Archive for नवम्बर, 2011

लोग हैं कि मानते नहीं

नवम्बर 26, 2011

कुछ  महीनों पहले हमारे भोपाल के घर में पनाह लेने आया था एक वाइपर और बड़ी मशक्कत के बाद उसे पकडवा कर जंगल में छुडवा दिया गया था.  अभी अभी जब हम केरल के अपने घर में रात का खाना खा ही रहे थे कि खबर आई, घर के बाहर की गली में एक बड़ा सांप निकला है. हमने तुरंत ही कहला भेजा था कि सांप को खेतों की तरफ जाने के लिए प्रेरित करें. इस बीच घर के सामने (२५० फीट) रहने वाली लतिका ने लोगों को बुला लिया था. जल्दी जल्दी खाना खाकर जब हम वहां पहुंचे, तब तक सांप का काम तमाम हो चुका था. वह बेचारा अपनी प्राण रक्षा के लिए हमारे कम्पौंड  के अन्दर चला गया था और जमा कर रखी  गयी लकड़ियों के नीचे छुप  गया.  उन लोगों ने लकड़ियों को हटाकर उसे बाहर निकाला और लाठियां बरसाई. उसे तो ढेर होना ही था.

हमने अपनी अप्रसन्नता जाहिर की तो उन्होंने कहा, सर यह बहुत खतरनाक सांप है. मरे हुए सांप को उलट पुलट कर हमें दिखाया और हमने भी पाया यह तो उसी प्रजाति का है जो हमारे भोपाल के घर में भी आया था.

हमने उनसे प्रश्न  किया,  क्या हम लोग (मनुष्य) कम जहरीले हैं. इस इलाके में क्या यह अकेला ही था. मुझे मालूम है और वे भी इस बात को जानते थे कि हमारे घर के आस पास ही दर्जनों सांप हैं. पूरे गाँव की बात तो छोड़ ही दें. वहां पशु चिकित्सा में अध्ययनरत एक और युवा भी था जिसने पुष्टि करते हुए कहा कि वह खतरनाक था और हमें समझा रहा था. हमें तो बड़ा गुस्सा आ रहा था और हमने एक प्रकार से उसकी क्लास ले ली थी.

हमने सामने वाली लतिका को बहुत सुनाया था. उन्हें  याद  भी दिलाया  कि केरल में सर्पों  की पूजा  की  लम्बी परंपरा रही है जो आज भी बदस्तूर जारी है. यही लोग नित्य घर में सर्पों के लिए बने चबूतरे में दीप भी जलाते हैं. यह कैसा विरोधाभास, एक तरफ सर्प मूर्तियों की पूजा करते हैं और दूसरी तरफ सप्राण दिख जाए तो उसकी हत्या करने से भी नहीं चूकते. उस निरीह प्राणी को अपने रस्ते जाने दिया जाता या फिर जाते तक उस पर निगाह रखते कि घर में न घुसे. लठैतों को बुलाने की क्या जरूरत थी. लतिका ने सब चुप चाप सुना. शायद  उसे आत्म ग्लानि हुई हो क्योंकि वह खुद भी उनके लिए दीप जलाती है.

अब क्या किया जा सकता था. वहीँ खेतों के पास ही अंत्येष्टि करा कर इस उम्मीद से कि लोग भविष्य ऐसा काम नहीं करेंगे, घर के अन्दर चले गए.

हेलिकोनिया Heliconia

नवम्बर 7, 2011

अपने बच्चों की पैदायिश  के बाद उन्हें बढ़ते हुए देखने में एक अलग प्रकार के सुख की अनुभूति होती है. बच्चे का करवट बदलना, घुटनों के बल जमीन पे रेंगना, छोटी छोटी चीजों को पकड़ना, खड़े होना, चलना, दौड़ना ऐसे बहुतेरे पड़ाव होते हैं. कुछ कुछ यही अनुभूति अपने पालतू जानवरों को लेकर होती है. अपने द्वारा रोपे गए बीज का अंकुरित होना, पौधा बनना, उसका बढ़ना, फूल लगना आदि भी हमें उतना ही प्रफुल्लित करने की क्षमता रखते हैं.

वर्षों पहले हम कोंकण तट पर गए हुए थे. वहां हमने “हेलिकोनिया” नामक एक पौधा देखा जिसमें बड़े सुन्दर फूल लटक रहे थे. अंग्रेजी में उसे lobster claw (झींगे  का पंजा) कहते हैं. पहले भी देखा था परन्तु अब हम उसके जड़ों  में खोदकर एक छोटा पौधा उठा लाये थे. २ साल के बाद फूल खिले फिर कुछ कारणों वश हमें उसे जमीन से उखाड़ कर गमले में रखना पड़ा. अब चार साल होने को हैं. फूलों का कहीं अता पता नहीं है.

 यह तो वैसा ही हुआ कि बच्चा बड़ा तो हो रहा था परन्तु कंठ नहीं फूट रहे थे. चिंता हुई और कुछ जानकारी हासिल की. पता चला कि हेलिकोनिया तो उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में ही पनपता है. गर्मी भी हो अच्छी बारिश भी. यहाँ कुछ वर्षों से अपर्याप्त वर्षा हो रही थी. इस वर्ष ईश्वर की कृपा से सभी नदियाँ और जलाशय उफान पर हैं. हमारा हेलिकोनिया भी प्रफुल्लित हो उठा और एक कली प्रकट हुई. चार छै   दिनों के बाद पंखुड़ी निकली. कुछ दिनों बाद एक और पंखुड़ी और इस तरह यह सिलसिला चलता रहा. अबतक छै पंखुड़ियां निकल चुकी हैं और इसके आगे कुछ बढ़ोतरी की सम्भावना नहीं रही. गमले में रखने के कारण यह स्थिति बनी होगी अन्यथा इसके फूल काफी लम्बाई ले लेते हैं. इसकी अनेकों प्रजातियाँ पायी जाती हैं. प्रस्तुत है मेरे  अपने हेलिकोनिया (Heliconia rostrata) के क्रमवार चित्र.