Archive for मार्च, 2012

जौनपुर के मध्य युगीन सिक्के

मार्च 23, 2012

डॉ. मनोज मिश्र जी ने अपने चिट्ठे मा पलायनम में जौनपुर के इतिहास के बारे में किश्तों में एक आलेख लिखा था जिसे हम इतिहास में रूचि रखने वालों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण समझते हैं. शीर्षक बड़ा ही सुन्दर था “ये पार जौनपुर, ओ पार जौनपुर” (इस पार भी जौनपुर उस पार भी जौनपुर). क्योंकि गोमती नदी के दोनों और बसावट है. इस लेख को पढ़कर हमें मालूम हुआ कि हमारे पास जौनपुर के दो चार सिक्के जो संग्रहीत हैं, उनमे कितना इतिहास छिपा है. उनके चित्र हम नीचे दे रहे हैं.

Ibrahim Shahइब्राहीम शाह

Hussain Shah1Hussain Shah

Mod ShahMohd Shah

Md Shah

रायपुरम रो रहा है

मार्च 13, 2012

पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ कि चेन्नई की अखबारों में  रायपुरम (Royapuram) रेलवे स्टेशन के बारे में काफी कुछ पढने को मिल रहा है. उसकी गौरवमयी ऐतिहासिकता का बखान भी हो रहा है. उसके अंग्रेजी  वर्तनी (Royapuram) का प्रयोग करने पर  “रोयापुरम” प्रकट हुआ और उस इलाके के लोगों का रोना देखकर सहानुभूति हो ही आई. रेलवे के बारे में हिसाब किताब रखने वालों को शायद इस बात का गुमान  हो कि  रायपुरम का  रेलवे स्टेशन वर्त्तमान में भी जीवित प्राचीनतम भवन है. एक और महत्वपूर्ण  पहलू यह  भी है कि भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया में यह दूसरी रेलवे लाइन थी जिसका उद्गम रायपुरम रहा है. १६ अप्रेल १८५३ में भारत में पहली रेलगाड़ी बोरीबंदर (बम्बई)  से थाणे तक चलायी गयी थी तो मद्रास में  २८ जून १८५६ को रायपुरम से वालाजाबाद (आरकाट) १०२ किलोमीटर लम्बी रेल लाइन पर “आमूर”  तक के लिए रेलगाड़ी चल पड़ी थी.

मद्रास की सेना के कप्तान बार्नेट द्वारा १८५६ में रेखांकित

१ जुलाई १८५६ से जनता के लिए रेलसेवा उपलब्ध हुई.  दक्षिण का पहला रेलवे स्टेशन यही था और लम्बे समय तक मद्रास आने वाली सभी रेलगाड़ियाँ यहीं आकर रूकती थीं. उन दिनों मद्रास सेंट्रल नाम का कोई स्टेशन भी नहीं था जो सन १८७३ में ही अस्तित्व में आया.

यह आज का चेन्नई सेंट्रल है

चेन्नई के धरोहर प्रेमियों की वजह से आज से लगभग ६ वर्ष पूर्व इस स्टेशन का जीर्णोद्धार अनमने ढंग से  किया गया था जिसके लिए  ३० लाख रुपयों से अधिक का खर्च बताया जाता है.

