रोगग्रस्त हो जाने की स्थिति में आम आदमी किसी ऐसे डाक्टर के पास जाता है जिस पर उसकी आस्था हो और जो सर्वगुण संपन्न हो अर्थात एक जनरल प्रेक्टिशनर . यदि बीमारी उसके बूते के बाहर का हो तो किसी विशेषज्ञ को निर्दिष्ट कर दिया जाता है. शहरी व्यक्ति के पास बड़े विकल्प होते हैं. नाना प्रकार के विशेषज्ञ तो होते ही हैं ऊपर से “मालों” की तर्ज पर बहु विशेषता लिए (Multi Speciality) अस्पतालों की भी कोई कमी नहीं है. गाँव गवई का आदमी किसी स्थानीय पारंपरिक चिकित्सक से इलाज कराता है या फिर झाड फूंक का सहारा लेता है. कहीं कोई काम न बने तो फिर अपने देवी/देवता के पास जाता है. शहरी व्यक्ति भी लाचार हो जाने पर देवी/देवता के ही पास माथा टेकने पहुँचता है. देवी/देवताओं के पास ऐसे अनगिनत पीड़ितों की कतार लगती है जिन सबका निदान उस अकेले को ही करना होता है. बीमारियों को तो छोडिये, समस्याएं भी तो लोगों की अनगिनत होती हैं. एक ही समय में देवी/देवता को किसम किसम की बीमारियों, व्यक्तिगत (जाती) समस्याओं जैसे पुत्र प्राप्ति, संतान प्राप्ति, विवाह, शिक्षा, ऋण ग्रस्तता और न जाने किन किन के लिए उसे अपना माथा फोड़ना होता है.
जैसे डाक्टर अनेक होते हैं वैसे ही अपने यहाँ भी कई देवता थे और हैं भी. सब के सब GP (जनरल प्रेक्टिशनर). एक ही देवी/देवता की कई दूकाने भी हैं. अब जैसे शिव जी को ही लें. शहर में या आसपास उनके कई मंदिर मिलेंगे. हमारे पूर्वजों ने देवताओं और जनता जनार्दन की समस्या को लम्बे समय तक के चिंतन के बाद समझा और हल निकालने की कोशिश भी की. देवताओं के कार्य को सुव्यवस्थित करते हुए विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए अलग अलग मंदिरों को चिन्हित कर दिया, जो अब समाधान केंद्र बने हुए हैं. अपने यहाँ ऐसी मान्यता है कि जितने भी कष्ट, अनिष्ट होते हैं वे या तो ग्रह दोष के कारण होते हैं या फिर किसी देवता का कोप या पूर्व जन्म में किये गए पापों का परिणाम; प्रायश्चित तो अपरिहार्य है. ग्रह दोष से मुक्ति के लिए उन सब के अलग अलग मंदिर मिलेंगे. चेचक या छोटी माता है तो शीतला माता के पास जाओ. कुष्ट रोग है तो सूर्य मंदिर में जाओ, शनि से पीड़ित हो तो उनके मंदिर में जाओ या फिर बजरंगबली तो हैं ही. कहीं कहीं डिपार्टमेंटल स्टोर की तर्ज पर सभी देवता एक ही मंदिर में सहूलियत को दृष्टि से स्थापित मिल जाते हैं. सम्बंधित देवता के मंदिर अपने यहाँ नहीं है तो जहाँ कहीं भी हो वहां तक की यात्रा कर लो.
कांचीपुरम रुपी मंदिरों के सबसे बड़े माल में भटकते हुए एक ऐसे मंदिर में पहुंचना हुआ जहाँ हमारा बुखार उतर गया. लगा कि सैकड़ों एकड़ भूभाग में फैले एकाम्बरनाथ /एकाम्बरेश्वर, जो यहाँ के मंदिरों का दादा है, की तुलना में “ज्वरहरेश्वर” का यह मंदिर कितना अलग है.
एकाम्बर्नाथ से कुछ ही दूरी पर सड़क के दाहिने तरफ एक मंदिर दिख रहा था. जैसा पढ़ रखा था उसके हिसाब से ज्वरहरेश्वर का मंदिर यही कहीं बताया गया था. हमने पहले से ही मालूम कर रखा था कि यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (संघठन) के आधीन है और यहाँ का अभिरक्षक एक अरुमुगम नाम का व्यक्ति है. जब पुष्टि हुई कि यहीं ज्वरहरेश्वर है तो हमने अरुमुगम को तलाशा. एक निजी वाहन से आये अनजान व्यक्ति से अपना नाम सुनकर वह कुछ भौंचक्का सा हो गया था और संभवतः उसका शारीरिक ताप भी बढ़ गया होगा. परन्तु तत्काल संभलते हुए हमें पूरी निष्ठा से मंदिर के वाह्य भाग का अवलोकन करवाया.
