कोयम्बतूर (तामिलनाडू) से लगभग ३० किलोमीटर दूर वेल्लियांगिरी पर्वत की तलहटी में, वर्षा वनों के मध्य, १५० एकड़ के भूभाग में फैला एक संस्थान है, “ईशा”. एक आधुनिक महानात्मा जिन्हें सदगुरु कह कर संबोधित किया जाता है, उनके क्रिया कलापों का केंद्र “ईशा संस्थान – Isha Foundation”. ऐसा कहा जाता है कि यह संस्थान एक सार्वजनिक सेवा संगठन है, जो मानव जाति की भलाई के लिए धार्मिक बंधनों से मुक्त रह कर कार्य करने में विश्वास रखता है. आंतरिक परिवर्तन के लिए उनके अपने शक्तिशाली योग कार्यक्रम हैं. इनके योग कार्यक्रम भारत में ही नहीं अपितु अमरीका, कनाडा, इंग्लॅण्ड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, मलेशिया आदि देशों में भी संचालित हो रहे हैं. समाज और पर्यावरण के लिए अनेकों प्रेरणादायी परियोजनाओं का सञ्चालन भी किया जा रहा है. कईयों का मानना है कि सदगुरुजी ने वहां “आतंरिक अभियांत्रिकी – Inner Engineering” जैसे प्रयोग कर लाखों को उनके स्व से परिचित कराया है.
सदगुरु के नाम से जाने जाने वाले इस रहस्यमयी योगी का वास्तविक नाम जगदीश (जग्गी) वासुदेव है जिनका जन्म दिनांक ३ सितम्बर १९५७ को मैसूर में हुआ था. उनके पिता एक डॉक्टर थे. १३ वर्ष की आयु से ही उन्होंने एक योग्य गुरु के आधीन रहकर योग विद्या का गहन अध्ययन प्रारंभ कर दिया था. स्कूली जीवन में उनका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा और मैसूर विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी. २५ वर्ष की आयु में वे एक गहरे आध्यात्मिक अनुभव से गुजरे जब उन्हें ऐसा लगा कि वे अपने शरीर को छोड़ कर सर्वव्यापी हो गए हैं. इस अनुभव की पुनरावृत्ति होती रही. अंततोगत्वा उन्होंने इस अनुभव को ही जग से साझा करने की ठानी.हम तो ठैरे एक अड़हा (अज्ञानी) और हमारे साथ जो थे, भाई, बहू और भतीजा सब एक ही नाव में थे. वहां ताक झाँक करने ही तो गए थे. पहुँचने पर वहां का जन सैलाब देख चकित थे. चौकीदार ने गाडी खड़ी करने की जगह बतायी और प्रश्न किया, आश्रम जाना है कि मंदिर. आश्रम के बदले हम लोगोंने मंदिर को चुना. रास्ता तो अपने आप मालूम होता गया. एक कतार लगी थी वहां मालूम करने पर पता चला कि कुंड में नहाने के लिए लोग पर्ची कटवा रहे हैं. दर्शकों में उत्तर भारतीयों की बड़ी संख्या दिखी. हम लोग आगे जाकर देख आये, लोग कुंड में नहा कर गीले कपडे पहने हुए ही ३० फीट नीचे एक दूसरे भूगर्भीय कुंड में स्फटिक से बने शिव लिंग के दर्शन कर आ रहे थे. अच्छी ठण्ड थी सो हम लोग वहीँ से शीश नवाते हुए अर्ध गोलाकार (स्तूप नुमा) भवन की ओर चल पड़े. बाहर प्रांगण में एक नंदी भी स्थापित था जिसकी विशालता से तो प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सका परन्तु वह नंदी की अपेक्षा अपनी बड़ी सींगों के कारण बैल जैसा लग रहा था. स्तूपनुमा भवन के प्रवेश द्वार के बाहर ही एक भारी भरकम स्तम्भ था जिसके चारों तरफ विश्व के सभी धर्मों के प्रतीक चिन्ह बने थे. कुछ ही देर में हम लोग अन्दर थे और वहां के महिला स्वयं सेवकों द्वारा निःशब्द रहने का आग्रह किया