ऊटी जाने का कार्यक्रम बना था. मैं तो अकेला ही था परन्तु छोटे भाई का परिवार भी साथ था. नाश्ता वास्ता कर गाडी में बैठने के बाद भाई ने कहा अपन रात तक वापस आ जायेंगे. हमने कहा यार ऊटी में कमसे कम एक रात दो दिन बिताये बगैर वापस आने का कोई मतलब नहीं होगा. उसने अपनी लाचारी बतायी. दूसरे ही दिन कोई महत्वपूर्ण बैठक थी. सो उसने प्रस्ताव रखा. उतनी ही दूरी पर एक और जगह है “आनेमलई ” (हाथियों का पहाड़), हमने प्रस्ताव को झट मान लिया. अपन तो घुमंतू ठैरे. कही भी चलो पर कहीं दूर ले चलो.
आनेमलई कोयम्बतूर से दक्षिण में ५६ किलोमीटर की दूरी पर है. ४० किलोमीटर चलने के बाद पोल्लाची नामकी एक बस्ती आती है और वहां से दाहिनी ओर आनेमलई के लिए
रास्ता कटता है. रुकावट के लिए खेद है, बीच में पोल्लाची आ गया. लेकिन उसे तो आना ही था. यहाँ भारत की सबसे बड़ी गुड की मंडी है और यहाँ का जानवरों का बाज़ार भी दक्षिण भारत में सबसे बड़ा है.
आनेमलई वास्तव में पश्चिमी घाट पर्वत श्रंखला का एक हिस्सा है आगे जाकर इसी पर्वत श्रंखला में भारत की सबसे ऊंची चोटी (हिमालय के बाद) आनामुडी कहलाती है जिसकी ऊँचाई ८८४२ फीट है. आनेमलई तो मात्र ८०० फीट की ऊँचाई पर ही है परन्तु चारों तरफ सदा बहार जंगलों से घिरा है. वैसे तो यह क्षेत्र बाघों के लिए आरक्षित है परन्तु यहाँ हाथियों का भी आवास है. यहाँ से एरविकुलम राष्ट्रीय उद्यान (Eravikulam National Park), चिन्नार वन्य प्राणी अभयारण्य (Chinnar Wildlife Sanctuary), परम्बिकुलम वन्य प्राणी अभयारण्य (Parambikulam Wildlife Sanctuary), और बगल के इंदिरा गांधी वन्य प्राणी अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यान (Indira Gandhi Wildlife Sanctuary and National Park) आसानी से जाया जा सकता है जो सभी केरल प्रांत में पड़ते हैं.
पोल्लाची पहुँच कर हम लोगों ने आनेमलई जाने वाली सड़क पकड़ ली थी. वहां से अब दूरी १६ किलोमीटर रह गयी थी. करीब ७/८ किलोमीटर के बाद ही हमें स्वागत द्वार दिखा. वहां एक जांच चौकी भी बनी थी. एक सूचना पट्ट दिखा “परम्बिकुलम वन्य प्राणी अभयारण्य”. आनेमलई और परम्बिकुलम दोनों के लिए एक ही रास्ता था. उसी जगह किनारे एक महिला फल आदि बेच रही थी. वहां से खरीदे गए चीकू बहुत ही मीठे और स्वादिष्ट थे. 
यहीं से उस रक्षित वन क्षेत्र की सीमा प्रारंभ हो जाती थी. आगे जंगलों में से गुअजरना हुआ, फिर घाट वाली पहाड़ी. दूर दूर तक केवल बांसों के जंगल ही दिख रहे थे और वे भी अच्छे मोटे और लम्बे लम्बे.


दुपहर खाने के वक्त हम लोग “टॉप स्लिप” पर पहुँच गए थे. टॉप स्लिप वह जगह है जहाँ से किसी समय सागौन के गोलों को पहाड़ की तली तक लुढका दिया जाता था. यहाँ सभी निजी वाहनों को खड़ा कर दिया जाता है. इसके आगे जाना हो तो जंगल विभाग से वाहन किराये पर लेना पड़ता है. यहाँ पर्यटकों के लिए आवासीय व्यवस्था भी अच्छी बनी है. रात्रि विश्राम करने वालों को जीप भी किराये से मुहैय्या करायी जाती है. यहाँ आनेवाले पर्यटक दो प्रकार के हैं; एक ऐसे जो पिकनिक या मौज मस्ती के लिए आते हैं और दूसरे, गंभीर किस्म के जो इन जंगलों/वन्य प्राणियों का बारीकी से अध्ययन करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का यहाँ आना पूर्व नियोजित रहता है. वे पहले से ही जंगल में कोटेज, वाहन आदि आरक्षित करा लेते हैं. हम तो पहली श्रेणी के थे. वहां के सूचना केंद्र से पूछ ताछ करने पर पता चला कि जंगल में भ्रमण के लिए बस की व्यवस्था तो है परन्तु आवश्यक संख्या में पर्यटकों के न होने से उस दिन वह सेवा बंद थी. विकल्प के तौर पर हाथी की सवारी की जा सकती थी, परन्तु वे अभी जंगल से पहली या दूसरी फेरी कर लौटे नहीं थे. एक हाथी के लिए ४०० रुपये देय था. हम लोगों ने एक हाथी के लिए पर्ची कटवा ली. वहाँ एक केन्टीन भी थी और जंगल महकमे के कर्मियों के लिए आवास भी बने थे. अब क्योंकि भूक को तो लगना ही था, हम लोगोंने केन्टीन का सदुपयोग किया.
केन्टीन के पिछवाड़े कई शूकर घूम रहे थे. हमारे भाई को थोडा अचरज हुआ. सीधे पुनः सूचना केंद्र में बैठे रेंजेर महोदय से पूछा गया कि वे शूकर क्या जंगली थे. उसने संजीदगी से कहा, मजाक न समझें, वे वास्तव में जंगली ही हैं. यहाँ खाने को आसानी से मिल जाता है इसलिए वे निडर होकर चले आते हैं. हमने भी अपना कौतूहल दूर किया और जाना कि उस जंगल में ३५० से अधिक हाथी हैं और शेरों की संख्या १८ हैं. इसके अतिरिक्त, तेंदुए, चीतल, साम्भर, गौर, मेकाक बन्दर आदि भी बड़ी संख्या में हैं. पक्षियों की तो बहुत सारी प्रजातियाँ हैं. यह भी जानकारी मिली कि जंगल विभाग का ही एक बाड़ा है जिसमें १०० के लगभग हाथी रहते हैं. उन्हें सुबह छोड़ दिया जाता है और वे जंगल में भ्रमण कर शाम तक अपने डेरे में पहुँच जाते हैं. उन्हें देखना हो तो सुबह आना पड़ता है.
हम सभी हाथी की सवारी पहली बार करने जा रहे थे. हमें बैठा कर जंगल के अन्दर ले जाया गया परन्तु देखने के लिए कुछ बड़ी बड़ी पहाड़ी गिलहरियाँ दिखीं और कुछ मेकाक बन्दर जो बहुत ही जल्द आँखों से ओझल भी हो गए. आधे घंटे के बाद ही हाथी को लौटा दिया गया और हम यह चाह भी रहे थे क्योंकि झटकों से तकलीफ हो रही थी, हालाकि चारों तरफ

के हरे भरे जंगल बड़े सुहावने लग रहे थे. हाथी से उतर कर सीधे अपनी गाडी का रुख किया और लौट आये थे. कदाचित आनेमलाई जाने के लिए अप्रेल का महीना उपयुक्त नहीं था.