और के लिए गाईड  बनना बहुत ही आनंद दायक होता है परन्तु पत्नी के लिए कतई नहीं.

उदयगिरी तो विदिशा के बहुत करीब ही है. हमारे अनुमान से लगभग ४ किलोमीटर. कुछ देर में ही  सामने  पहाड़ी दिख रही थी. वहीँ से पहाड़ पर तराश कर बनाये गए निर्माण भी दिख ही रहे थे. यहाँ पहुँचने पर एक बार फिर बायीं ओर मुड़ना पड़ता है. पहाड़ के तलहटी से सड़क जाती है. पहाड़ के सामने पहुँच कर हमने गाडी रोक दी.  यहाँ कुल २०  गुफानुमा कक्ष हैं जिनमे से क्रमांक १५ और १६ जैनिओं के हैं. उन्हें बंद रखा गया है क्योंकि वहां के छत  का कोई भरोसा नहीं है.  वैसे तो सभी कक्ष बंद ही थे और एक बालक को भिजवा कर चौकीदार को बुलवाना  पड़ा था. पहाड़ी बलुआ पत्थर  की है और १५०० वर्षों के क्षरण ने वहां की कलात्मकता को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है. रहा सहा कार्य हमारी उपेक्षा ने कर दिया है. यहाँ का निर्माण चौथी/पांचवीं  सदी का माना जाता है क्योंकि यहाँ के मंदिरों में गुप्त कालीन चन्द्र गुप्त -II तथा समुद्र गुप्त के लेख खुदे हैं. अतः यह स्थल गुप्त वंश के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है. साथ ही उनके द्वारा यहाँ किया गया उपक्रम स्थानीय जन समुदाय में वैदिक धर्म के प्रचार हेतु किया गया माना जाता है. यह क्षेत्र बौद्ध धर्म से सिंचित हुआ था क्योंकि  अशोक, सम्राट बनने के पूर्व विदिशा में पदस्थ रहा और यहीं के एक श्रेष्ठी की पुत्री से विवाह भी किया था. आज भी प्रचुर मात्रा में बौद्ध स्मारक साँची के अतिरिक्त पूरे क्षेत्र में पाए जाते हैं.

अब हम  वहां के स्मारकों की  यात्रा प्रारंभ करते हैं. सामने ही दाहिनी  तरफ पहाड़ को तराश कर बनाये गए तीन अलंकार विहीन आले (कक्ष कह लें परन्तु ज्यादा गहरे नहीं हैं) दिखते हैं. इन्हें गुफा क्रमांक १ दर्शाया गया है.  कुछ विद्वानों का कहना है कि यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की स्थापना होनी थी, परन्तु अधूरी रह गयी. यह बड़ा भ्रामक है. यहाँ के सभी तथाकथित गुफाओं में पहाड़ को तराश कर ही मूर्तियाँ बनायीं गयी हैं. अलग पाषाण पिंड को मूर्त रूप अपवाद स्वरुप शिव लिंगों में  दिखता है. गुफाओं का जो क्रम दर्शाया गया है वह भी विवादित  है. इसके पूर्व के अन्वेषण में हमने कई बिखरी हुई जैन धर्म से सम्बंधित प्रतिमाओं को देखा था.  संभवतः वे प्रतिमाएं इन आलों में रही होंगी जिन्हें हटाकर दूर फ़ेंक दिया गया. (ऐसा सब हमारे यहाँ होता रहा है).  यह संरचना परावर्ती प्रतीत होती  है.

किसी भी कार्य के प्रारंभ में हमारे यहाँ गणेशजी के स्तुति का विधान है.  जब हम आगे बढ़ते हैं तो पुनः एक आले में, जो अधिक गहरा नहीं हैं, पहाड़ को तराश कर ही गणेश जी की मूर्ती बनी है. अत्यधिक क्षरण के कारण हम सूंड और पेट से ही पहचान पाते हैं. यह वहां का क्रमांक २ है. जब की वास्तव में यह पहला होना चाहिए. भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में यहाँ के गणेश (थोडा आगे जाने पर गुफा क्रमांक १७ की वाह्य दीवार पर एक और भी बनी है) प्राचीनतम माने गए हैं. क्रमांक ३ में पहाड़ को तराश कर मंदिर का गर्भ गृह बनाया गया है. द्वार अलंकरण युक्त है परन्तु अत्यधिक क्षतिग्रस्त.  अन्दर कार्तिकेय विराजमान हैं.