जाता रहा. उस गोलाकार विशाल कक्ष में लोगों को गोलाई में कतारबद्ध बिठाया जाता रहा. इसी गोल भवन में सर्प की कुंडली नुमा आधार पर एक शिव लिंग स्थापित था जिसकी ऊँचाई १३ फीट ९ इंच बताई जाती है. लिंग के चारों तरफ दिये रोशन किये गए थे. यही ध्यान लिंग है. उनके शब्दों में “ध्यानलिंग एक आकार है, जहाँ पर ध्यान घटित होता है। योग विज्ञान का सार ध्यानलिंग, ऊर्जा का एक शाश्वत और अनूठा आकार है। यह ध्यानलिंग विश्व का सबसे बडा पारा-आधारित जीवित लिंग है।”. ध्यानलिंग का यह चित्र http://ishafoundation .org से साभार
ध्यान लिंग की परिक्रमा कर हम लोगोने अपना स्थान ग्रहण कर लिया. उस गोलाकार विशाल कक्ष में सब लोगों के बैठ जाने के बाद पूर्ण निःशब्दता की स्थिति बन गयी थी. दो स्वयं सेविकाएँ अपने हाथ में कांसे की बड़ी कटोरी (बर्तन) जैसा रखे हुए ध्यानलिंग के दोनों तरफ आसीन हो गयीं. उनके हाथों में छोटी लकड़ी की छड़ी थी जिसे वे उस पात्र से (बाहर की तरफ) टकराते हुए घुमा रहीं थीं. इस क्रिया से एक कम्पन उत्पन्न हो रहा था जो धीरे धीरे तीव्र होता गया. कुछ देर बाद ही घंटियों की आवाज फिर किसी व्यक्ति के द्वारा शास्त्रीय तर्ज पर आलाप. इस बीच मृदंग आदि की ध्वनि भी आती रही. यह सब लयबद्ध था जो लोगों को ध्यान में केन्द्रित होने के लिए सहायक होता प्रतीत हुआ. अलबत्ता हम लोगों की उत्सुकता तो यह जानने की थी कि वहां क्या हो रहा है. बाद में किंचित ग्लानि भी हुई परन्तु यह सोच कर कि पहली बार अमूमन सबकी प्रतिक्रियाएं ऐसी ही होंगी, अपने मन को समझा दिया था. संभवतः अगली बार यदि जाना होगा तो चित्त को, ध्यान लगाने पर ही केन्द्रित करेंगे. वहां का माहौल सर्वथा प्रेरक ही है.लगभग आधे घंटे के इस सत्र के बाद बाहर आना हुआ और सीधे चल पड़े केन्टीन की तलाश में. वहां पहुंचे तो कतार में खड़ा होना पड़ा. वैसे भांति भांति के खाद्य पदार्थ उपलब्ध थे. पहले वांछित वस्तु का मूल्य भुगतान कर पर्ची लेनी होती है जिसे एक अलग काउंटर पर देना होता है. अपना आहार ग्रहण करने के उपरांत हम लोग बाहर निकलने के लिए उद्यत हुए. बाहर बहुत सारी स्टालें लगी थीं जहाँ कई प्रकार के वस्तुओं का विक्रय किया जा रहा था. इनमे से कुछ कुछ ग्रामीण उद्यमियों के भी थे जो अपने उत्पाद बेच रहे थे. उन सबको देखते हुए जब बाहर निकल ही रहे थे तब एक जगह एक कार (BMW) खड़ी दिखी जिस के अगल बगल देखने पर पता चला कि वह कार सदगुरूजी की थी और वह विक्रय के लिए रखी गयी थी. ऐसा कहा जाता है कि इस गाडी को सदगुरूजी स्वयं चलाया करते थे और कोयम्बतूर से मैसूर के १८४ किलोमीटर की दूरी लगभग २ घंटे में तय कर लिया करते थे. यह भी कहा जाता है कि सदगुरुजी को १० किलोमीटर आगे तक की सड़क का पूर्वाभास रहा करता था अतः वे बेहिचक पूरी रफ़्तार से गाडी चलाया करते थे.
ध्यान लिंग के पृष्ठ भाग में जाकर कुछ तस्वीरें लीं, अन्दर की तरफ तो छाया चित्र लेना पूर्णतः प्रतिबंधित ही था.
ईशा संस्थान के पर्यावरण के प्रति सजगता का एहसास वहां के नर्सरी से भी हो रहा था जहाँ भांति भांति के पौधे विक्रय के लिए भी उपलब्ध थे.
