अपनी कार से एक रविवार परिवार सहित निकल पड़े थे, विदिशा के करीब उदयगिरी के लिए. दूरी लगभग ६० किलोमीटर. नाश्ता आदि से निपट कर निकलना हुआ था और चूंकि पूरा परिवार था, विलम्ब तो होना अवश्यम्भावी था. भरी दुपहरी में पहुंचना हुआ. विदिशा तो जाने की आवश्यकता नहीं थी. शहर या यों कहें बस्ती के पहले ही रेलवे पुल के अंडर ब्रिज को पार करने के बाद बायीं तरफ का रास्ता सीधे उदयपुर जाता है. बीच में एक मोड़ आती है, बायीं तरफ, फिर एक सकरी परन्तु अच्छी सड़क उदयगिरी को जाती है. इस जगह को हमने पूर्व में भी देखा था. परन्तु परिवार समेत जाने का आनंद या कष्ट कुछ और ही होता है. किसी और के लिए गाईड बनना बहुत ही आनंद दायक होता है परन्तु पत्नी के लिए कतई नहीं.
उदयगिरी तो विदिशा के बहुत करीब ही है. हमारे अनुमान से लगभग ४ किलोमीटर. कुछ देर में ही सामने पहाड़ी दिख रही थी. वहीँ से पहाड़ पर तराश कर बनाये गए निर्माण भी दिख ही रहे थे. यहाँ पहुँचने पर एक बार फिर बायीं ओर मुड़ना पड़ता है. पहाड़ के तलहटी से सड़क जाती है. पहाड़ के सामने पहुँच कर हमने गाडी रोक दी. यहाँ कुल २० गुफानुमा कक्ष हैं जिनमे से क्रमांक १५ और १६ जैनिओं के हैं. उन्हें बंद रखा गया है क्योंकि वहां के छत का कोई भरोसा नहीं है. वैसे तो सभी कक्ष बंद ही थे और एक बालक को भिजवा कर चौकीदार को बुलवाना पड़ा था. पहाड़ी बलुआ पत्थर की है और १५०० वर्षों के क्षरण ने वहां की कलात्मकता को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है. रहा सहा कार्य हमारी उपेक्षा ने कर दिया है. यहाँ का निर्माण चौथी/पांचवीं सदी का माना जाता है क्योंकि यहाँ के मंदिरों में गुप्त कालीन चन्द्र गुप्त -II तथा समुद्र गुप्त के लेख खुदे हैं. अतः यह स्थल गुप्त वंश के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है. साथ ही उनके द्वारा यहाँ किया गया उपक्रम स्थानीय जन समुदाय में वैदिक धर्म के प्रचार हेतु किया गया माना जाता है. यह क्षेत्र बौद्ध धर्म से सिंचित हुआ था क्योंकि अशोक, सम्राट बनने के पूर्व विदिशा में पदस्थ रहा और यहीं के एक श्रेष्ठी की पुत्री से विवाह भी किया था. आज भी प्रचुर मात्रा में बौद्ध स्मारक साँची के अतिरिक्त पूरे क्षेत्र में पाए जाते हैं.
अब हम वहां के स्मारकों की यात्रा प्रारंभ करते हैं. सामने ही दाहिनी तरफ पहाड़ को तराश कर बनाये गए तीन अलंकार विहीन आले (कक्ष कह लें परन्तु ज्यादा गहरे नहीं हैं) दिखते हैं. इन्हें गुफा क्रमांक १ दर्शाया गया है. कुछ विद्वानों का कहना है कि यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की स्थापना होनी थी, परन्तु अधूरी रह गयी. यह बड़ा भ्रामक है. यहाँ के सभी तथाकथित गुफाओं में पहाड़ को तराश कर ही मूर्तियाँ बनायीं गयी हैं. अलग पाषाण पिंड को मूर्त रूप अपवाद स्वरुप शिव लिंगों में दिखता है. गुफाओं का जो क्रम दर्शाया गया है वह भी विवादित है. इसके पूर्व के अन्वेषण में हमने कई बिखरी हुई जैन धर्म से सम्बंधित प्रतिमाओं को देखा था. संभवतः वे प्रतिमाएं इन आलों में रही होंगी जिन्हें हटाकर दूर फ़ेंक दिया गया. (ऐसा सब हमारे यहाँ होता रहा है). यह संरचना परावर्ती प्रतीत होती है.