यह बगल में बंदरगाह का कंटेनर यार्ड है

रायपुरम के ही बगल में मद्रास (अब चेन्नई) का बंदरगाह है और जहाज़ों से माल उतारने के बाद उन्हें आगे ले जाने के लिए रेलवे की आवश्यकता महसूस की गयी थी और इसी लिए वहां टर्मिनस बनाया गया था.यहाँ मद्रास  रेलवे कंपनी का मुख्यालय भी था. व्यावसायिक गतिविधियों रायपुरम के इर्दगिर्द ही विकसित भी हुईं. अपवादों को छोड़ दें और  भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल हों तो नगरों का विकास दक्षिण की तरफ अधिक हुआ प्रतीत होता है. यही बात यहाँ चेन्नई पर भी लागू होती है, दक्षिण की तरफ ही नए नए आवास क्षेत्र बनते गए और नगर बढ़ता गया. उत्तरी चेन्नई (रायपुरम) कुछ हद तक उपेक्षा का शिकार रहा है और इसलिए लोग तिलमिला रहे हैं. अभी नगर में रेल के दो मुख्य टर्मिनस हैं, एक तो चेन्नई सेंट्रल और दूसरा एग्मोर (Egmore) जिनपर भारी दबाव है. रेलवे वालों का सुदूर दक्षिण में ताम्बरम पर कृपा दृष्टि बनी हुई है और उस स्टेशन को टर्मिनस के रूप में विकसित किया जा रहा है क्योंकि रेलवे के पास वहां पर्याप्त भूमि उपलब्ध है. रायपुरम वालों का मत है कि नगर से उत्तर की ओर रहने वालों के लिए यह नया टर्मिनस असुविधाजनक रहेगा. वे चाहते हैं कि रायपुरम को भी एक टर्मिनस बनाया जाए क्योंकि वहां रेलवे के पास ७२ एकड़ की भूमि उपलब्ध है और पूरी सुविधाओं सहित कम से कम १६ प्लेटफोर्म बनाए जा सकते हैं. इस बाबत कई अभ्यावेदन किये जा चुके हैं और यह मांग एक नागरिक अन्दोलक का स्वरुप लेता जा रहा है. रेलवे बोर्ड  ने  रायपुरम वासियों की मांग की व्यवहार्यता के  अध्ययन के लिए  समिति गठित की है और उनका प्रतिवेदन संभवतः विचाराधीन है.

क्योंकि चेन्नई में कुछ समय रहने का अवसर मिल गया तो सोचा क्यों न उस प्राचीनतम स्टेशन के दर्शन कर लूं.  वैसे आज की तारीख में उस रायपुरम स्टेशन में प्रवेश के लिए कोई व्यवस्थित पहुँच मार्ग नहीं है. ऐसा लगा व्यस्ततम इलाके से एक गली में घुस पड़े हैं. हाँ आगे जाकर सब खाली खाली. एक दो रेल लाईनों को पार कर ही स्टेशन के प्रवेश द्वार का  दर्शन कर पाए.  उसी तरफ आधुनिक प्लेटफोर्म भी बना हुआ है उपनगरीय रेल सेवाओं के लिए उसका प्रयोग हो रहा है. बहुत कम गाड़ियाँ हैं जो यहाँ तक आती हैं और शायद इसीलिये यात्री भी दो चार ही दिखे. पूरे स्टेशन का अवलोकन किया ऐसे जैसे हम कोई रेलवे के निरीक्षक हों. कहीं कोई शिलालेख  या plaque नहीं दिखा जो यह बताता हो कि यहाँ से रेल यातायात का उद्घाटन मद्रास के तत्कालीन गवर्नर लार्ड हेरिस ने  किया  था. 

स्टेशन से लगी एक प्लेटफोर्म भी बनी हुई है जिसका शायद उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि रेलों का अब आवागमन भवन के दूसरी तरफ दूर हटकर है. पुराने चित्रों में तो प्लेटफोर्म ही नहीं दीखता. शायद उन दिनों उसकी आवश्यकता  नहीं रही होगी!.  खँडहर बनी  ऊंची लम्बी दीवार भी थी जिनपर कई मेहराबदार प्रवेश द्वार दिखे. वे शायद स्टेशन की वाह्य दीवारें थीं.

यह रेलवे का पुलिस थाना है – यह भी धरोहर ही है!

संभव है  अगली बार वह ‘धरोहर’ एक बड़े से नए स्टेशन के लिए अपनी कुर्बानी दे चुका हो, और हम देखने से वंचित रह जाएँ, यही सोचकर वहां जाना सार्थक ही लगा.