अब हमें अपनी गाडी तलाशनी थी सो उस तरफ आगे बढे तभी पाया, बड़ी बड़ी कटी चट्टानें एक झोपड़ी के इर्द गिर्द पड़ी थीं. उस झोपड़ी में ही पत्थरों को तराश कर आकृति दी जाती है. अभी निर्माण चल ही रहा है और निकट भविष्य में यह संस्थान और भी अधिक विशाल होकर भव्यता प्राप्त करेगा. अपनी गाडी में बैठ परिसर के बाहर आ गए और मुख्य सड़क तक पहुँचने के पहले दो बेरक नुमा भवनों के बीच से स्तूपनुमा भवन का यह नज़ारा बड़ा भाया.
अंततः ईशा संस्थान को अलविदा कर “कोवई कूर्तालम” नामक जलप्रपात के लिए निकल पड़े.
जनवरी 5, 2012 को 7:34 पूर्वाह्न
आपकी हर पोस्ट की तरह सुन्दर चित्र। स्तूपनुमा मन्दिर, बैलनुमा नन्दी, पर्ची वाला कुंड और २ घंटे में १८४ किलोमीटर जाने वाली बीएमडब्ल्यू देखकर धन्य हुए।
जनवरी 5, 2012 को 8:13 पूर्वाह्न
यह वह जीवंत कथा है जो बताती है कैसे कोई अकेला व्यक्ति अपने जीवन काल में ही एक संस्थान बन जाता है
जनवरी 5, 2012 को 8:18 पूर्वाह्न
देख कर बहुत अच्छा लगा, परसों घूमने जा रहे हैं..
जनवरी 5, 2012 को 9:10 पूर्वाह्न
सुन्दर दृश्य. अंदर और बाहर .
जनवरी 5, 2012 को 9:42 पूर्वाह्न
रोचक जानकारी इतनी विस्तृत कि लगा, खुद सैर कर आए। और चित्रों के बारे में क्या कहा जाए? वे तो आपकी पोस्ट से भी अधिक बोलते हैं।
जनवरी 5, 2012 को 9:51 पूर्वाह्न
पढ़ने से ही राहत महसूस होने लगी, पहूंचने पर तो असर जरूर होगा. आंखें खुली हों तो क्या-क्या देख-पढ़ लेती हैं.
जनवरी 5, 2012 को 10:40 पूर्वाह्न
बीएमड्ब्ल्यु से मन भर गया गुरूजी का.. 🙂
जनवरी 5, 2012 को 12:18 अपराह्न
Sundar !
जनवरी 5, 2012 को 3:55 अपराह्न
यह नज़ारा बड़ा भाया.अब “कोवई कूर्तालम” के दृश्यांकन का इंतजार है.
जनवरी 5, 2012 को 6:15 अपराह्न
इस नयी, रोचक, अनूठी जानकारी के लिए आभार।
जनवरी 6, 2012 को 9:21 पूर्वाह्न
अनूठा स्थापत्य! ध्यान लिंगम की तस्वीर देख कर ही स्वर्गिक अनुभूति हो रही है… प्रत्यक्ष अनुभव तो होश ही उड़ा देगा!!
जनवरी 6, 2012 को 9:35 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी जानकारी मिली, अभी थोड़े दिन पहले सदगुरू जी का साक्षात्कार सुना था तो उसमें उन्होंने बताया था कि नंदी हिल्स में किसी पेड़ के नीचे उन्हें अद्भुत शक्ति प्राप्त हुई थी, क्या आपको भी इस बात का वहाँ पता चला।
जनवरी 6, 2012 को 10:32 पूर्वाह्न
you may read here people comments about some Gurus.
http://www.fake-guru.com/forum.php
जनवरी 6, 2012 को 2:19 अपराह्न
@विवेक रस्तोगी : बहुत सारी बातें मालूम हुईं. पक्ष में भी और विपक्ष में भी. हम तो उस स्थल से प्रभावित हुए हैं न की सद्गुरु जी के व्यक्तित्व से, जो हमारे लिए तो अनजाना ही है.
जनवरी 6, 2012 को 2:50 अपराह्न
@ संजय बेंगानी जी: उनके पास भक्तों की कोई कमी नहीं है. एक दूसरा अत्याधुनिक वाहन सुलभ हो चुका होगा.
जनवरी 6, 2012 को 6:30 अपराह्न
अगली बार जाइयेगा तो ध्यान में चित्त लगाईयेगा 🙂
जनवरी 8, 2012 को 12:11 पूर्वाह्न
’अड़हा’ मानुष बना रहना भी सबके लिये सहज नहीं:)
यह हमारी संस्कृति की विशेषता ही है कि किसी भी विधि से ईश प्राप्ति के मार्ग को मान्यता मिल जाती है। चित्र सभी आकर्षक हैं।
’कोवई कूर्तालम’ पहुँचने का इंतजार कर रहे हैं।
जनवरी 9, 2012 को 5:59 अपराह्न
सचित्र वर्णन के लिए धन्यवाद!
