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पाली (छत्तीसगढ़) का शिव मंदिर

नवम्बर 13, 2010

छत्तीसगढ़  के बिलासपुर से रतनपुर होते हुए अंबिकापुर जाने वाले मार्ग पर ५० किलोमीटर दूर  उत्तरपूर्व में   एक गाँव  था पाली जो अब छोटा शहर बन गया है. इस नगर के पश्चिमी  छोर पर मनोरम वादियों में एक सुन्दर जलाशय है जिसके चारों तरफ कभी बहुत सारे मंदिर बने थे जो अब जमींदोज हो चुके हैं. एक मंदिर अब भी किनारे खड़ा है. मंदिर के सामने का महामंड़प क्षतिग्रस्त हो चला है परन्तु ढाँचे को बनाये रखने का प्रयास सीमेंट प्लास्टर से किया गया है. यह एक शिव मंदिर है जिसे महादेव का मंदिर भी कहते हैं.

मंदिर के चारों तरफ उकेरे गए शिल्प नयनाभिराम है. ऊपर की तरफ जहाँ देवी देवताओं को प्रदर्शित किया गया है वहीँ नीचे श्रृंगार रस से ओत प्रोत नायिकाओं को विभिन्न मुद्राओं में खजुराहो की तर्ज पर प्रदर्शित किया गया है.

अनुमान है कि प्रवेश द्वार से लगा एक छोटा बरामदा रहा होगा जिसके बाद ही  गुम्बद युक्त अष्ट कोणाकार  महामंड़प/सभामंड़प/जगमोहन  फिर एक अंतराल और गर्भ गृह. अन्दर की ओर से जब गुम्बद को देखते हैं तो वह कई वृत्ताकार थरों से बना है और विभिन्न आकृतियों से सजाया गया है. मंडप का आतंरिक भाग और स्तम्भ भी विभिन्न देवी देवताओं/काव्यों में वर्णित पात्रों की  कलाकृतियों से परिपूर्ण है. गर्भ गृह के द्वार का अलंकर भी अद्वतीय है.

यहाँ  यह उल्लेखनीय है की मंदिर के अन्दर “श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम”    ३  जगह खुदा हुआ है. इसके आधार पर यह माना जाता रहा कि मंदिर का निर्माण कलचुरी वंशीय यशस्वी राजा जाजल्लदेव प्रथम के समय ११ वीं सदी के अंत में हुआ होगा.  १९ वीं सदी में भारत के प्रथम पुरातात्विक सर्वेक्षक श्री कन्निंघम की भी यही धारणा रही.  परन्तु २० वीं सदी के  उत्तरार्ध में डा. देवदत्त भंडारकर जी ने मंदिर के गर्भ गृह के द्वार की गणेश पट्टी पर बहुत बारीक अक्षरों में लिखे एक लेख को पढने में सफलता पायी. इस लेख का आशय यह है कि “महामंडलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य ने  यह देवालय निर्माण कर कीर्ति दायक काम किया” भंडारकर जी को अपने शोध/अध्ययन के आधार पर मालूम था कि बाण वंश में विक्रमादित्य उपाधि धारी ३ राजा हुए हैं.  पाली में उल्लिखित विक्रमादित्य, महामंडलेश्वर मल्लदेव का पुत्र था अतः “जयमेरू” के रूप में उसकी पहचान बाण वंश के ही दूरे शिलालेखों के आधार पर कर ली गयी. जयमेरू का शासन  8९५ ईसवी तक रहा. अतः पाली के मंदिर का निर्माण ९ वीं सदी का है. परन्तु कलचुरी शासक जाजल्लदेव (प्रथम) नें ११ वीं सदी में पाली के मंदिर का जीर्णोद्धार  ही करवाया था न कि निर्माण.

शिल्पों की विलक्षण लावण्यता के दृष्टिकोण से यह मंदिर भुबनेश्वर के मुक्तेश्वर मंदिर (१० वीं सदी) से टक्कर लेने की क्षमता रखता है. वैसे बस्तर (छत्तीसगढ़) के नारायणपाल के मंदिर से भी इसकी तुलना की जा सकती है. यह मंदिर भी शिल्पों से भरा पूरा रहा होगा पर अब लुटा हुआ दीखता है.

