छतीसगढ़ की राजधानी, रायपुर से लगभग ४५ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में तीन नदियों का संगम है. महानदी (चित्रोत्पला), पैरी तथा सोंढुर. महानदी और पैरी दो अलग अलग भागों से आकर यहाँ मिल रही है और एक डेल्टा सा बन गया है जबकि तीसरी नदी सोंढुर कुछ दूरी पर सीधे महानदी से मिल रही है. महानदी अथवा चित्रोत्पला को प्राचीन साहित्य में समस्त पापों का हरण करने वाली परमपुण्यदायिनी कहा गया है. महाभारत के भीष्म पर्व में तथा मत्स्य एवं ब्रह्म पुराण में भी चित्रोत्पला का उल्लेख है. इस नदी के उदगम के बारे में जो बातें मिलती हैं उससे कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह नाम महानदी के लिए ही प्रयुक्त किया गया था. महानदी जैसे पापनाशिनी में दो अन्य नदियों के संगम के कारण यह एक परमपुण्य स्थली मानी जाती है. यही है छत्तीसगढ़ का प्रयाग. संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम तट पर पिंडदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि करते हुए लोगों को देखा जा सकता है. यहाँ एक प्राचीन नगर राजिम भी है जो महानदी के दोनों तरफ बसा है. उत्तर की ओर की बस्ती नवापारा (राजिम) कहलाती है जब कि दक्षिण की केवल राजिम. यह पूरा क्षेत्र पद्म क्षेत्र कहलाता है और एक अनुश्रुति के अनुसार पूर्व में यह पदमावतीपुरी कहलाता था. राजिम नामकरण के पीछे भी कई किस्से कहानियां हैं, जिसमे राजिम नाम की एक तेलिन से सम्बंधित जनश्रुति प्रमुख है. एक धार्मिक तथा सांस्कृतिक केंद्र के रूप में राजिम ख्याति प्राप्त है. यहाँ मंदिरों की बहुलता तथा वहां आयोजित होने वाले उत्सव आदि इस बात की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं.
यह पूरा क्षेत्र, अपनी वन सम्पदा एवं कृषि उत्पाद के लिए सदियों से प्रख्यात रहा है. इसी को ध्यान में रखते हुए उस क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा के दोहन हेतु अंग्रेजों के शासन काल में बी.एन.आर रेलवे द्वारा रायपुर से धमतरी तथा उसी लाइन पर अभनपुर से नवापारा (राजिम) की एक नेरो गेज रेलवे लाइन प्रस्तावित की गयी. सन १८९६ में छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था अतः उस प्रस्तावित रेलमार्ग को स्थानीय लोगों को रोजगार दिलाने (या यों कहें कम खर्च में काम चलाने के लिए) राहत कार्य के अंतर्गत रेल लाइन का निर्माण प्रारंभ कर दिया गया. सन १९०० में रेल सेवा भी प्रारंभ हो गयी थी. राजिम के आगे गरियाबंद वाले रस्ते के जंगलों के भीतर भी रेल लाइन होने के प्रमाण मिलते हैं. कहीं कहीं पटरियां भी हमने देखी हैं परन्तु वह लाइन कहाँ तक गयी थी और कहाँ जाकर जुडती थी, इस बात से अवगत नहीं हो सके. विषयांतर हुआ जाता प्रतीत हो रहा है. राजिम के लिए रेलमार्ग के संदर्भवश रेलवे की कहानी संक्षेप में कह डाली. रायपुर से राजिम जाने के लिए सड़क मार्ग ही बेहतर है जबकि रेलमार्ग कष्टदायक.