किसी भी कार्य के प्रारंभ में हमारे यहाँ गणेशजी के स्तुति का विधान है. जब हम आगे बढ़ते हैं तो पुनः एक आले में, जो अधिक गहरा नहीं हैं, पहाड़ को तराश कर ही गणेश जी की मूर्ती बनी है. अत्यधिक क्षरण के कारण हम सूंड और पेट से ही पहचान पाते हैं. यह वहां का क्रमांक २ है. जब की वास्तव में यह पहला होना चाहिए. भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में यहाँ के गणेश (थोडा आगे जाने पर गुफा क्रमांक १७ की वाह्य दीवार पर एक और भी बनी है) प्राचीनतम माने गए हैं. क्रमांक ३ में पहाड़ को तराश कर मंदिर का गर्भ गृह बनाया गया है. द्वार अलंकरण युक्त है परन्तु अत्यधिक क्षतिग्रस्त. अन्दर कार्तिकेय विराजमान हैं.
अगला कक्ष (गुफा क्रमांक ४) भी एक मंदिर है. सामने दीवार पर दरवाज़े के अगल बगल द्वारपाल और उनके दो खम्बे तराशे गए हैं. यहाँ का अलंकरण भी क्षतिग्रस्त है. यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण और सुन्दर कलाकृति एक मुखी शिवलिंग है जिसका केश विन्यास मनोहारी है. गंगा जी को रोकने का प्रयास शिल्पी ने साकार किया है, ऐसी मान्यता है.
गुफा क्रमांक ५ जो वास्तव में गुफा नहीं है, शैलाश्रय जैसा है और यहाँ शिल्पांकन हुआ है विष्णु के वराह अवतार का. इसकी ऊँचाई १३ फीट है और संभवतः यह भारत में बने सभी वराह की मूर्तियों में सबसे बड़ी है. उदयगिरी में इस जगह का रोमांच, कुछ अधिक देखने समझने का मन बनाता है. वराह द्वारा भू देवी के उद्धार की पौराणिक मान्यता को शिल्पी ने उस चट्टान पर शिल्प रूप में मानो कविता लिखी हो. शेषनाग हाथ जोड़े और उसके सीने में बाएं पैर को रखे हुए, दाहिने पैर को धरातल पर मजबूती से रख, सीना ताने, मुह में भू देवी को उठाये, बायाँ हाथ बाएं जंघे पे और दाहिना हाथ कमर पर, वराह को चित्र पटल की बायीं ओर दर्शाया गया है. एकदम ऊपर दाहिनी तरफ ब्रह्मा, फिर हाथी पे सवार इंद्र और अन्य देवता. पटल में कई देवी देवताओं, ऋषि मुनियों को दर्शाया है. विष्णु द्वारा भू देवी के उद्धार के दृश्य को ये सभी देवी देवता प्रत्यक्ष देख रहे हैं. चन्द्रगुप्त II ने अपना स्थान शेषनाग के पीछे ग्रहण किया हुआ है. वराह का ऐसा विराट एवं विहंगम शिल्पांकन अन्यत्र नहीं देखा जा सकता.
गुफा क्रमांक ६ का यह चित्र यहाँ से लिया गया है
गुफा क्रमांक ६ : इस मंदिर के निर्माण के लिए काफी अन्दर तक खुदाई की गयी है. अगल बगल भी दीवार है परन्तु दाहिनी ओर एक छोटा हाल नुमा कक्ष है. मंदिर के दरवाजे के अगल बगल गंगा और यमुना को दर्शाया गया है. यहाँ विष्णु, वराह, दुर्गा तथा महिषासुर मर्दिनी भी उकेरे गए हैं. हाथ में फरसा लिए अजीबो गरीब केश विन्यास वाले दो शिल्प भी हैं. यहाँ की दीवार पर चन्द्रगुप्त ई (सन 382 –401) का एक उत्कीर्ण लेख है जो बताता है की यह मंदिर शम्भू को समर्पित है.
