२५ दिसंबर ईसाई मतावलंबियों का बड़ा दिन था परन्तु इस बार यह रविवार को पड़ा. नौकरी पेशा वालों की एक छुट्टी गयी. हम कोयम्बतूर में अपने भाई साहब के घर थे. एक छुट्टी के इस तरह बर्बाद होने से हमारा भतीजा दुखी था. हमने सुझाया चलो कुछ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जावे. यहाँ से कुछ ३० किलोमीटर की दूरी पर एक बाबाजी ने (सदगुरु) कुछ विशिष्टता लिए एक ध्यान केंद्र बना रखा है. हमारी बात निरर्थक नहीं गयी और वहां के लिए निकल पड़े. उस पर अलग से लिखना होगा. बाद के लिए सुरक्षित कर रखा है. दुपहर के बाद वहीँ से एक निकटस्थ जलप्रपात को भी देखने गए, इस की भी चर्चा बाद में ही करना चाहूँगा. जलप्रपात की ओर जाते हुए रास्ते में एक सूचना पट्ट दिख गया था जिसमें किसी “एमु” फार्म का उल्लेख था. हमने कह दिया, जलप्रपात को मारो गोली, हम तो एमु फार्म देखना चाहेंगे. तब भाई ने समझाया, समय बहुत है, लौटते में वहां चलेंगे. बात हमें भी जम गयी थी.
वापसी में “मदमपट्टी” नामके कस्बे में पहुंचे जहाँ के तिगड्डे में हमने एमु फ़ार्म के बोर्ड को देखा था. वहां पूछ ताछ करने पर कुछ पता नहीं चला. एक दूकान जहाँ मुर्गियां आदि बिक रही थी, वहां हमें बड़ी उम्मीद थी परन्तु वहां के दूकानदार को एमु के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अंत में एक सज्जन जानकार निकले. उन्होंने उस तिगड्डे से निकलने वाली सड़क पकड़ कर ४ किलोमीटर तक बगैर इधर उधर मुड़े सीधे जाने को कहा और बताया कि एक गाँव “करडीमडई ” आएगा वहां श्री जयराज का घर पूछ लें क्योंकि वे ही हैं जो एमु पाल रखे हैं. हम लोग ख़ुशी ख़ुशी उस नए रास्ते पर चल पड़े और गाडी के मैलोमीटर को भी देख लिया. कुछ दूर चलने के बाद हमारी बहू ने आवाज़ लगाई, गाडी रोको, सड़क के किनारे एक बड़ा पक्षी पंख फैलाये हुए है. गाडी रोक दी गए और पैदल ही पीछे चल पड़े. वहां सड़क के किनारे एक रंग बिरंगे परों वाली पक्षी (टर्की) अपने प्रणय निवेदन युक्त नृत्य लीला में व्यस्त था. उसकी माशूका वहीँ बगल के झाड़ियों में दिखी भी. यह कदापि जंगली तो नहीं था क्योंकि वहां आसपास आबादी थी.और कुछ चलने के बाद “करडीमडई” पहुँच गए. एक सुन्दर सा गाँव जहाँ सभी पक्के मकान थे. एक पीपल के पेड़ युक्त चौपाल भी था. पेड़ के नीचे ढेरों नंदी तथा सर्प मूर्तियाँ ऐसे ही पड़ी थीं. वहीँ हमें श्री जयराज भी मिल गए और हमारा मंतव्य जानकर सम्मान से अपने फ़ार्म को दिखाने ले गए.
“एमु” आस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय पक्षी है. शुतुरमुर्ग के बाद एमु ही विशालतम है और पंखों के होते हुए भी उड़ने में असमर्थ. दौड़ते समय यह ५० किलोमीटर की गति प्राप्त कर सकती है और ९ फीट तक का छलांग लगा सकती है. ऊँचाई लगभग ६ फीट की होती है जो उसे डेढ़ साल की अवस्था में ही प्राप्त हो जाती है. वजन ४० से ६० किलो तक हो सकती है. इसके मांस में वसा मात्र २ प्रतिशत ही पायी जाती है अतः मांसाहारियों में लोकप्रिय हो चली है. इसके शरीर से जो तेल निकलता है, औशधीय गुणों से युक्त बताया जाता है और दर्द निवारक के रूप में, प्रसाधन सामग्रियों तथा केश तेल आदि में प्रयोग किया जाता है. मानव शरीर पर इस तेल की अनुकूलता अभी भी प्रश्नों के घेरे में है. प्रति एमु से लगभग ६ वर्ग फीट चमड़ा प्राप्त होता है जिसका प्रयोग वस्त्र निर्माण में किया जाता है. पैरों का चमड़ा भी मगरमच्छ के चमड़े जैसा दीखता है और विभिन्न आकर्षक वस्तुओं के निर्माण में लिया जाता है. इसके नाखून भी लोकेट की जगह हार में लगाये जाते हैं. एमु का प्रजनन काल भारत में ओक्टूबर से फरवरी के बीच होता है और इस दौरान एक मादा ३० अंडे तक देती है. एक अंडे का वजन लगभग आधा किलो होता है जो हरे रंग का होता है. अंडे सेने का काम नर एमु करता है और ५२ दिनों में चूजे निकल आते हैं.
