एक लम्बे समय से “घुघूती” को लेकर हम बड़े असमंजस में थे. आखिर यह बला क्या है! ब्लॉगजगत में उत्कृष्ट लेखन के लिए ख्याति प्राप्त एक घुघूती जी भी तो हैं. मुंबई प्रवास के दौरान उनसे मिल लेने की इच्छा प्रबल हो गयी. उन्होंने भी पुलकित हो हमें अपने घोंसले में आने का निमंत्रण दे दिया. बड़े ऊंचे पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था. इतना ऊंचा कि ऊपर से नीचे का आदमी एकदम बौना लगे. वहां एक चौकीदार था. हमने उनसे पूछा, भैय्या १२ वीं डगाल पर जाना है और घुघूती जी से मिलना है. उसने फिर पूछा १२ वें माले में जाना है? हमने कहाँ हाँ भैय्या. चौकीदार नाराज सा दिखा कहा हम भैय्या नहीं न हैं, हम तो गारद हैं. फिर हमने कहा ठीक है न भैय्या हमें रास्ता तो बता दो. तो आप भैय्या बोलना नहीं छोड़ोगे, गारद साहब गरजे. तो फिर हमने कहा अच्छा भैय्या, भाई साहेब तो चलेगा. खैनी वैनी कछु है तो खिला दो. गारद खुश, तुरंत पुडिया निकाली और हमें प्रसाद देते हुए कहा, आप क्या नाम बोले थे, घूटी? ऐसा नामवाला तो वहां नहीं है. फोनवा का नंबर है? हमने कहा हाँ. तो नम्बरवा मिलाओ और बात करो न. हमने गारद महोदय के सलाह का अनुसरण किया और लिफ्त्वा में चढ़कर घुघूती जी के घोंसले के सामने पहुँच ही गए जहाँ घुघूती जी हमारी प्रतीक्षा कर रही थीं. बहुत सारी गुटुर्गू हुई और फिर हम लौट आये थे.
अभी हाल ही में “सिंहावलोकन” में श्री राहुल सिंह ने बताया कि उनके यहाँ घुघूती ने अंडे दिए हैं. हमने तुरंत रपट कर दी घुघूती जी को. बड़ी नाराज़ हुईं, देखो लोग मेरी अनुमति के बगैर मेरे बारे में लिखे जा रहे हैं. कॉपी राईट तो मेरा ही है ना.
राहुल जी से ही पहली बार हमें ज्ञात हुआ कि घुघूती केवल उत्तराँचल में ही नहीं पायी जाती. पूरे भारत में है. छत्तीसगढ़ में पंडकी कहते है और मै पंडकी को जानता था.
मुझे भी कभी पक्षी प्रेमी होने का गुमान था लेकिन उनके लिए दाना और पानी रखने के सिवा कुछ आगे नहीं बढ़ पाया. सही मायने में उनसे दोस्ती कभी न हो सकी. आज का दिन कुछ विशेष रहा. पिछले २/३ महीनों से घर कुछ अव्यवस्थित हो चला था. चिड़ियों की परवाह कौन करे. परन्तु आज एक घुघूती घर में घुस आई. कनकी/चावल के बोरे के पास बैठी थी. हमें चिंता थी की कहीं वह चलते पंखों की चपेट में न आ जाए. घंटों की मशक्कत के बाद कहीं उसे पकड़ा जा सका और बाहर एक गमले में बिठा दिया. उसके लिए पीने के लिए एक कटोरे में पानी और जमीन पर ही चावल के दाने बिखेरे गए.
हमें तो लगता है कि कुछ पक्षी मानव प्रेमी भी होते हैं और उनमें पंडकी भी एक है. आज उसे शिकायत थी.
मई 23, 2011 को 2:04 अपराह्न
पहाड़ की घुघूती व मैदानों की फ़ाख़्ता या पांडुक में मुझे कुछ अन्तर नजर आते हैं। घुघूती बादामी रंग की होती है। उसके गले पर माला के मनकों के निशान होते हैं। वह गाती भी है जिसे हम अपने मनानुसार ‘घुघूती बासूती
भै आलो
मैं सूती।’
सुन लेते हैं। पांडुक प्रायः ग्रे होती है। गले पर निशान नहीं होते। गाती नहीं, केवल घू घू का स्वर निकालती हैं। दोनों डव की प्रजाति हैं जो कबूतर परिवार के ही सदस्य हैं।
घुघूती बासूती
मई 23, 2011 को 2:45 अपराह्न
पंडुक तो मैंने भी देखा है…हमारे तरफ भी पाया जाता है. हालाँकि कम दिखता है. कबूतर जैसा ही लगता है हमें तो. हमें नहीं मालूम था कि ये घुघूती के जैसा भी दिखता है.