गुफा क्रमांक ७ कोई ख़ास नहीं है. दरवाज़े के बाहर दो द्वारपाल दिख रहें है और अन्दर विष्णु. गुफा क्रमांक ८ के कक्ष में विष्णु की प्रतिष्ठा है. यहाँ तो द्वारपाल भी नहीं है. गुफा क्रमांक ९ के अन्दर भी विष्णु ही विराजमान है परन्तु बाहर दो क्षतिग्रस्त द्वारपालों की पदस्थी है. १०, ११ और १२ क्रमांकों से युक्त सभी कक्षों ने हमें आकर्षित नहीं किया. वे हमें साधारण प्रतीत हुए. हाँ क्रमांक १३ पर शेषाशायी विष्णु हैं. भले इस मूर्ती में क्षरण हो गया हो परन्तु है विलक्षण. विष्णु की शैय्या स्वरूप शेषनाग का शिल्प अनूठा है. यहाँ खड़े हो अचानक हमने अपनी बाईं तरफ झाँका तो हमें पता चला कि एक सकरे रास्ते हम लोग पहाड़ी के ऊपर पहुँच गए थे. टूटी फूटी सीढयों नीचे जा रहीं थीं. निश्चित ही विष्णु के वराह अवतार के शिल्पांकन ने हम सब को सम्मोहित कर लिया था और सुध बुध खो बैठे थे.
क्रमांक १४ भी यहीं है परन्तु समझ में ही नहीं आता कि यहाँ क्या था. अब फिर नीचे उतर आये और गुफा क्रमांक १९ को ढूँढ निकाला. यह एक शिव मंदिर है. मंदिर के द्वार के अगल बगल गंगा यमुना के अतिरिक्त छोटी छोटी कई मूर्तियाँ बनी हैं. द्वार के ऊपर समुद्र मंथन दर्शित है जो कभी बहुत जीवंत रहा होगा. अन्दर कई शिव लिंग हैं. अन्य बचे हुए गुफाओं को देखने की चाहत हमारे लोगों को नहीं थी. उनका कहना था कि सभी एक जैसे तो हैं.
पहाड़ी के ऊपर समतल भूमि है जहाँ एक छोटी बगिया बनायीं गयी है. इस भू भाग से मौर्य, नाग आदि शासकों के पुरावशेष प्राप्त हुए थे. समझा जाता है कि ईसा पूर्व से ही यह स्थल खगोलीय आन्वेषणों के लिए प्रयुक्त हुआ करता था.
यहाँ से हम लोग एक अन्य महत्वपूर्ण स्थल बेस नगर के लिए निकल पड़े.
मई 10, 2010 को 7:43 पूर्वाह्न
आदरणीय सुब्रमनियन जी
लगता है नेट या बिजली जैसी कोई समस्या रही होगी वर्ना आपके आलेख में टंकण और वाक्य विन्यास की त्रुटियां देखीं नहीं कभी …शायद इसीलिये आलेख पढ़ते हुए खटक सी बनी रही ! आपकी चिरपरिचित शैली की कमी महसूस हुई ! चित्र और विषय सामग्री अच्छे हैं ! …और भला वर्षों बाद भाभी के गाइड बने रहने में आपको दिक्कत क्या हुई 🙂
मई 10, 2010 को 10:53 पूर्वाह्न
उदयगिरी के बारे में बहुत सुंदर और चित्रमय जानकारी मिली, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
मई 10, 2010 को 1:36 अपराह्न
सुन्दर विवरण ।
मई 10, 2010 को 2:06 अपराह्न
बड़ा ही दुर्भाग्य है कि सरकार खराब चीजों को ठीक करने के स्थान पर उन्हें बन्द करना ही उचित समझती है. एक अच्छी जगह से परिचित कराने के लिये धन्यवाद..