ग्रेनाईट पत्थरों से बना और मजबूती से खड़ा, बाहर से ही मंदिर गजब का लग रहा था. बच्चों की भाषा में बेहद क्यूट. पृष्ठ भाग गोलाई लिए हुए था (गज पृष्ठ) जो इस बात का द्योतक था कि गर्भगृह भी गोलाकार होगा. गर्भगृह के ऊपर शिखर वाला हिस्सा ईंटों का बना है और स्पष्टतः चोल वंशीय हस्ताक्षर युक्त है. गर्भगृह में पहली बार खिड़कियाँ देख रहा था जिनमें पत्थर की ही जालियां बनी थीं. कुल मिलाकर कला पक्ष लालित्यपूर्ण है इसलिए मनभावन भी. ‘चोल’ या उसके पूर्व के ‘पल्लवों’ का कोई शिलालेख या तो नहीं था या फिर हम नहीं देख पाए. एक जगह तामिल में कुछ लिखा हुआ था और अरुमुगम के अनुसार “कांचीपुरम के बुनकरों को भूमि दान तथा करों में विशेष छूट दिए जाने तथा इसके एवज में उनके द्वारा मंदिर में पूजा अर्चना किये जाने के लिए नित्य व्यवस्था का उल्लेख है. यह भी कि बुनकरों के द्वारा अपनी आय से अंशदान न दिए जाने पर उनकी १० पीढियां पाप की भागी रहेंगी”. अबतक तो १० पीढियां कब की खप गयी होंगी.
बाहरी हिस्सों को देखने के बाद अब अन्दर जाना था. इस मंदिर में नित्य पूजा का प्रावधान है और पंडितजी का इंतज़ार था. अरुमुगम ने कहीं से गर्भगृह की चाबी हासिल की और हम लोग अन्दर प्रवेश कर गए (साधारणतया पूजित मंदिरों में इस बात की अनुमति नहीं होती). अन्दर एक छोटा सा शिव लिंग था जो टेढ़ा मेढ़ा बेडौल सा दिख रहा था. वास्तव में शिव के ६४ स्वरूपों में एक निराकार भी होता है और इस मंदिर में उन्हें निराकार होने की मान्यता है. अन्दर नजर दौड़ाने पर गर्भ गृह का गोलाकार होने की पुष्टि हो रही थी जो तामिलनाडू में कुछ असामान्य सा है. गणपति और कार्तिकेय तो अन्दर हैं ही परन्तु एक और विशेष बात वहां कुबेर का होना भी है. गर्भ गृह के अन्दर तस्वीरें ली तो जा सकती थीं परन्तु प्रचलित मर्यादा का पालन करते हुए अपने आपको अनुशासित रखा.
मंदिर की संरचना बिलकुल जानी पहचानी सी ही है. सामने नंदी मंडप उसके बाद भक्तों के लिए आयताकार मंडप फिर गोल गर्भ गृह. मंदिर के सामने दाहिनी तरफ एक और निर्माण दिख रहा था जो मूलतः पार्वती जी के लिए था (अब भंडार गृह) परन्तु कांचीपुरम में कामाक्षी (पार्वती) के लिए एक स्वतंत्र भव्य मंदिर के रहने से, अन्य शिव मंदिरों में पार्वती की प्रतिष्ठा वर्जित मानी गयी है. अन्य सभी मंदिरों की तरह यहाँ भी एक बावड़ी (तीर्थं) है जिसका नाम हम नहीं जान पाए. (जान कर क्या करते, सूखा जो पड़ा है).
ज्वरहरेश्वर जी के मंदिर के बारे कहा जाता है कि यहीं पर भगवान् शिव ने जुरहा या ज्वर्हा नामके किसी दैत्य का वध किया था. इस जगह प्रार्थना किये जाने पर देवगणों को किसी समय शारीरिक ताप के वृद्धि से जनित बीमारियों से मुक्ति मिली थी अतः मान्यता है कि यहाँ पूजा किये जाने पर लोगों का शारीरिक तापमान सामान्य हो जाता है.
संदर्भवश, ज्वरहरेश्वर जी का एक मंदिर वाराणसी में भी है, स्कंदमाता मंदिर जाने वाले रस्ते पर जैतपुरा में. इसके अतिरिक्त दक्षिण में ही पुदुकोट्टई के पास “नरतामलाई” में भी एक है. यहीं विजयालय चोलेस्वरम का एक मंदिर है (विजयालय चोल वंश का संस्थापक माना जाता है) जिसका गर्भगृह गोलाई लिए है परन्तु वाह्य स्वरुप आयताकार है. नरतामलाई नाम की जगह किसी समय जैनियों का केंद्र था (जो प्रमाणित है). यहाँ के गुफा मंदिर के दीवारों में जैन तीर्थंकरों को छील कर विष्णु प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं. मंदिरों का गोलाई लिया हुआ गर्भ गृह संभवतः उनके बौद्ध मूल की तरफ इशारा करता है. कांचीपुरम में भी बौद्ध धर्म का अस्तित्व रहा है.
नोट: इतिहास, पुरातातत्व आदि विषय कुछ मित्रों के लिए रसहीन होते है. अतः रोचकता बनाये रखने के लिए कुछ हास परिहास को समेटे बातें कह दी गयी हैं जिन्हें ईश निंदा कतई न समझा जाए.