मई 23, 2011 को 2:45 अपराह्न
घुघूती ज्ञान और घुघूती से मिलन दोनों शानदार रहे.
मई 23, 2011 को 2:58 अपराह्न
घुघूती को हम पंजाबी में ‘घुग्गी’ कहते हैं जिसका उच्चारण पंजाबी में ‘क्हुग्गी’ जैसा है. पंजाब से एक सिख कामेडियन हैं जिनका नाम घुग्गी है और लाफ़टर शोज़ में आते रहते हैं. जिस घुग्गी को आपने पकड़ा है यह वही है जिसे हम बचपन से देखते आए हैं. यह ऐसी आवाज़ करती है जैसे पुराने रोडरोलरों के ऊपर लगा बाँसुरा आवाज़ करता था.
मई 23, 2011 को 3:14 अपराह्न
सुन्दर जानकारी और रोचक वृतान्त … शांति का प्रतीक घुघूती/कपोत के बारे में अच्छी जानकारी और चित्र भी खूबसूरत हैं !
मई 23, 2011 को 4:49 अपराह्न
अरे पी. एन. साहब !
कभी कल्पना नहीं थी कि इस चिड़िया के बारे में
कहाँ से जानकारी मिल सकती है ! मैं बचपन से
इससे परिचित हूँ । इतनी शर्मीली, इतनी शान्त
प्रकृति तो कबूतर की भी नहीं होती ! हाँ यह कुछ
सलेटी रंग की होती है, कभी बादामी भी, और जब
कभी यह गुटर्गूँ करती है, तो पता चलता है कि यह
बहुत प्रसन्न है ! वैसे ये पक्षी कभी-कभी बिल्कुल
निश्चित अंतराल से एक स्वर निकलते हैं । क्या मैं
आपके ब्लॉग से इसकी छवि चुरा सकता हूँ ?
सादर !
मई 23, 2011 को 5:10 अपराह्न
पंडुक सभी जगह पर पाई जाती है हाँ उसको अलग अलग नाम से बुलाते हैं. हमने अपने ननिहाल में उसका नाम पडूकुल सुना है. घुघूती जी से साम्य भी अपने किया है. वैसे ये नाम मैंने नहीं सुना था.
मई 23, 2011 को 5:13 अपराह्न
आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
ख्याल अपना भी यही था कि घुघूती का मतलब पंडकी या फाख्ता होता है ! रंग के फ़र्क को छोड़कर और कोई फ़र्क शायद ही हो ! आपको स्मरण होगा कि बस्तर के लोक गीतों में पंडकी का ज़िक्र है ! यहाँ पर आप उससे ज़्यादातर ग्राउण्ड फ्लोर या पहली दूसरी डंगाल पर ही मिले होंगे और किसी गार्ड ने इसके लिए आपको चमकाया भी नहीं होगा 🙂
सुना है घुघूती ने अपना घोंसला बदल लिया है ! बताईयेगा कि ये आपसे गुफ्तगू होने से पहले हुआ या कि बाद में ?
मई 23, 2011 को 5:16 अपराह्न
कृपया सुब्रमनियन जी को सुब्रमणियन जी पढ़ें !
मई 23, 2011 को 5:21 अपराह्न
आप भी तो गजब ही करते है मुम्बई में और वहां भैया का सम्बोधन ? ये तो हमारे इधर भी होती है ज्वार की फसल के दिनांें में कभी कभार देखने को मिल जाती है अच्छी जानकारी प्यारे चित्र धन्यवाद
मई 23, 2011 को 6:21 अपराह्न
बहुत ही रोचक और दिलचस्प जानकारी दी..हमारे यहाँ शायद इसे ही फ़ाख़्ता कहते हैं.
मई 23, 2011 को 8:07 अपराह्न
@श्री विनय वैद्य:
यह तो मेरा सौभाग्य ही होगा.