नारायनपाल का शिव मंदिर

नारायनपाल मंदिर का भग्न मंडप

वहां भी मंडप गुम्बदनुमा  ही रहा जो क्षतिग्रस्त हो गया. परन्तु इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजाओं के द्वारा १२ वीं सदी में किया गया था.

नारायनपाल के चित्र श्री राहुल सिंह के सौजन्य से

वयनाड (केरल), एक स्वर्ग यहाँ भी

नवम्बर 1, 2010

यह पोस्ट मूलतः अंग्रेजी में मेरे अनुज

श्री पी.एन. संपत कुमार,

कोचिन शिप यार्ड, कोच्ची द्वारा

यहाँ प्रकाशित किया गया है

साधारणतया हमलोग सपरिवार कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम केवल  ओणम, क्रिसमस या गर्मियों में ही बना पाते  है जब हमारे पुत्र के स्कूल की छुट्टियाँ रहती हैं. इस बार ओणम के समय श्रीलंका जाना निर्धारित था क्योंकि हमारे लिए पास ही है और विदेश भी. परन्तु छुट्टियाँ केवल चार दिन की थीं इसलिए हमें लगा कि श्रीलंका के साथ हम न्याय नहीं कर पायेंगे. वहां कई महत्वपूर्ण स्थल हैं जिन्हें देखने के लिए अधिक समय की आवश्यकता थी.

अब कहीं न कहीं जाना तो था. हमारे केरल में ही उत्तर में अतुल्य प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास को समेटे,  जैविक विविधता लिए वर्षा वनों से आच्छादित एक जिला “वयनाड” है जहाँ कभी जाना नहीं हो पाया था.  एर्नाकुलम (कोच्ची) से वयनाड जाने के लिए हमारे पास दो विकल्प थे. एक, अपनी ही गाडी से निलंबूर होते हुए जाया जावे या फिर रेल से कोज्हिकोड़ (केलिकट) और वहां से बस द्वारा. बरसात का मौसम और अनजाने रास्तों ने हमें दूसरे विकल्प को चुनने के लिए वाध्य कर दिया. कालपेट्टा , जो वयनाड का एक प्रमुख शहर है, में कई यात्री निवास हैं और हमने एक जेब पर भारी न पड़ने वाले “हरितगिरी” नामक रेसोर्ट में एक कमरा आरक्षित करवा लिया. हमने कुछ छान बीन कर ली थी और हमें इस रेसोर्ट के बारे में संतोषप्रद प्रतिक्रियाएं ही मिली थीं.

हम लोगों ने दुपहर की ट्रेन द्वारा कोज्हिकोड़ (केलिकट) के लिए प्रस्थान किया जिससे कि वहां शाम तक पहुँच जाएँ. वहां पहुँचने के बाद एक सस्ते होटल में कमरा लिया और निकल पड़े थे वहां के समुद्री किनारे की ओर. वहां की “बीच”  बड़ी सुन्दर है परन्तु वास्को  डा गामा तो “काप्पाड़”  नामके तट पर आया था जहां हम नहीं गए. हाँ वहां के सबसे पुराने “ताली” नामके शिव मंदिर में दर्शन कर लिया. इस शहर में शाखाहारियों  के लिए बड़ी मुसीबत है.  विकल्प बड़े सीमित हैं. एक होटल थी “दक्षिण” जहाँ हम लोगोंने दोसा खाकर पेट भरा.

कोज्हिकोड़ (केलिकट) से वायनाड के लिए बसें अनवरत चलती रहती हैं. हम लोग नाश्ता  कर बस में बैठ  गए. ढाई घंटे में हम लोग तामरस्सेरी  घाट से होते हुए कालपेट्टा पहुँच गए. पूरा रास्ता कोहरे से भरा था और हमारे बेटे ने कुल नौ रोमांचक नोकदार घुमाओं का हिसाब रखा है. पहाड़ियों और जंगलों के सफ़र का यह भी एक बहुत ही रोमांचक पहलू रहा है.