अगला कक्ष (गुफा क्रमांक ४) भी एक मंदिर है. सामने दीवार पर दरवाज़े के अगल बगल   द्वारपाल और उनके  दो खम्बे तराशे गए हैं. यहाँ का अलंकरण भी क्षतिग्रस्त है. यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण और सुन्दर  कलाकृति एक मुखी शिवलिंग है जिसका केश विन्यास मनोहारी है. गंगा जी को रोकने का प्रयास शिल्पी ने साकार किया है, ऐसी मान्यता है.

गुफा क्रमांक ५ जो वास्तव में गुफा नहीं है, शैलाश्रय जैसा है और यहाँ शिल्पांकन हुआ है विष्णु के वराह अवतार का. इसकी ऊँचाई १३ फीट है और संभवतः यह भारत में बने सभी वराह की मूर्तियों में सबसे बड़ी है. उदयगिरी  में इस  जगह का रोमांच,  कुछ अधिक देखने समझने का मन बनाता  है. वराह द्वारा भू  देवी के  उद्धार   की पौराणिक मान्यता को शिल्पी ने उस चट्टान पर शिल्प रूप में मानो कविता लिखी हो. शेषनाग हाथ जोड़े और उसके  सीने में बाएं पैर को रखे हुए, दाहिने पैर को धरातल पर मजबूती से रख,  सीना ताने, मुह में भू देवी को उठाये, बायाँ हाथ बाएं जंघे पे और दाहिना हाथ कमर पर, वराह को चित्र पटल की बायीं ओर दर्शाया गया है. एकदम ऊपर दाहिनी तरफ ब्रह्मा, फिर हाथी पे सवार इंद्र और अन्य देवता. पटल में कई देवी देवताओं, ऋषि मुनियों को दर्शाया है. विष्णु द्वारा भू देवी के  उद्धार के दृश्य को ये सभी देवी देवता प्रत्यक्ष देख रहे हैं. चन्द्रगुप्त II ने अपना स्थान शेषनाग के पीछे ग्रहण किया हुआ है. वराह का ऐसा विराट एवं विहंगम शिल्पांकन अन्यत्र नहीं देखा जा सकता.

गुफा क्रमांक ६ का यह चित्र यहाँ से लिया गया है

गुफा क्रमांक ६ : इस मंदिर के निर्माण के लिए काफी अन्दर तक खुदाई की गयी है. अगल बगल भी दीवार है परन्तु दाहिनी ओर एक छोटा हाल नुमा कक्ष है. मंदिर के दरवाजे के अगल बगल गंगा और यमुना को दर्शाया गया है. यहाँ विष्णु, वराह, दुर्गा तथा महिषासुर मर्दिनी भी उकेरे गए हैं. हाथ में फरसा लिए अजीबो गरीब केश विन्यास वाले दो शिल्प भी हैं. यहाँ की दीवार पर चन्द्रगुप्त ई (सन 382 –401) का एक उत्कीर्ण लेख है जो बताता है की यह मंदिर शम्भू को समर्पित है.