जयराज जी का फार्म उनके घर से लगा हुआ है. एक बाड़े में जो तार की जालियों से फेंसिंग किया हुआ था, कुल २४ एमु रखे गए थे. उनमें से एक की गर्दन में कुछ घाव सा था जिसके कारण उसे एक अलग बाड़े में रखा गया था. हम तो बड़े उत्साहित थे अतः इसके पहले कि कुछ बातचीत हो, हम तस्वीर लेने की जुगाड़ में थे. जाली आड़े आ रही थी. जब उसकी छेद में कैमरे की लेंस लगाकर तस्वीर लेने की कोशिश कर रहा था तब एक दूसरे मनचले एमु ने मेरे केमरे से बंधी डोर को अपनी चोंच से दबोच लिया. जोर आजमाइश के बाद ही मुझे अपना केमेरा मिल सका. इन पक्षियों में अत्यधिक कौतूहल था और बड़े मिलनसार भी लगे क्योंकि लगभग पूरे के पूरे हम लोगों से मिलने जाली से सटकर खड़े हो गए थे.जयराज जी ने बताया कि एमु पक्षियों का पालन अब कोयम्बतूर में भी जोर पकड़ रहा है. एक इकाई ६ पक्षियों की होती है. प्रति इकाई के लिए लगभग एक सेंट (४३६ वर्ग फीट) जगह की जरूरत होती है. उनके पास अभी ६ इकाईयां (२४ पक्षी) हैं. पक्षियों की प्राप्ति ईरोड स्थित एक बड़ी कम्पनी से होती है जिनके पास हेचरी सहित पूरी व्यवस्थाएं हैं. प्रति इकाई के लिए १.५ लाख रुपयों की अमानत राशि जमा करनी होती है एवज में ईरोड की कम्पनी कृषक के फार्म में बाड़ लगा कर ३ माह की आयु वाले एमु छोड़ जाती है. पक्षियों के लिए आहार भी कम्पनी ही प्रदान करती रहती है. पक्षियों का बीमा भी कम्पनी द्वारा ही कराया जाता है. पखवाड़े में एक बार कम्पनी का चिकित्सक आकर पक्षियों की जांच कर लेता है और आवश्यक हुआ तो दवाईयां भी निःशुल्क प्रदान की जाती हैं. कृषक (संरक्षक) को केवल दाना पानी ही देना होता है और एवज में कम्पनी हर माह ६००० रुपये अदा करती है. वर्ष में बोनस सहित कुल ८४,००० रुपयों की आय होती है. जब एमु बड़े होकर अंडे देने योग्य हो जाते हैं (१४ से १८ महीनों में) तब कम्पनी उन्हें उठा ले जाती है और पुनः उतने ही चूजे छोड़ जाती है. जयराज जी ने बताया कि कम्पनी ले जाए गए एमुओं का वध कर उससे प्राप्त मांस, तेल, पर आदि का निर्यात किया जाता है. कुल मिलाकर जयराज जी बड़े संतुष्ट लगे और उनका कहना भी था कि यह धंदा उनके लिए बड़ा फायदेमंद साबित हुआ है.
इस आलेख को लिख ही रहा था जब मुझे सूचित किया गया की तामिल अखबार में एक दूसरे कम्पनी का विज्ञापन आया है और वे ६००० रुपयों की जगह ८००० रुपये प्रति माह एमु पालक (कृषक) को प्रदान कर रहे हैं.
विश्व के कई अन्य देशों में तो एमु पालन हो रहा है परन्तु भारत में सर्वप्रथम १९९८ में आंध्र प्रदेश के एक उद्यमी ने इसे प्रारंभ किया था. आंध्र प्रदेश के अतिरिक्त अब महारष्ट्र, तामिलनाडू तथा कुछ कुछ केरल और कर्नाटक में भी इस व्यवसाय ने अपने पैर पसार लिए हैं.