वयनाड से उत्तर में कर्णाटक तथा पूर्व में तामिलनाडू की सीमायें लगती हैं. इस जिले के तीन प्रमुख शहर हैं, कालपेट्टा, मानंतवाडी  और सुलतान बेटरी. अधिकतर भूभाग वनों से आच्छादित हैं  और बचे हुए में बागान हैं या कृषि भूमि. कॉफ़ी  (कहुआ) की खेती बड़े पैमाने पर होती है. चाय के भी बागान हैं. वयनाड का अदरख, हल्दी, लेमन ग्रास तथा शहद पूरे केरल में अपनी गुणवत्ता, स्वाद तथा सुगंध के लिए प्रख्यात हैं. मौसम पूरे वर्ष ठंडा तथा आरामदायक  रहता है. अधिकतर  यहाँ की आबादी बाहर से आये हुए खेतिहरों की है जो अपनी किस्मत आजमाने यहाँ आ बसे. यहाँ आदिवासी भी हैं जो अपने तीर चलाने एवं गुरिल्ला युद्ध तकनीक के लिए जाने जाते हैं.१७ वीं सदी में  ब्रिटिश राज से युद्ध में स्थानीय आदिवासियों ने पज्हस्सी राजा का साथ दिया था. इस राजा का स्मारक  मानंतवाडी में है.

एक छोटे स्विमिंग पूल, बार, रेस्तोरां तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा सुविधा से युक्त हरितगिरी एक अच्छा रेसोर्ट लगा. शाखाहारियों के लिए हरितगिरी का रेस्तोरां अनुपयोगी है क्योंकि वहां भोज्य पदार्थ प्रधानतया मांसाहारी हैं. और भी रेसोर्ट हैं जहां भांति भांति के भोजन की व्यवस्था है.  हमने बस्ती में जाकर छोटे  भोजनालयों को तलाशा. ऐसे कई भोजनगृह मिले. हम लोगोंने एक स्वामी के भोजनगृह का जायका लिया. इसे एक ब्राह्मण परिवार द्वारा चलाया जा रहा था. भोजन सुरुचिकर रहा. एक सब्जी तो सूखे कटहल के बीजों की बनायी हुई थी.

वयनाड के प्रमुख दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करने के लिए टूरिस्ट टेक्सी कर लिया जाना सर्वोत्तम है. हम लोगों ने एक टाटा इंडिका २७०० रुपयों के किराये पर डेढ़ दिनों के लिए ले ली थी. छोटी छोटी ४/५ किलोमीटर तक की दूरियों के लिए वहां के ऑटोरिक्शा उत्तम हैं क्योंकि यहाँ वे बहुत ही किफायती हैं. हमें कभी भी १० रुपयों से अधिक का किराया नहीं देना पड़ा था. यहाँ के लोगों का व्यवहार एकदम मित्रतापूर्ण रहा, वैसे ही सभी वाहन चालक बड़े भले हैं.

यहाँ के टूर ऑपरेटर्स के दृष्टिकोण से वयनाड में कुरुवा द्वीप (भारी बारिश के कारण बंद थी), चेम्ब्रा पाहाडी की चोटी,  पूकोड झील, मुत्तंगा अभ्यारण, तिरुनेल्ली, पक्षी पातालम, सूचिपारा जलप्रपात आदि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल हैं जहाँ जाना ही चाहिए. हम लोगोंने अपने ड्राईवर सह गाइड से सलाह कर अपना खुद का कार्यक्रम बनाया. चेम्ब्रा पाहाडी की चोटी (ऊँचाई समुद्र सतह से ६९०० फीट) की आधी दूरी तक ही जा पाए जहाँ तक सड़क ठीक थी.वहाँ एक वाच टावर बना था. नीचे घाटियों में चाय और कॉफ़ी  के बागान और कालपेट्टा नगर के दृश्य बड़े मनोरम लग रहे थे. हमारा पुत्र बादलों की टुकड़ियों  द्वारा चुम्बित हो बड़ा ही प्रसन्न था. वह बादल के टुकड़ों  को अपनी मुट्ठी में भर कर कमीज की जेब में सहेजने  में व्यस्त हो गया. चेम्ब्रा पहाड़ की चोटी तक पहुँच कर वापसी में ६/७ घंटे तो लगेंगे ही. इसके लिए समान सोच वाले ७/८ लोगों का समूह चाहिए जो दाना , पानी और आवश्यक उपकरणों के साथ अभियान में शामिल हों. हम जहाँ तक पहुँच पाए थे वहां से और कुछ ऊँचाई पर सुना है कि दिल के आकार का झील भी है जिसके किनारे लोग खान पान और विश्राम करते हैं फिर आगे बढ़ते हैं. यह सब हमें मान सरोवर की याद दिला रहा था. कभी और सही.