बात तो राजिम की ही होनी थी. ऊपर हमने वहां मंदिरों की बहुलता का उल्लेख किया था. पुराने मंदिरों में, सर्वाधिक ख्याति प्राप्त राजीव लोचन का मंदिर है जिसके अहाते में ही कई और हैं. राजेश्वर, दानेश्वर, तेलिन का मंदिर, उत्तर में सोमेश्वर, पूर्व में रामचंद्र तथा पश्चिम में कुलेश्वर, पंचेश्वर एवं भूतेश्वर. इन सभी मंदिरों में अग्रणी एवं प्राचीनतम है राजीव लोचन का मंदिर. इस मंदिर के स्थापत्य के बारे में यहाँ सूक्ष्म वर्णन मेरा उद्देश्य नहीं है अपितु संक्षेप (जो कुछ लम्बा भी हो सकता है) में कुछ कहना सार्थक जान पड़ता है. मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर छत्तीसगढ़ के अन्य मंदिरों से भिन्न है एवं अपने आप में विलक्षण है. विद्वानों का मत है कि राजीव लोचन मंदिर का स्थापत्य दक्षिण भारतीय शैली से प्रभावित हुआ है. उदाहरण स्वरुप, मंदिर के अहाते में प्रवेश हेतु गोपुरम सदृश प्रवेश द्वार, प्रदक्षिणा पथ, खम्बों में मानवाकार मूर्तियाँ आदि.
मंदिर का अहाता पूर्व से पश्चिम १४७ फीट और उत्तर से दक्षिण १०२ फीट है. मंदिर बीच में है. उत्तरी पूर्वी कोने पर बद्री नारायण, दक्षिणी पूर्वी कोने पर वामन मंदिर, दक्षिणी कोने पर वराह मंदिर तथा उत्तरी पश्चिमी कोने पर नृसिंह मंदिर बना हुआ है जिन्हें मूलतः बने राजीव लोचन मंदिर के सहायक देवालय कहा जा सकता है परन्तु उनका निर्माण कालांतर में ही हुआ है. राजीव लोचन मंदिर के पश्चिम में अहाते से लगभग २० फीट दूर राजेश्वर मंदिर तथा दानेश्वर मंदिर हैं. दोनों ही शिव मंदिर हैं. परन्तु दानेश्वर मंदिर ही एक ऐसा मंदिर है जहाँ नंदी मंडप बना हुआ है. राजिम में ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं. ये दोनों मंदिर भी राजीव लोचन मंदिर के समकालीन नहीं हैं परन्तु स्थापत्य में कुछ समानताएं हैं. इन्ही मंदिरों के आगे राजिम तेलिन का मंदिर है या यों कहें की सती स्मारक है.

इस मंदिर के महामंड़प में बारह खम्बे हैं जिनमे बेहद कलात्मक शिल्प उकेरे गए है. गर्भ गृह का प्रवेश द्वार तो लाजवाब है. पत्थर के विशाल चौखट को बड़ी तल्लीनता से शिल्पियों ने अलंकृत 

किया है. चौखट के ऊपर शेषासायी विष्णु अद्भुत है. गर्भ गृह में प्रतिष्ठा शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए महाविष्णु की है और यही राजीव लोचन कहलाते हैं.
प्रतिदिन उन्हें प्रातः बालरूप में, मध्याह्न युवारूप में और सायं वृद्धरूप में श्रृंगारित किया जाता है परन्तु सिले सिलाये कपडे पहनाने का रिवाज़ नहीं है. कपड़ों को मोड़ कर उढ़ा दिया जाता है यहाँ तक कि गाँठ बांधना भी वर्जित है. एक बात और हमने जो जानी वह ये कि यहाँ के परंपरागत पुजारी क्षत्रिय हैं न कि ब्राह्मण.
कुछ लोगों में भ्रम है कि राजीव लोचन मंदिर भगवान् श्री रामचन्द्रजी के लिए बना था. इसका एक कारण यह है कि महामंड़प के पीछे की दीवार में जगपाल देव (१४ वीं सदी) का एक शिलालेख जड़ा हुआ है जिसमे श्री रामचन्द्रजी के लिए एक नए मंदिर के निर्माण की बात कही गयी है. जगपाल देव कलचुरी शासक पृथ्वी देव द्वितीय का सामंत था. वास्तव में इस सामंत के द्वारा बनवाया गया रामचंद्र मंदिर पूर्व दिशा में अभी भी विद्यमान है. उसी शिलालेख के बगल में एक दूसरा शिलालेख भी है जिसमे राजीव लोचन मंदिर के निर्माण का उल्लेख है. इस शिलालेख में कोई तिथि तो नहीं दी गयी है परन्तु राजा का नाम विलासतुंग बताया गया है. यह नल वंशी था जिनका बस्तर पर अधिपत्य रहा. यही नल वंश सिरपुर के सोमवंशियों का उत्तराधिकारी बना था. शिलालेख की लिपि एवं स्थापत्य के आधार पर राजीव लोचन मंदिर का निर्माण काल सन ७०० ईसवी का मान लिया गया है. समय समय पर विभिन्न शासकों द्वारा मंदिर के मूल संरचना में कुछ नए निर्माण आदि कर परिवर्तित/संरक्षित किया जाता रहा है.
पैरी और महानदी के संगम पर नदी के बीच ९ वीं सदी का कुलेश्वर महादेव मंदिर (उत्पलेश्वर) है और यह मंदिर भी विलक्षण है. नीचे श्री राहुल सिंह जी से प्राप्त और उनके सुझाव पर चित्रों को दे रहा हूँ परन्तु इस मंदिर और अन्य शिव मंदिरों के बारे में अलग आलेख की आवश्यकता का अनुभव करता हूँ.
पिछले वर्षों में यहां का परम्परागत माघ पूर्णिमा मेला अब विशाल हो कर राजिम कुंभ कहलाने लगा है, यह आयोजन आगामी 18 फरवरी से आरंभ होगा.
उपयोगी लिंक्स:
http://cgculture.in/
http://www.chhattisgarhtourism.net/