गुफा क्रमांक ७ कोई ख़ास नहीं है. दरवाज़े के बाहर दो द्वारपाल दिख रहें है और अन्दर विष्णु. गुफा क्रमांक ८ के कक्ष में विष्णु की प्रतिष्ठा है. यहाँ तो द्वारपाल भी नहीं है. गुफा क्रमांक ९ के अन्दर भी विष्णु ही विराजमान है परन्तु बाहर दो क्षतिग्रस्त द्वारपालों की पदस्थी है. १०, ११ और १२ क्रमांकों से युक्त सभी कक्षों ने हमें आकर्षित नहीं किया.  वे हमें साधारण प्रतीत हुए. हाँ क्रमांक १३ पर शेषाशायी विष्णु हैं. भले इस मूर्ती में क्षरण हो गया हो परन्तु है विलक्षण. विष्णु की शैय्या स्वरूप शेषनाग का शिल्प अनूठा है. यहाँ खड़े हो अचानक हमने अपनी बाईं तरफ झाँका तो  हमें पता चला कि एक सकरे रास्ते हम लोग पहाड़ी के ऊपर पहुँच गए थे. टूटी फूटी सीढयों नीचे जा रहीं थीं. निश्चित ही विष्णु के वराह अवतार के शिल्पांकन ने हम सब को सम्मोहित कर लिया था और सुध बुध खो बैठे थे.

क्रमांक १४ भी यहीं है परन्तु समझ में ही नहीं आता कि यहाँ क्या था. अब फिर नीचे उतर आये और  गुफा क्रमांक १९ को ढूँढ निकाला.  यह एक शिव मंदिर है. मंदिर  के द्वार के अगल बगल गंगा यमुना के अतिरिक्त छोटी छोटी कई मूर्तियाँ बनी हैं. द्वार के ऊपर समुद्र मंथन दर्शित है जो कभी बहुत जीवंत रहा होगा. अन्दर कई शिव लिंग हैं. अन्य बचे हुए गुफाओं को देखने की चाहत हमारे लोगों को नहीं थी. उनका कहना था कि सभी एक जैसे तो हैं.

पहाड़ी के ऊपर समतल भूमि है जहाँ एक छोटी बगिया बनायीं गयी है. इस भू भाग से मौर्य, नाग आदि शासकों के पुरावशेष प्राप्त हुए थे. समझा जाता है कि ईसा पूर्व से ही यह स्थल खगोलीय आन्वेषणों के लिए प्रयुक्त हुआ करता था.

यहाँ से हम लोग एक अन्य महत्वपूर्ण स्थल बेस नगर के लिए निकल पड़े.

कांचीपुरम – कैलाशनाथ का मंदिर.

मई 3, 2010

भारत में सतवाहन राज वंश की शक्ति क्षीण होनेपर   दक्षिण में पल्लवों के रूप में एक नयी शक्ति का उदय हुआ. इनके साम्राज्य में पूरा आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु का उत्तरी भाग शामिल था. इन्होने कांचीपुरम को अपनी राजधानी बनायीं और ४ थी से ९ वीं सदी तक राज किया. परन्तु इस पूरी अवधि में उत्तर के चालुक्यों एवं दक्षिण के चोल तथा पंडय राजाओं से वे संघर्षरत रहे. पल्लवों के काल में वास्तुकला, साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में अप्रतिम प्रगति हुई. दक्षिण पूर्व एशिया  में भारतीय संस्कृति के उन्नयन में पल्लवों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. इन्हीं के काल में कांचीपुरम भी तमिल, तेलुगु एवं संस्कृत की शिक्षा का एक बड़ा केंद्र बना. प्रारंभिक पल्लव अपने आपको ब्रह्म क्षत्रिय कहलाना पसंद करते थे. अर्थात ब्राह्मण  जिन्होंने शस्त्र धारण किया.  लेकिन कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि संभवतः इनका सम्बन्ध इरान के पहल्वों से था जो कृष्णा नदी के मैदानी भाग में कभी आ बसे होंगे. ५००  वर्षों  के उनके राजकाल में वैसे तो कई प्रतापी शासक हुए परन्तु साम्राज्य को उंचाईयों में पहुँचाने का काम महेन्द्रवर्मन १ (५७१ – ६३० ईसवी) एवं नरसिम्हवर्मन  १ (६३० – ६६८ ईसवी) ने किया.