यही है चेम्ब्रा की पहाड़ी

चेम्ब्रा की चोटी की ओर जाने का रास्ता

आधी दूरी तय करने के बाद

हमारा अगला कार्यक्रम “एडक्कल” गुफाओं को देखने का था. कालपेट्टा से २५ किलोमीटर सुल्तान बेटरी  जाने वाले मार्ग पर एक पहाड़ मिलता है जिसे अम्बु कुट्टी मला कहते हैं. एडक्कल गुफाएं इसी पहाड़ पर १००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं इन गुफाओं की खोज का श्रेय मालाबार जिले के पुलिस अधीक्षक श्री फ्रेड फासेट को दिया गया है जो सन १८९० में उस इलाके में शिकार करने गया था.  हमारी यात्रा ग्रामीण सडकों से होते हुए रही और वहाँ तक पहुँचने में १ घंटा ही लगा.

गुफा में जाने का रास्ता

एक सुन्दर पेट्रोग्लिफ – मिश्र (ईजिप्त) याद आ रहा है

गुफाएं पहाड़ की चोटी पर थीं जहाँ पहुँचने के लिए २०० – २५० मीटर खड़ी चढ़ाई  है. इसके लिए चट्टानों पर चढ़ने का कुछ कौशल चाहिए. वहां हमने पाया कि बहुतेरे पर्यटक आये हुए थे भले इतिहास  में उनकी रूचि न रही हो. गुफा की चट्टानों में खोदकर आकृतियाँ (Petroglyphs) बनायीं गयीं हैं जिन्हें पाषाण युग के आदि मानवों द्वारा बनाया गया माना जाता है और इस लिहाज़ से ये हजारों वर्ष पूर्व की हैं. यहाँ का चित्रांकन अन्य शैलाश्रयों में पाए जाने वाले शैल चित्रों से भिन्न हैं.  इन गुफाओं की देख रेख  राज्य का पुरातत्व विभाग के जिम्मे हैं. उन आकृतियों में हमें लगा कि कहीं हिरण को रूपांकित किया गया है और कहीं किसी आदि मानव के मुख को अलंकरण सहित दर्शाया गया है जैसे कुछ कबीलों के सरदार होते हैं. हमें इस गुफा के लिए पूरे दो घंटे का समय देना पड़ा.  अद्यतन: – इन गुफाओंमे तामिल ब्राह्मी में लिखे कुछ लघु लेख भी हैं. अभी अभी फ़रवरी २०१२ में पांचवां लेख कालीकट  विश्व विद्यालय के सेवानिवृत्त पुरालेख के प्राध्यापक श्री राघव वारियर के द्वारा ढून्ढ निकला गया है.  लेख को  “श्री वज्हुमी” पढ़ा गया है.

                                                                                        चित्र साभार :  मोहम्मद अ

एडक्कल गुफाओं के ही करीब है सुल्तान बेटरी नामका शहर. वायनाड का यह सबसे बड़ा शहर भी है. यहाँ से कुछ दूरी पर कर्णाटक की सीमा से लगा हुआ है “मुत्तंगा अभ्यारण”. वैसे अभ्यारणों में विचरण के लिए प्रातःकाल उपयुक्त रहता है परन्तु हम वहां शाम को ही पहुँच पाए. अभ्यारण के अन्दर भ्रमण के लिए गाइड सहित गाड़ियां उपलब्ध हैं. सुबह पहुँचने पर गवर (बायसन), हाथी और कभी कभार शेर के भी दर्शन हो जाते हैं परन्तु हम लोगों को हिरणों के झुण्ड और कुछ मयूर आदि से ही संतुष्ट होना पड़ा.

