मकर संक्रांति के समय काले कौओं के बारे में बहुत सी पोस्टें पढ़ीं. कुछ कौवे तो बार बार ही अपने घर आते हैं परन्तु पहचानें कैसे. कुछ ऐसी ही समस्या तामिलनाडू के बहुतेरे मंदिरों के साथ है. ऐसा नहीं कि सभी कौवे हो. कुछ तो अपनी विशिष्टता के लिए जग प्रसिद्द भी हैं. चेन्नई को अपना केंद्र बनाकर हम लोग सपरिवार कार से निकले थे. कार्यक्रम बड़ा लम्बा था लेकिन कम समय में तय करना था. कुम्बकोनम, तिरुची, थंजावूर, मदुरै, रामेश्वरम, कोडैकेनाल आदि. चेन्नई से लगभग ३०० किलोमीटर चलकर हम लोग कुम्बकोनम पहुंचे थे. यह तमिलनाडु का बहुत ही पुराना शहर है. मंदिरों का शहर. तमिलनाडु का केम्ब्रिज भी कहलाता है. गणित के महान पंडित रामानुजम की जन्मस्थली. लेकिन आज हम कुम्बकोनम की बात नहीं कर रहे हैं. यहाँ से ६ किलोमीटर दूर कावेरी की एक सहायक नदी अरसलार के किनारे एक मानव निर्मित टीले के ऊपर स्वामिमलई के स्वामिनाथन का मंदिर है. यहाँ की प्रतिष्ठा सुब्रह्मण्यम की है जिन्हें मुरुगन, वेळ मुरुगन, कार्तिकेय , स्कन्द, कुमार, शन्मुखा, सर्वनाभव, गांगेय, शक्तिधरमूर्ति, गुहन, वेलायुधा, स्वामीनाथन आदि नामों से भी जाना जाता है. मंदिर का मूल स्थल प्राचीन है परन्तु जो वाह्य रूप है वह २० वीं सदी का ही हैं. तामिलनाडू में मुरुगन सबसे बड़ा देव माना जाता है और इनके मंदिर अधिकतर पहाड़ियों में ही पाए जाते हैं. बाल काल से ही कार्तिकेय बड़े उद्दंड थे.जिससे चाहो भिड जाते थे. उनके छह युद्ध शिविर (आरू पडैगल ) माने गए हैं, जहाँ उनके लिए मंदिर बने हैं. स्वमिमलाई उनमें चौथा है.
इसी जगह बालक कार्तिकेय ब्रह्मा जी से भिड गए थे. ब्रह्मा जी अपनी किसी यात्रा में जा रहे थे. उन्हें रोक कर बालक कार्तिकेय ने पूछा, क्यों आपको “ॐ” की कोई जानकारी है. ब्रह्माजी अनुत्तरित रहे. कार्तिकेय ने कहा इस अज्ञानता का दंड तो भुगतना पड़ेगा. हम आपको अपना बंदी बना रहे हैं. देवताओं में हाहाकार मच गया. श्रृष्टि के रचयिता को एक बालक ने बंदी जो बना लिया. सबने मिलकर शिव जी से प्रार्थना की कि ब्रह्मा जी को बचाईये. शिव जी ने अपने पुत्र कार्तिकेय को बुलाकर पूछा, क्या बात है. कार्तिकेय ने उत्तर में कहा, ब्रह्मा श्रृष्टि का रचयिता बनता है और “ॐ” क्या है नहीं जानता. शिव जी ने पूछा, क्या तुम्हें मालूम है, कार्तिकेय ने तुरंत कहा, हाँ बिलकुल मालूम है. शिव जी ने “ॐ” की व्याख्या करने को कहा तो कार्तिकेय ने अपनी शर्त रख दी कि मुझे गुरु मानो तो बताऊँगा. शिव जी के पास कोई चारा नहीं था. उन्होंने बालक कार्तिकेय को गोद में उठाकर “ॐ” पर अपने बालक का व्याखान सुना और गद गद हो बेटे के ही शिष्य बन गए. इस दृश्य का यहाँ चित्रांकन है.
इस मंदिर का एक और महात्म्य है. संतान सुख से वंचित परिवार यहाँ मन्नत मांगते हैं और यहाँ परिसर के पेड़ों पर लकड़ी से बने पालने लटका देते हैं. संतान प्राप्ति पर पालने उठा ले जाते हैं. हमने इन पेड़ों को नहीं देखा था. एक मित्र द्वारा लिए गए चित्रों से ही इस बात की पुष्टि हुई.
मई 17, 2011 को 7:40 अपराह्न
कार्तिकेय की ये कहानी पहली बार सुनी। मंदिर के बारे में इस सचित्र रोचक विवरण के लिए आभार !