‘हिन्दू’ अर्थात ‘सनातन धर्म`की मान्यतानुसार, हमारे ज्ञानी पूर्वज सांकेतिक भाषा में विष्णु, निराकार नादबिन्दू के वाहन, पृथ्वी के केंद्र, अर्थात ‘पाताल’ में. संचित मूल अनंत शक्ति को, अनंत / शेष नाग द्वारा (अर्थात अनंत शक्ति, जिसका प्रभाव अनंत (‘०’) शून्य रुपी ब्रह्माण्ड के भीतर व्याप्त है) ,,, और साकार रूप को पशु-जगत द्वारा दिन में नीले प्रतीत होते ‘आकाश’ में उड़ते, पक्षी राज गरुड़ द्वारा दर्शाते आये हैं… और ‘धराताल’ पर त्रिलोकनाथ, त्रिनेत्रधारी, आदि, आदि, महेश के वाहन को शक्तिशाली (आनंद देने वाले) नंदी बैल के माध्यम से…
और, इस प्रकार, विष्णु-महेश, दोनों ही चतुर्भुजी, अर्थात चार + चार, आठ (‘8’) दिशाओं के राजा को, अंतरिक्ष के शून्य में नाचती पृथ्वी द्वारा, कुल मिला कर ‘गंगाधर शिव’ को, अष्ट-भुजा-धारी, अर्थात दो ‘०’ से बने ‘8’ दिशाओं के राजा दर्शाया जाता आ रहा है… यानि सूर्य से बृहस्पति सौर मंडल के आठ सदस्यों से सम्बंधित…
और इसी भांति पृथ्वी से ही उत्पन्न, और इसी के गुरुत्बाकर्षण क्षेत्र के भीतर नाचती पार्वती, अर्थात चन्द्रमा को भी अष्ट-भुजा धारी शक्ति रुपी…
और नवें ग्रह, सूर्यपुत्र शनि को, शक्ति को ऊपर और नीचे, दोनों दिशाओं में, उठाने अथवा गिराने वाला (मानव शरीर में नर्वस सिस्टम द्वारा, सहस्रार चक्र तक, अथवा मूलाधार तक, यानि कुल १० दिशाओं पर नौ ग्रहों द्वारा नियंत्रण हर व्यक्ति पर – गुरु हो या चेला! जो भी शून्य विचार वाली स्थिति में पहुँच सके ध्यान लगा कर – घर में या मंदिर में, कहीं भी)…:p)
जनवरी 10, 2012 को 8:23 अपराह्न
धन्यवाद इस जानकारी का.
बहाई धर्म और लोटस टेम्पल से साम्यता लिए लगी ये अवधारणा.
जनवरी 11, 2012 को 1:35 पूर्वाह्न
बढिया घुमक्कड़ी पोस्ट है, काफ़ी जानकारियाँ मिली।
जनवरी 11, 2012 को 11:02 पूर्वाह्न
भारत मे ऐशी दुकानो के लिये बहुत बङा अन्धविश्वासी बाजार है।
जनवरी 12, 2012 को 12:53 अपराह्न
किसी स्थान को इतनी दृष्टियों से एक ही बार देख आना आपका ही कार्य था. ध्यान के केंद्र ऐसे स्थलों पर ऐसे बनाए जाते हैं कि वे रोचक और आकर्षक लगें. ध्यान अपने आप जम जाता है. हम बने ही ऐसे हैं कि हम शब्द की ओर आकृष्ट होते हैं. वहाँ शब्द (संगीत आदि से) इसी लिए किया जाता है. आपके फोटो कम आकर्षक नहीं किसी तीर्थ यात्रा से. आभार सुब्रमणियन जी.
जनवरी 13, 2012 को 8:58 पूर्वाह्न
[…] पोस्ट “ध्यान लिंग – एक अभिनव प्रयोग” में इस बात का उल्लेख किया था कि हम लोग […]
जनवरी 15, 2012 को 10:43 अपराह्न
इस केन्द्र में बिलासपुरवासी द्वारिका अग्रवाल जी के सुपुत्र भी हैं, पहले आइआइटियन अब साधु.
अगस्त 13, 2014 को 3:57 अपराह्न
रोचक और प्रभावोत्पादक विवरण. आभार.