मई 23, 2011 को 9:37 अपराह्न
बेहतर…
रोचक शैली…
मई 23, 2011 को 10:29 अपराह्न
प्रभावी चित्र।
मई 24, 2011 को 5:46 पूर्वाह्न
मुझे नहीं पता था की पंडुकी को घुघूती कहते हैं उत्तराँचल में .हाँ घुघूती जी से मिलना हुआ था मुंबई ब्लोगर मीट में एक बार .बहुत ही सौम्य हैं .घुघूती की ही तरह 🙂 .
मई 24, 2011 को 6:49 पूर्वाह्न
यद्यपि जन्म से उत्तराखंडी होते हुए भी अधिकतर दिल्ली में ही समय बिताने के कारण घुघूती वाला गाना हमने भी सुना और गाया, बंगाली नाती को भी सुनाया हाल ही में (घुघूती बासूती आम कांछौ? इत्यादि) किन्तु यह आपके माध्यम से आज ही जाना वो दिखती कैसी है ! और, जिसका मुझे बाद में बहुत दुःख हुआ था, यह भी याद आया कि कैसे ५२ वर्ष पूर्व किसी एक दिन, मुरादाबाद में दोस्त के घर दिल्ली से जा, एक पेड़ पर ऊँचाई पर बैठे फाख्ते को छर्रे वाली बन्दूक से मार दिया था – मन में इस विश्वास से कि मैं उस दोस्त की बन्दूक से निशाना पहली बार लगा रहा था और इस कारण असफल रहूँगा, जीव हत्या नहीं होगी !
मई 24, 2011 को 6:52 पूर्वाह्न
कम से कम Spotteded Dove, Red Turtle Dove, Ring Dove तो देश के हर हिस्से में दिखते हैं, Bronzewinged Dove और Little Brown Dove भी दुर्लभ नहीं हैं. आपने जो चित्र लगाया है, उसके गर्दन निचले-अंदरूनी भाग पर काली छींट नहीं है, लेकिन उसे Little Brown Dove पहचाना जा सकता है.
मई 24, 2011 को 10:03 पूर्वाह्न
हम बरेली वाले इन पक्षियों को पुडकिया और फाख़्ता कहते हैं।
(आदरणीय घुघूती जी हिन्दी ब्लॉगिंग के सबसे सुलझे हुए व्यक्तित्वों में से एक हैं।)
मई 24, 2011 को 10:07 पूर्वाह्न
मैं भी यह पोस्ट पढने घुघूती जी के कारण ही यहाँ आया हूँ ….
यह घुघूती और उसके अंडे राहुल सिंह जी और आपको मुबारक हों 🙂 ,
आपसे उनकी मुलाकात जान अच्छा लगा ! शुभकामनायें आपको !!
मई 24, 2011 को 1:49 अपराह्न
मुझे पक्षियों के बारे में इतनी जानकारी नहीं है पर चित्र बड़े ख़ूबसूरत लगे…
घुघूती जी के लेखन का कायल तो हूँ ही..
मई 24, 2011 को 7:52 अपराह्न
achhi jankari
मई 25, 2011 को 6:53 पूर्वाह्न
अच्छा लेख जीव जन्तु के प्रति लगाव
मई 25, 2011 को 1:16 अपराह्न
हमारे इधर जिस पक्षी को “बगेरी” कहा जाता है,शायद यह वही है…चित्र से साइज का पता नहीं चल रहा नहीं तो कंफोर्म हो जाता…
बहरहाल ,इस सुन्दर जानकारी के लिए आभार.
मई 25, 2011 को 2:41 अपराह्न
पक्षी का क्लोज़ अप चित्र बहुत ही प्यारा लग रहा है.
परिवेश की वजह से बार रंग में फर्क पड़ जाता है…हो सकता है..ये पंडुकी..घुघूती ही हो
@रंजना जी…
ये बगेरी नहीं है…बगेरी बिलकुल अलग होती है.
मई 26, 2011 को 2:16 पूर्वाह्न
हमारी सबकी माननीय घुघूती बासूती जी
हिन्दी ब्लॉग जगत की सशक्त लेखिका ही नहीं वरन – सामाजिक , पारिवारिक तथा अन्य कई विषयों पर सूक्ष्म अध्ययन व गहरी सोच लिए आलेख लिख कर
आपको सोचने पर बाध्य करनेवाली ओजस्वी महिला हैं
वे , अपना चेहरा – वेब पर उजागर नहीं किया करतीं ..