मई 17, 2011 को 9:09 अपराह्न
मूर्ति के साथ शास्त्रीय किस्म की कहानी में लोक पुट आ रहा है, वह लाजवाब है. हमने यह पढ़ा था कि अमरीका के हवाई द्वीप की भाषा एकमात्र है, जो (सन 1890 से 1910 के बीच विकसित) बच्चों से अभिभावकों ने सीखी.
वर्तनी की कई त्रुटियां हैं और मन्नत के बजाय मनौती शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं.
मई 17, 2011 को 9:15 अपराह्न
बहुत सुन्दर – यह हिन्दू धर्म का वैचित्र्य है। आस्थायें टंगती हैं पेंड़ों पर पालने की शक्ल में और उनकी बदौलत चलती है संतति-सभ्यता!
हमेशा की तरह बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट।
दक्षिण की मूर्तियां बहुत सुन्दर होती हैं मन्दिरों में। कभी उन्हे बनाने वालों के बारे में भी बताइयेगा।
मई 17, 2011 को 9:18 अपराह्न
दुखद स्थिति के बाद आपका ब्लॉग लेखन में लौटना निश्चित रूप से आपके साथ हमें भी शक्ति प्रदान करता है.
आपका यह आलेख जो पौराणिक कथा के साथ मंदिर की सैर कराता है, आपकी संपन्न शैली का ही नमूना है.
सुब्रमणियन जी आपका स्वागत है. हमें आपके आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी.
मई 17, 2011 को 9:38 अपराह्न
आदरणीय पी.एन. साहब,
सचमुच कार्तिकेय भगवान की कथा रोचक है !
आपने जिस सरल तरीके से कहा, उससे एक
बच्चा भी एक ओर “ॐ” के अर्थ को जानने
के लिए उत्सुक हो जाएगा, वहीं एक पंडित भी
समझ जाएगा कि भगवान कार्तिकेय ने ’परम-
तत्त्व’ पवित्र अक्षर ॐकार के रहस्य के बारे
में ब्रह्माजी से पूछा और वे उत्तर नहीं दे सके ।
क्योंकि ॐकार की महिमा का वर्णन कर पाना
उनके लिये भी अत्यंत कठिन था । भगवान शिव
इस रहस्य के ज्ञाता हैं, किंतु बाल-हठ के आगे
उन्हें भी सिर झुकाना पड़ा, और बेटे को गुरुरूप
में स्वीकार करना पड़ा ।
आशा है आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी मिलती
रहेगी ।
नमस्कार ॥
मई 17, 2011 को 10:07 अपराह्न
बहुत सुन्दर !
कार्तिकेय -मुरुगन तमिलनाडु में लोकप्रिय हैं जबकि बाप कैलाश पर्वत पर विराजते हैं –
तो क्या उत्तर से दक्षिण मानव -समूह स्थानान्तरण हुआ था जो अपनी जन /जाति स्मृति लिए
वहां गया और आज ये आख्यानों में जीवित हैं या फिर दक्षिण से उत्तर का महाभिनिष्क्रमण शिव को कैलाश पर
बैठा गया ?
जिस दिन इन सवालों का प्रमाणित उत्तर मिला हम भारत में मानव विकास और संस्कृति की अनेक बिखरी कड़ियों को जोड़ सकेगें !
क्या मुरुगन नामकरण उनके मोर की सवारी के कारण है -जिनके गण मोर हों वह मुरुगन !
मई 17, 2011 को 11:04 अपराह्न
क्या कहनियाँ और क्या चित्र सब कुछ अद्भुत .बहुत आभार इस रोचक और ज्ञान वर्धक पोस्ट का.
मई 17, 2011 को 11:11 अपराह्न
अच्छा लगा जानकर. चित्र और विवरण उत्तम हैं.
मई 17, 2011 को 11:13 अपराह्न
एक लंबे अंतराल के बाद आपको पुनः पढ़ना अच्छा लगा. एक और नवीन जानकारी के लिए आभार.
मई 17, 2011 को 11:29 अपराह्न
बहुत सुंदर बात बताई आप ने, वैसे आज कल के बच्चे सच मे हमारे गुरु ही हे, पीसी ओर लेपटाप इन के बिना हमारे बस के नही:) हर बात पर बच्चो को बुलाना पडता हे
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.धन्यवाद
मई 18, 2011 को 6:21 पूर्वाह्न
रोचक आख्यान और जानकारी !