मई 10, 2010 को 5:31 अपराह्न
क्यों इतना घूमते हैं कि जनता को ईर्ष्या हो?
बहुत सुन्दर चित्र व पोस्ट!
घुघूती बासूती
मई 10, 2010 को 6:07 अपराह्न
पहले तो आपका संदेश ही कापी पेस्ट कर रहा हूं – ‘पोस्ट की तैय्यारी थी. कॉपी पेस्ट के चक्कर में कुछ गलतियां भी हुईं. ड्राफ्ट को सुधरने का प्रयास भी किया परन्तु “सर्वर नॉट फौण्ड” का सन्देश मिलता रहा. अपडेट करते करते “पब्लिश” वाला बटन दब गया. हमें पता भी नहीं चला. आज सुबह उठकर दुबारा जब ठीक करने का प्रयास कर ही रहा था समझ में आया कि यह तो प्रकाशित भी हो गया है. उसपर टिपण्णी भी आ गयी.’
फिर आगे कुछ बात अपनी तरु से – शिलोत्खात और संरचनात्मक वास्तु का समन्वय शायद गुफा क्र. 1 अपने किस्म का अनूठा उदाहरण है. बेसनगर और गरुड़ स्तंभ की तो बात ही क्या है. हां अशोक की एक पत्नी विदिशा के नगर श्रेष्ठी की पुत्री, श्रीदेवी नाम याद आता है, थी. कृपया संपादित कर पुनःप्रकाशित करें या अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा.
मई 10, 2010 को 6:46 अपराह्न
आप भारत के कोने कोने में अपने साथ हम पाठकों को भी ले चलते हैं और सचित्र विवरण से लगता है हमने भी इन अनदेखे स्थानों का इतिहास काल जी लिया –
– आभार और आप अपनी यात्राओं को पुस्तक रूप में कब प्रकाशित करवा रहे हैं ? अवश्य करें
– लावण्या
मई 10, 2010 को 6:59 अपराह्न
उदयगिरी के बारे में बहुत सुंदर जानकारी मिली
मई 10, 2010 को 8:10 अपराह्न
बहुत सुंदर चित्र, ओर यात्रा का विवरण भी बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद
मई 10, 2010 को 8:26 अपराह्न
बहुत सुन्दर सचित्र जानकारी है |
मई 10, 2010 को 8:51 अपराह्न
सही है किसी भी दर्शनीय स्थल पर परिवार सहित जाने का आनन्द, कष्ट कुछ और ही होता है ।आपका कहना यह भी नितान्त सत्य है कि पहाड़ी बलुआ पत्थर की है और १५०० वर्षों के क्षरण ने वहां की कलात्मकता को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है. रहा सहा कार्य हमारी उपेक्षा ने कर दिया है. ।यह कहना बिल्कुल उचित है कि संभवतः वे प्रतिमाएं इन आलों में रही होंगी जिन्हें हटाकर दूर फ़ेंक दिया गया. (ऐसा सब हमारे यहाँ होता रहा है). फ़ोटो और लेख से अच्छी जानकारी मिली ।आपके लेखों से पुरातात्विक जानकारियां प्राप्त होती रहती है ।वैसे भी पुरातत्ववेता एक बहुत अच्छा पति भी होता है क्योंकि पुरातन में उसकी दिलचस्पी बढ्ती जाती है
मई 10, 2010 को 11:27 अपराह्न
अति सुंदर/पठनीय जानकारी
मई 11, 2010 को 11:05 पूर्वाह्न
उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बाल पतंग ।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ।।
क्या यह वही उदयगिरि है ?
Warm Regards and Thanks.
मई 11, 2010 को 1:32 अपराह्न
wah dada…khoob ghumaya….