मैं, उनकी भावनाओं की तथा उनके सुलझे हुए
विचारों की कदर करनेवालों मे से एक हूँ …
आज घुघूती पक्षी पर आपका आलेख पढ़कर और चित्रोँ को देख खुशी हुई –
गुजरात मे शायद हम इसे ‘ पारेवडा ‘ भी कहते हैं ..
स स्नेह, सादर ,
– लावण्या के नमस्ते
2011
मई 26, 2011 को 2:42 अपराह्न
येल्लो! मैं तो इसे कबूतर का छोटा भाई मानता था। यह तो अलग निकला – पाण्डुक/घुघूति!
मई 26, 2011 को 8:41 अपराह्न
घुघूती बहुत ही शांत पक्षी है और दो अलग अलग आकारों में होती है| जो आप ने पकड़ी है वह छोटी प्रजाति की है और जिसके बारे में घुघूती जी ने लिखा है वह इस से कुछ बड़ी होती है|
मई 27, 2011 को 10:45 पूर्वाह्न
bahut achchaa lagaa aapko phir apne biich paa kar.
मई 27, 2011 को 10:08 अपराह्न
अरे ये तो पेंडुकी है
मई 28, 2011 को 11:36 अपराह्न
हमारे यहां इसे पुढकी कहते हैं।
———
मौलवी और पंडित घुमाते रहे…
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
मई 29, 2011 को 2:13 अपराह्न
घुघूती के इस नए रूप की जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
मई 29, 2011 को 7:37 अपराह्न
कल रात जब गेल फेल हो गया आई पी एल मैच में तो याद आया हमारे बचपन में जब हमारा खेल में निशाना चूक जाता था तो बंगाली मित्र कहते थे “बारे बारे घुघु दान खाबे न” ! (घुघु बार बार दाना नहीं खायेगा)!
मई 29, 2011 को 7:43 अपराह्न
Also saw a photo of ‘ghughu’ on the internet as Kanthi Ghughu / Eurasian Collared Dove (Streptopelia decaocto)
मई 30, 2011 को 9:48 पूर्वाह्न
मैं जो कहना चाहता था, भाई अनुराग जी ने कह दिया.
मई 30, 2011 को 10:00 पूर्वाह्न
मैंने भी राहुल जी वाला लेख पढ़ा था. पक्षी का चित्र नहीं था इसलिए समझ में नहीं आ रहा था अब चित्र देखकर समझ भी गया…
मई 30, 2011 को 11:34 अपराह्न
इस बार आपकी पोस्ट पर चित्र भारी पड रहे हैं। बहुत ही सुन्दर चित्र हैं।
जून 26, 2011 को 8:06 अपराह्न
पंड़की के विषय में कहा जाता है कि यह जोड़े में ही रहते हैं। जहाँ कहीं भी होगें नर मादा दोनो दिखाई देगें। रोज सुबह दिख जाती हैं मुझे फ़ुदक-फ़ुदक कर मनियारी गोटी खाते हुए।
बढिया जानकारी दी है आपने
जुलाई 5, 2011 को 8:47 पूर्वाह्न
यहाँ उत्तरप्रदेश की देशज भाषा में इसे पिढुकी कहते हैं और उस पर एक कहावत भी मशहूर है। ‘बाप नें मारी पिढुकी, बेटा तीरंदाज’ । शायद कहावत का अर्थ यह बताता है कि यह एक सरल सीधे स्वभाव का पक्षी होता है जिसे नौसिखुऎ भी मार लेते हैं।
मई 22, 2013 को 12:54 अपराह्न
हमें तो लगता है कि कुछ पक्षी मानव प्रेमी भी होते हैं और उनमें पंडकी भी एक है. …..जी बिलकुल सही है यह बात ..अब मेरे घर की पंदुकी (घुघती) से मिलिए वह तो मेरे घर की खिड़की के अन्टीना पर अपना ३ बार घर बसा चुकी है अभी ३ दिन पहले ही अण्डों से बच्चे निकले हैं ..उन तक पहुंचना बहुत आसान है …बड़ी भोली और सीधी होती हैं ये बच्चे तो इतने मासूम की आराम से पकड़ में आते हैं अपने हाथों से खिला सकते हैं इन्हें कोई भी …तो आईये आपके इंतज़ार में है हमारी घुघूती …