फूलों की इस शृंखला में आज सबके जाने पहचाने कचनार की बारी है, इसलिए नहीं कि इसकी कली से अचार बनाया जा सकता है अथवा इसकी छाल औषधीय गुणों से युक्त है.बल्कि इसमे मेरा स्वार्थ है. मैने इनके कुछ चित्र जो लिए हैं. उन्हें दिखाना भी तो है.
यह सर्वत्र दिखाई देती है
भारत में ही इनकी १२ प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमे कुछ बेल का रूप भी धारण कर लेते है. कचनार का वृक्ष मध्यम आकार का होता है, इसकी छाल भूरे रंग की और लम्बाई में फटी हुई होती है. फूलों की दृष्टि से कचनार तीन प्रकार का होता है- सफेद, पीला और लाल. तीनों प्रकार का वृक्ष पूरे देश में सर्वत्र पैदा होता है. बाग-बगीचों में सुंदरता के लिए इसके वृक्ष लगाए जाते हैं. फरवरी-मार्च में पतझड़ के समय इस वृक्ष में फूल आते हैं और अप्रैल-मई में फल आते हैं. इस .की पत्तियों दो भागों में बंटी होती हैं. मुड़े हुए पत्ते को खोल दिया जाए तो वह ऊँट के पंजे से मेल खाती हैं इसलिए इसे केमल्स फुट भी कहा जाता है.
आयुर्वेदिक औषधियों में ज्यादातर कचनार की छाल का ही उपयोग किया जाता है. इसका उपयोग शरीर के किसी भी भाग में ग्रंथि (गांठ) को गलाने के लिए किया जाता है. इसके अलावा रक्त विकार व त्वचा रोग जैसे- दाद, खाज-खुजली, एक्जीमा, फोड़े-फुंसी आदि के लिए भी कचनार की छाल का उपयोग किया जाता है.
इसके कई नाम मिलते हैं. संस्कृत- काश्चनार, हिन्दी- कचनार, मराठी- कोरल, कांचन, गुजराती- चम्पाकांटी, बंगला- कांचन, तेलुगू- देवकांचनमु, तमिल- मन्दारे, कन्नड़- केंयुमन्दार, मलयालम- मन्दारम्, पंजाबी- कुलाड़, कोल- जुरजु, बुज, बुरंग, सन्थाली- झिंजिर, इंग्लिश- माउंटेन एबोनी, लैटिन- बोहिनिआ वेरिएगेटा।