मई 11, 2010 को 2:55 अपराह्न
बस जी ये समझो कि अपन भी हो आये उदयगिरी।
मई 11, 2010 को 4:16 अपराह्न
इन यात्रा विवरणों और चित्रों द्वारा हम इन सभी दर्शनीय स्थलों की सैर आप के साथ कर रहे हैं.
और आश्चर्य होता है कि कितना कुछ हमारी भारत की धरती पर है सँभालने को!
बहुत बहुत आभार इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए.
मई 11, 2010 को 6:56 अपराह्न
बहुत सुंदर।
ऐसी भूल बार-बार हो और हमें घूमने का मौका मिलता रहे।
मई 11, 2010 को 8:12 अपराह्न
शेषनाग का अनूठा शिल्प विस्मित कर गया।
मई 12, 2010 को 7:27 पूर्वाह्न
भूल से ही सही ! ऐसी भूलों के लिए भी हम तैयार बैठे हैं !
अनूठा चित्र-विवरण !
बहुत आभार इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए!
मई 12, 2010 को 2:19 अपराह्न
nice………………………………v.nice……………………………………….v.v.nice
मई 12, 2010 को 11:25 अपराह्न
जानकारी पढ कर बचपन की यादें ताज़ा हो गयी. हर महिने जाते थे लगभग पापा के साथ, क्योंकि वे उदयगिरि पर शोध पत्र तैय्यार कर रहे थे. बाद में भोपाल से पिकनिक पर भी जाते थे.
कूछ जानकारीयां मांगी गयी हैं, उसे पिताजी से पूछ कर बताऊंगा.
मई 13, 2010 को 10:02 पूर्वाह्न
@ विनय वैद्य
नहीं सर, यह तो बालकाण्ड का दोहा है. ‘उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बालसूर्य उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए’. प्रसंग सीता स्वयंबर का है, जब राम धनुष भंग के लिए खड़े हुए. इससे लगता है कि उदयगिरि तो पूर्व दिशा के अर्थ में आ रहा है.
सादर,
सुब्रमनियन
मई 14, 2010 को 11:12 पूर्वाह्न
आलेख और सभी चित्र बहुत सुन्दर लगे खासकर विष्णु शैय्या वाली फोटो।
मई 14, 2010 को 12:37 अपराह्न
“किसी और के लिए गाईड बनना बहुत ही आनंद दायक होता है परन्तु पत्नी के लिए कतई नहीं.”
जो ज़िन्दगी भर आपको गाइड करने के लिए कटिबद्ध हो, जब उसे गाइड करने की कोशिश करेंगे तो सिवा कष्ट के कुछ हासिल नहीं होगा.
वैसे उम्दा जानकारी के लिए शुक्रिया.
मई 14, 2010 को 9:01 अपराह्न
कितनी अनदेखी, अनजानी जगहों की आप हमें घर बैठे सैर करा देते हैं और आपके चित्र तो मानो लगता है हमस्वयं ही देख आये । आभार इस सुंदर पोस्ट के लिये ।
मई 15, 2010 को 3:29 अपराह्न
विदिशा और उसके आस पास के बारे में पुस्तक पढ़ी थी, उसमें श्ब्द चित्र थे, चित्र न्हीं। यह लेख तो परिपूर्ण लगा।
धन्यवाद।
मई 15, 2010 को 10:40 अपराह्न
बेहतरीन जानकारी और प्रस्तुति.
मई 24, 2010 को 12:08 अपराह्न
श्रद्धांजलि….
मंगलौर में हुए विमान हादसे ने देश ही नहीं पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है..वाकई जिन लोगों की जाने गयी हैं, उनके परिजनों पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है..इस दुख की घडी में प्रभु उन्हें शक्ति प्रदान करे…ब्लॉग जगत कि तरफ से ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मृतात्माओं को शांति मिले….हार्दिक श्रद्धांजलि….
जून 8, 2010 को 4:22 अपराह्न
आपके ब्लॉग के द्वारा भारत को देख रहा हूँ.