पूकोड झील

वैतिरी नामक जगह के पास एक प्राकृतिक झील है “पूकोड”, बेहद सुन्दर. इतना सुन्दर झील हमने केरल में नहीं देखा है. हमें नैनीताल  की याद हो आई. यहाँ बोटिंग की सुविधा है और बहुतेरे तो केवल झील के चारों तरफ पैदल भ्रमण कर आनंदित हो रहे थे.

एकदम सुरक्षित कन्तंपारा जलप्रपात

सूचिपारा जलप्रपात देखना था परन्तु दूरी के कारण हमारे ड्राईवर ने नजदीक के ही एक दूसरे “कन्तंपारा जलप्रपात” चलने का सुझाव दिया. यह प्रपात अपेक्षाकृत छोटा है परन्तु लोगों की नजरों से ओझल है.

कन्तंपारा जलप्रपात

यह प्रपात दो चरणों में बंटा है. पहला वाला एकदम सुरक्षित है जहाँ एक कुंड सा बनता है. यहाँ छोटे बच्चे भी उधम कर सकते हैं. वायनाड में ऐसे अनछुए कई  स्थल हैं जहाँ हम प्रकृति की आगोश में होते हैं.

कन्तंपारा जलप्रपात

१६ वीं सदी तक तिरुनेल्ली एक प्रमुख नगर रहा है. तिरुनेल्ली में एक प्राचीन विष्णु मंदिर है और निकट ही पापनासम जलप्रपात. अगले दिन की यात्रा बस द्वारा की गयी. पहले  मानंतवाडी पहुँच कर वहां से तिरुनेल्ली के लिए दूसरी बस पकडनी पड़ी. कुल सफ़र ढाई घंटे का रहा जो सुरम्य जंगलों और पहाड़ियों के बीच से होकर था. हाथियों के लिए यहीं पर गलियारा प्रस्तावित भी है. कहने की जरूरत नहीं है की यहाँ रास्ते पर या अगल बगल जंगली हाथियों के दर्शन हो जाते हैं. हम लोगोंने कुछ हिरण ही देखे. तिरुनेल्ली का मंदिर पहाड़ियों से घिरा है और वहां की वादियों को छोड़ मंदिर में वैसे कोई ख़ास आकर्षण नहीं दीखता. अन्दर रख रखाव का काम चल रहा था. कहा जाता है की इस मंदिर का उल्लेख १० वीं शताब्दी के साहित्य में मिलता है. यहाँ के मंदिर के लिए सुदूर पर्वतों से पानी लाने की जो व्यवस्था की गयी है वह देखने योग्य है. यह आप इस चित्र से समझ जायेंगे.मंदिर के लिए पानी लाने की व्यवस्था

लोगों द्वारा  तिरुनेल्ली जाने के पीछे दो उद्देश्य होते हैं. एक तो नजदीक में प्रवाहित होने वाले पापनासम

पापनासम (जहाँ पापों से मुक्ति मिलती है)

(जहाँ पापों से मुक्ति मिलती है) झरने और कुंड में स्नान करना और दूसरा वहां के पारंपरिक चिकित्सा में पारंगत जनजातीय वैद्यों से सलाह लेना. पापनासम कुंड को “ब्रह्म तीर्थ” भी कहा जाता है. वहा हमें एक चट्टान दिखा जिसे गोलाई में तराशा गया है. उसपर विष्णु पाद, शंख, चक्र, गदा एवं पद्म बने हैं. यह काफी प्राचीन लग रहा था और पूजित भी है.

संभवतः यह मृतकों के मोक्ष के लिए पिंड दान करने के लिए है

हम लोग तीसरे दिन केलिकट होते हुए वापस एर्नाकुलम आ गए. वयनाड केरल के लिए  प्रकृति का वरदान ही है. अच्छी आबो हवा, अछे मिलनसार लोग, अप्रतिम प्राकृतिक सौदर्य से लोग प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकते. यहाँ भ्रमण का पूरा आनंद उठाने के लिए लम्बी पैदल यात्रा और कुछ कठिन पर्वतारोहण  की तैय्यारी के साथ जाया जावे तो फिर आनंद की सीमा नहीं रहेगी.