शहर की आपाधापी से तंग, काफी कुछ लोग अपने सप्ताहांत या छुट्टियाँ मनाने आसपास किसी ऐसी जगह जाना चाहते हैं जहाँ उन्हें कुछ सुकून मिल सके. कुछ शहरों के आस पास ऐसे स्थल भी होते हैं. कोयम्बतूर इस मामले में धनी है क्योंकि कुछ अच्छी झीलों के अतिरिक्त पश्चिमी घाट श्रंखला करीब से ही गुजरती है और वर्षा वनों का सानिध्य भी मिल जाता है. तामिलनाडू में एक जलप्रपात है जिसे “कुर्तालम” के नाम से जाना जाता है. यहाँ से बमुश्किल २५ किलोमीटर की दूरी पर एक दूसरा प्रपात है जिसे कोयम्बतूर वासियों ने “कोवई कुर्तालम” नाम दे रखा है. “कोवई” दरअसल कोयम्बतूर का ही दूसरा नाम है. संभव है कि भविष्य में इस शहर का यह परिवर्तित नाम बन जाए. रेलवे वालों ने तो कोयम्बतूर से चलने वाली एक रेलगाड़ी का नाम ही कोवई एक्सप्रेस रखा हुआ है.
पिछले पोस्ट “ध्यान लिंग – एक अभिनव प्रयोग” में इस बात का उल्लेख किया था कि हम लोग ध्यान लिंग देख कर “कोवई कूर्तालम” जलप्रपात देखने निकल पड़े थे. वहां जाने के लिए रास्ता खालिस ग्रामीण चुना गया क्योंकि कोई जल्दी नहीं थी. इस बहाने ग्रामीण अंचलों के दर्शन भी हो रहे थे. दोनों तरफ कुछ दूर तक तो धान के खेत थे. धान पक रहा था. लगभग १५ दिनों में कटाई की सम्भावना दिख रही थी. कुछ खेतों में करी पत्ते (मीठा नीम) की खेती हो रही थी. इस तरह करी पत्ते के खेत पहली बार देख रहे थे. ज्यों ज्यों आगे बढ़ते गए परिदृश्य में भी परिवर्तन होता रहा जैसे कहीं तो हल्दी, केले के खेत दिखे फिर सुपारी के बागान आदि. इस बीच सड़क के बाजू में कोई ग्राम देवता सा लगा. गाडी रोक कर देखा तो एक पेड़ के पीछे बाम्बी (दीमक का आवास) था जिसके सामने दो पत्थर की सर्पाकृतियाँ रक्खी हुई थीं. बाम्बी को गौर से देखने पर लग रहा था मानो मिटटी की वह आकृति मानव निर्मित हो.
काश हवा चल रही होती, धान का यह खेत भी लहलहाता दीखता
ऊपर के दोनों चित्र करी पत्ते के खेतों के हैं
चलते चलते हम लोग एक बस्ती में पहुंचे जहाँ एक नदी पर पुल पार करना था. उसके बाद तो जंगल महकमे का हद प्रारंभ हो रहा था. अपनी गाडी अन्दर ले जाने के लिए टिकट भी कटवानी पड़ी. यहाँ से सागवान के जंगल शुरू हो रहे थे. बीच बीच में कुछ खेत भी थे. दूर पश्चिमी घाट की पहाड़ियां दिखाई पड़ रही थीं.
पुनः जंगल, वह भी घनघोर. आगे का रास्ता तो पैदल ही पार करना था. गाड़ियों को खड़ी करने के लिए जंगल में ही जगह बनायी गयी थी
जहाँ हम लोगों ने अपनी गाडी छोड़ दी और आगे के कच्चे रास्ते पर पैदल चल पड़े. कुछ चलने पर दाहिनी तरफ पेड़ों के ऊपर से होकर जाने के लिए लक्ष्मण झूला जैसा वैकल्पिक मार्ग बना था. इस जंगल में लोगों को समूह में जाने की हिदायत दी जाती है क्योंकि यहाँ हाथियों की आवाजाही आम है.