मई 18, 2011 को 7:21 पूर्वाह्न
सुब्रमणियम जी, धन्यवाद तमिलनाड की कार्तिकेय, मुरुगन, आदि अनेक नामों से प्रसिद्द शिव-पार्वती के तथाकथित ज्येष्ठ पुत्र की प्रचलित कहानी प्रस्तुत करने के लिए… (जो सांकेतिक भाषा में निराकार शक्ति, शिव, के सौर-मंडल के नौ ग्रहों के सार के माध्यम से अनंत साकार मानव रूपों में परिवर्तित होना दर्शाता है)…
काल-चक्र के ‘सत्य’ की खोज में, प्राचीन हिन्दू; योगी, सिद्ध पुरुष आदि, गहराई में जा साकार ब्रह्माण्ड को ‘परम सत्य’, अमृत शिव (भूतनाथ) अथवा निराकार नादबिन्दू विष्णु, यानि हजारों नाम से पुकारे गए अजन्मे और अनंत परमात्मा (शक्ति रूप, ध्वनि ऊर्जा, ‘ॐ’, द्वारा सृष्टिकर्ता, पंचभूतों के माध्यम से साकार रूप में ब्रह्मा-विष्णु-महेश) को मायावी (“मिथ्या जगत”) जाने,,, अदृश्य, किन्तु एक अकेले शून्य काल और स्थान से सम्बंधित परम जीव की लीला जो वर्तमान में भी अनंत मनोरंजक कहानियों के माध्यम से ‘भारत’ में उपलब्ध हैं, भले ही हिमालय श्रंखला सागर के तल से जम्बुद्वीप के उत्तर में स्थित सागर के गर्भ से उत्पन्न हो असीम जल राशि को दक्षिण स्थित सागर में विन्ध्याचल के ऊपर से हो धकेल ही क्यूँ न दी हो (जो सम्पूर्ण सागर जल को ही पी गए, ‘अगस्त्य मुनि’, की कहानी द्वारा प्रचलित)…आदि आदि…
“हरी अनंत हरी कथा अनंता…” जिसका सार है…
मई 18, 2011 को 8:53 पूर्वाह्न
अद्भुत व्याख्यान। ज्ञान ही सर्वोपरि रहा है संस्कृति में, ज्ञान में श्रेष्ठ ही गुरु।
मई 18, 2011 को 12:00 अपराह्न
मंदिर के चित्रों के दर्शन किये। कथा पढी ,यह कथा इससे पहले नहीं सुनी थी । वैसे यह भी कथा प्रचलित है कि कर्तिकेय जी ने भी 24 गुरु बनाये थे।
मई 18, 2011 को 12:00 अपराह्न
सम्पूर्ण देश में बिखरे पड़े संस्कृति के ये प्रतीक हमारी धरोहर हैं और इनसे परिचित करा कर आप हमें हमारी ही धरोहर से सचित्र अवगत करा रहे हैं. इसके लिए बहुत बहुतआभार.
मई 18, 2011 को 12:17 अपराह्न
बहुत अच्छा विवरण है. साधुवाद!
मई 18, 2011 को 12:47 अपराह्न
बहुत सुन्दर इस जगह को मै चतरा जीवन में भेट दे चुकी ठी पर नाम स्मृति पटल से हट गया था आज आपका विडियो और फोटो देखकर फिर से लगा की उसी जगह फिर पहुच गए …..
उनदिनो वह एक गजराज भी हुआ करते थे …..