मंदिरों के स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से पल्लवों का काल महत्वपूर्ण रहा है. उस काल के स्थापत्य के दो स्वरुप दिखते हैं.प्रारंभ के निर्माण चट्टानों को तराश कर बनाये गए मंदिर आदि हैं. इसका सर्वोत्तम उदाहरण महाबलीपुरम में दृष्टिगोचर होता है. जिनकी कालावधि ६१० – ६९० ईसवी के बीच आंकी गयी है. वहीँ संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण सन ६९० के बाद दिखाई पड़ता है. इस काल के लगभग सभी मंदिरों में मुख्य प्रतिष्ठा भगवन शिव की रही है.

कांचीपुरम चेन्नई बंगलूरु मुख्य मार्ग पर चेन्नई से लगभग ७६ किलोमीटर की दूरी पर है. यह नगर भारत के प्राचीनतम  ७ नगरों में एक है.  ३ – २ री  सदी ईसा पूर्व भी इस नगर के अस्तित्व में होने के प्रमाण तत्कालीन बौद्ध साहित्य में मिलते हैं. यहाँ पर १००० मंदिरों के होने की बात कही गयी है. यहाँ के प्रमुख मंदिरों में प्राचीनतम “कैलाशनाथ” या तामिल में कहें तो कैलाशनाथर (“जी” के एवज में है “र”)  का मंदिर है. यह मंदिर शहर से लगभग २ किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में है और वहां जाने के लिए ऑटो या टेक्सी आसानी से मिल जाता है. इस मंदिर को नरसिम्हवर्मन II, जो राजसिम्हा के नाम से भी जाना जाता था, के द्वारा ८ वीं सदी के पूर्वार्ध में अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए बनवाया गया था. मंदिर की दीवार में उत्कीर्ण ग्रन्थ लिपि के लेख में नरसिंहवर्मन   द्वारा ग्रहण किये गए विभिन्न उपाधियों का उल्लेख है. इस मंदिर की बनावट महाबलीपुरम के समुद्र तट पर बने  मंदिर से मेल खाती है, क्योंकि उसे  भी  राजसिम्हा के  द्वारा ही बनवाया गया था.

???????????????????????????????वैसे तो यह मंदिर भगवान् शिव को अर्पित है परन्तु विष्णु सहित अन्य  देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी मंदिर के गर्भ गृह के बाहर स्थापित हैं. गर्भ गृह का चक्कर लगाने के लिए एक संकीर्ण गलियारा है जिसका प्रवेश बिंदु जन्म और निकास मृत्यु का पर्याय माना जाता है. जितने अधिक बार आप प्रवेश कर बाहर निकलेंगे उतने ही आप मोक्ष के करीब पहुंचेंगे. यह मंदिर मूर्तियों का खजाना है  और सभी मूर्तियों की कलात्मकता बेजोड़ है. भगवान् शिव को ही ६४ विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ इसी एक मंदिर में देखा जा सकता है. इस मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि मंदिर चारों ओर से ५८ छोटे छोटे मंदिरों  से घिरा है जिनमें विभिन्न उप देवी/देवताओं को स्थान दिया गया है.

मंदिर के अन्दर परिक्रमा पथIMG_2143


स्थापत्य के दृष्टिकोण से इस मंदिर की महत्ता अतुलनीय है और लोग इसका रसास्वादन करने के लिए ही यहाँ आते है. एक धार्मिक स्थल के रूप में स्थानीय लोगों के बीच भी यह अधिक लोकप्रिय नहीं है अतः मंदिर में दर्शकों की भीड़ नहीं रहती. हाँ शिवरात्रि के दिन यह मंदिर अवश्य ही  विभिन्न आयोजनों का केंद्र बन जाता है.

कहते हैं कि महाप्रतापी चोल राजा, राजा राजा चोल  ने इस मंदिर के दर्शन किये थे. इस मंदिर से ही प्रेरणा लेकर तंजाऊर में भव्य ब्रिह्देश्वर के मंदिर का निर्माण करवाया था.