यह काफी दूर तक जा रहा था. हम लोगोंने धरती पकड़ रक्खी और कच्चे रास्ते से ही आगे बढ़ते रहे. वापसी में झूले वाले पुल को आजमाने की सोची.वैसे दूर से ही ऊपर पहाड़ों से नीचे गिरता पानी दिख ही रहा था परन्तु प्रपात (?) तक पहुँचने में काफी समय लग गया. संभवतः वह दूरी २ किलोमीटर से कुछ अधिक रही होगी. कई जगहों में वह जल धारा कल कल कर प्रवाहित हो रही थी और लोगों को जहाँ भी अच्छा लगा वहीँ जलक्रीडा में मगन हो रहे थे.
एक पुल को पार करने के बाद नीचे सीढियां जा रही थी. कुछ दूर जाकर देखा तो आगे जाकर चट्टान से पानी नीचे आ रहा था जहा जंगल विभाग वालोंने बहते पानी को कुछ अधिक चौडाई लिए नीचे गिरने के लिए सीमेंट से कुछ निर्माण कर रखा है. वहां उस झरने के मूल प्राकृतिक स्वरुप को कृत्रिम रूप से परिवर्तित कर दिया गया है. हममें से किसी को सीढियां उतर कर नीचे जाने की इच्छा नहीं हुई इस डर से कि वापस आने के लिए शरीर को कष्ट देना होगा. अतः वहीँ एक जगह रह कर प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन कर संतुष्ट होते रहे. छोटे छोटे बन्दर काफी उछल कूद कर रहे थे तो उनकी शरारतों को भी केमरे में कैद करने की कोशिश की.
आस पास की झाड़ियों में कुछ अनजाने सी मकड़ियाँ दिखीं और बड़े परिश्रम से उनकी भी तस्वीरें लेकर संतुष्ट हो लिए.
वापसी यात्रा में एक आपदा टल गयी. एक पेड़ पर मधुमक्खियों का छत्ता बना था. किसी मनचले युवक ने पत्थर मार दी. मधुमक्खियों ने तिसपर हमला बोल दिया. हम लोग पीछे थे और वहीँ काफी देर तक रुके रहे. दूसरे जो आगे थे, अपनी जान बचाने के लिए दौड़ लगा दी. कईयों को मक्खियोंने डसा भी. आगे चलने पर पाया कि उस उद्दंड युवक की सब ने मिलकर धुनाई कर दी थी. आगे और जाने पर धरती पर चलने की जगह हम लोगोंने पेड़ों पर होते हुए, छोटी हवाई यात्रा कर ली और अपनी गाड़ी तक पहुँच गए. अब भी काफी समय था इसलिए सीधे “एमु फार्म” के लिए चल पड़े.
नोट: किसी भी चित्र पर चटका लगाकर बड़े रूप में देखा जा सकता है. अच्छा लगेगा.
जनवरी 13, 2012 को 9:16 पूर्वाह्न
वाह ! प्रकृति के सुन्दर चित्रों के साथ बहुत बढ़िया जानकारी के लिए आभार |
जनवरी 13, 2012 को 9:16 पूर्वाह्न
वाह अद्भुत दृश्य !
लगता है कि आपकी प्रेरणा से जल्दी ही केरल भ्रमण करना पड़ेगा!
जय जय आपकी !
जनवरी 13, 2012 को 9:33 पूर्वाह्न
वाह! सब कुछ कितना बेहतरीन… दिल बाग-बाग हो गया!
जनवरी 13, 2012 को 9:56 पूर्वाह्न
वाह, कोयम्बटूर की यात्रा में यह भी जुड़ गया अब तो।
जनवरी 13, 2012 को 12:06 अपराह्न
सुंदर जगह,सुंदर चित्र,जगह विशेष की जानकारी पूर्ण रोचक पोस्ट।
जनवरी 13, 2012 को 1:50 अपराह्न
hamesha ki tarah behtarin post.