मई 18, 2011 को 8:26 अपराह्न
वापिसी पर एकदम मुफ़ीद पोस्ट। घर बैठे हमें सुदूर स्थानों का भ्रमण करवाने के लिये आभार।
मई 19, 2011 को 6:41 पूर्वाह्न
@ प्रवीण पांडेय जी
हिन्दू मान्यतानुसार, आरम्भिक बीज मन्त्र, ध्वनि ऊर्जा ॐ, और उससे परिवर्तित साकार त्रेयम्बकेश्वर ब्रह्मा-विष्णु-महेश को जानने हेतु, वर्तमान में भी योगियों, प्राचीन ज्ञानियों, के कथनों के सार के माध्यम से हर कोई जान सकता है कि निराकार नाद बिंदु विष्णु में उपलब्ध ‘परम ज्ञान’ उसके प्रतिरूप प्रत्येक मानव शरीर की संरचना में कुल आठ विभिन्न चक्रों में बंटा पाया गया है – ‘मूलाधार’ (मूलधारा, एक ब्रह्म?) से ‘सहस्रारा’ (सहस्त्र धारा अथवा हजारों ब्रह्म?) चक्र, मंगल ग्रह के सार (शिव-पार्वती पुत्र गणेश) से चन्द्रमा (विष्णु के मोहिनी रूप!) के सार तक हरेक मानव शरीर में मेरुदंड पर विभिन्न बिन्दुओं में केन्द्रित, प्रत्येक आठ ग्रहों में से एक किसी दिशा विशेष का राजा… किन्तु ज्ञान की अनुभूति हरेक व्यक्ति को किसी भी काल में इस पर निर्भर करती है कि ‘रिंग प्लैनेट’, नौवां यानि छल्लेदार शनि ग्रह (‘सूर्यपुत्र’, सुदर्शन चक्र धारी विष्णु का प्रतिरूप) के सार से बना नर्वस सिस्टम कितनी कुल शक्ति और सूचना इन ग्रहों से (“गज और ग्रह” की कहानी में प्रदर्शित ‘विष्णु की कृपा से’) ग्रहण कर मानव मस्तिष्क रुपी कंप्यूटर तक उठा पाता है,,, जो अधिकतर सीमित होता है क्यूंकि अधिकतर आम आदमी रोटी, कपड़ा, मकान (ब्रह्मा-विष्णु-महेश के कलि काल में प्रतिबिम्ब?) पाना ही अपना उद्देश्य मान कर जीता है…
मई 19, 2011 को 7:25 पूर्वाह्न
बहुत सुन्दर प्रस्तुति| धन्यवाद|
मई 20, 2011 को 12:54 पूर्वाह्न
यह कथा विविध रूपों में सुनने को मिलती है किन्तु अन्त एक ही है – पिता ने पुत्र को गुरु माना। चित्र बहुत ही सुन्दर हैं।
मई 20, 2011 को 11:16 पूर्वाह्न
बहुत सुन्दर, रोचक प्रस्तुति ,| धन्यवाद|
मई 22, 2011 को 6:17 पूर्वाह्न
सुब्रमणियन जी, आपने लिखा, “तामिलनाडू में मुरुगन सबसे बड़ा देव माना जाता है और इनके मंदिर अधिकतर पहाड़ियों में ही पाए जाते हैं. बाल काल से ही कार्तिकेय बड़े उद्दंड थे.जिससे चाहो भिड जाते थे. उनके छह युद्ध शिविर (आरू पडैगल ) माने गए हैं,,,” और “..इस मंदिर का एक और महात्म्य है. संतान सुख से वंचित परिवार यहाँ मन्नत मांगते हैं और यहाँ परिसर के पेड़ों पर लकड़ी से बने पालने लटका देते हैं. संतान प्राप्ति पर पालने उठा ले जाते हैं.,,”
उपरोक्त के विषय में मैं अन्य जिज्ञासु के हित में यह और कहना चाहूँगा कि प्राचीन ‘ज्ञानी हिन्दुओं’ ने मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप जाना (शिव यानि निराकार ब्रह्म का सर्वोच्च साकार ब्रह्म का प्रतिरूप पृथ्वी, किन्तु प्रकृति में व्याप्त विविधता दर्शाने हेतु महाशिव यानि सौर-मंडल के ९ ग्रहों के सार से बना…इस प्रकार योगियों ने (शक्तिरूप, निराकार ब्रह्म, के अनंत अंशों में से एक अंश और भौतिक संसार की मिटटी के योग से बने होने की अनुभूति करने वालों ने) मानव शरीर के मेरुदंड पर हर आठ में से एक ग्रह के सार को केन्द्रित दर्शाया ‘मूलाधार चक्र’ (या बन्ध, यानि ताला) से मस्तिष्क तक ‘सहस्रारा चक्र’ तक, नंबर एक मंगल ग्रह से नंबर आठ चन्द्रमा के सार तक – जिसमें सूर्य का सार पेट में (नंबर चार, जठराग्नि के रूप में) और शुक्र ग्रह का सार (नंबर ६, शुक्राणु) मानव कंठ में अनादि काल से योगियों द्वारा दर्शाया जाता आ रहा है…नंबर ९ सूर्यपुत्र शनि ग्रह का है जिसका सार नर्वस सिस्टम है जो सब ग्रहों को जोड़ने का काम करता है और और उनमें भंडारित ज्ञान मस्तिष्क में पहुंचाने का काम करता है,,,योगियों ने मानव का कर्तव्य सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना ही बताया, जो सूर्यपुत्र की कृपा बिना संभव नहीं है :)…
उपरोक्त से शायद अनुमान लगाया जा सकता है कि क्यूँ कार्तिकेय को छ: मुंह वाला और ब्रह्मा (सूर्य) को चार मुंह वाला कहा जाता है और क्यूँ पालने चढाने का चलन आरंभ हुआ होगा…
मई 24, 2011 को 12:25 अपराह्न
इस कथा से अनजान था.