जनवरी 13, 2012 को 4:29 अपराह्न
गज़ब के खूबसूरत दृश्य ..मनोहारी, विभोर करते से.
जनवरी 13, 2012 को 5:05 अपराह्न
सुन्दर मनभावन दृष्य एवं वृतांत…आनन्द आ गया.
जनवरी 13, 2012 को 5:55 अपराह्न
क्या वो झरना चित्रकोट / तीरथगढ़ से बेहतर लगा आपको ?
हरियाली बेशक मनमोहती है और ये जो फारेस्ट मोहकमे वाले हैं वो शायद पूरी दुनिया में एक जैसे ही होते हैं !
जनवरी 13, 2012 को 6:11 अपराह्न
@ अली :चित्रकोट या फिर तीरथगढ़ के सामने यह कहीं नहीं लगता.पश्चिमी घाट की तलहटी होने के कारण जंगल कुछ घने हैं. मैं तो उसे प्रपात ही नहीं मानता लेकिन इन लोगों का दिल रखने के लिए मान ले रहा हूँ.
जनवरी 13, 2012 को 7:42 अपराह्न
गजब की घुमक्कड़ी और चित्रकारी!
जनवरी 13, 2012 को 9:29 अपराह्न
Dhanyavaad Taau Ji! Aapne mera dil rakh liya…….. Aap samajh hi gaye hoge ki main kya kehana chah raha hu……
जनवरी 13, 2012 को 10:14 अपराह्न
मकडियां बड़ी सुंदर हैं. और करी पत्ते की खेती…!!
जनवरी 13, 2012 को 10:34 अपराह्न
महत्वपूर्ण जानकारी. तस्वीरें यात्रा के प्रति आपके असीम अनुराग को भी दिखलाती हैं…
जनवरी 13, 2012 को 11:19 अपराह्न
देख/पढकर कुछ भी व्यक्त कर पाना अत्यधिक दुरुह हो गया। मूक कर देनेवाला। आप पर न्यौछावर।
जनवरी 14, 2012 को 7:18 पूर्वाह्न
वाह इतना सुंदर स्थान घुमाने के लिए धन्यवाद.
जनवरी 14, 2012 को 10:15 पूर्वाह्न
सुंदर. नजारे तो हैं ही, नजर भी है यहां उन्हें देखने-जानने की.
जनवरी 14, 2012 को 6:05 अपराह्न
पा.ना. सुब्रमणियन जी, हमेशा की तरह, आपका सचित्र वर्णन बहुत सुन्दर लगा…
मैंने जो जल प्रपात देखे, उन में से जोग, तीरथगढ़, और चित्रकोट अति सुन्दर लगे…
दुर्गा समान अष्ट-भुजा धारी मकड़ी की फोटो बढ़िया लगीं…
जनवरी 14, 2012 को 8:22 अपराह्न
nice photos………………..
giftwithlove.com
जनवरी 18, 2012 को 11:08 पूर्वाह्न
nice and interesting
जनवरी 20, 2012 को 4:23 अपराह्न
आप बेशक न मानें, हम जैसे लोगों के लिये, जिन्हें साफ़ पानी भी सिर्फ़ प्योरिफ़ायर में दिखता है, ये प्रपात ही हैं।
पंजाब के तीन वर्ष के प्रवास में मैंने सबसे ज्यादा जिसे एंजॉय किया, वो था धान के लहलहाते खेतों में से होकर ऑफ़िस जाना, बेशक उसके लिये मुख्य सड़क छोड़कर टूटी फ़ूटी सड़क से होकर जाना पड़ता था, लेकिन मन कभी नहीं भरता था।
करी पत्ता, झूले वाला पुल, ग्राम-देवता वाले चित्र विशेष रूप से भाये।
जनवरी 20, 2012 को 8:37 अपराह्न
पेड़ों पर बने पुल को देख कर विश्वास नहीं होता कि यह भारत में ही है. सुंदर तस्वीरों ने वृत्तांत को मनभावन बना दिया है.