लगभग २ घंटे चश्मे शाही में बिताने के बाद पुनः एकबार राजभवन के रास्ते निशात बाग़ आना हुआ. मुख्य मार्ग के किनारे बने जलकुंड में लगभग १५ फीट की ऊँचाई से ही बाग़ से निस्तारित होने वाला पानी एक जलप्रपात के रूप में नीचे आ रहा था. यह बागीचा भी डल झील के किनारे से लगा हुआ है और पृष्ठ भाग में ज़बर्वान की पर्वत श्रंखला है.पहले कभी वहां सड़क न होकर डल झील का विस्तार था. निशात का अर्थ ही होता है आनंदित होना और हिंदी रूपांतर कर दें तो आनंद बाग़ कहा जा सकता है. इस बागीचे को बनवाने का श्रेय, वहां लगी पट्टिका के अनुसार, आसिफ खान को जाता है जो नूर जहाँ का भाई था. यह बाग़ सन १६३३ में बन कर तैयार हुआ था. इस बाग़ की संरचना आयताकार है. लगभग १८०० फीट पहाड़ी की तरफ लम्बाई और ११०० चौडाई लिए हुए. शालीमार बाग़ के बाद यह कश्मीर के सबसे बड़े बागों में आता है. इस बाग़ में भी प्रवेश के लिए बड़ी मात्रा में सैलानी देखे गए थे जो कतारबद्ध हो टिकट खिड़की तक पहुँचने के लिए आतुर थे. सभी भारतीय ही थे. विदेशियों का आभाव था.
एकदम ऊपर एक जल स्रोत है जिसका पानी फव्वारों से सुसज्जित चिकने पत्थरों से बने जलमार्ग से होते हुए नीचे तक आता है. बाग़, पहाड़ी के ढलान पर ही है जिसे ऊपर से नीचे की ओर १२ समतल चरणों (पायदानों) में विभाजित किया गया है. कहते हैं ये बारह भाग राशि चक्र के बारह राशियों पर आधारित हैं.
बाग़ में पहले चिनार और सरू के पेड़ों की बहुलता थी. जो बचे हैं काफी बड़े बड़े हो गए हैं. लगता है उनकी जगह अब एक नयी (हमारे लिए) प्रजाति के पेड़ों ने ले लिया है जिनपर कमल जैसे बड़े बड़े फूल खिलते हैं. चश्मे शाही में भी ऐसे कुछ पेड़ दिखे थे और उनकी पहचान हिम चंपा( Magnolia grandiflora ) के रूप में की गयी थी.
फव्वारों से सुसज्जित वहां का लम्बा जलमार्ग तथा कल कल कर प्रवाहित होता झरना सचमुच मनमोहक था. हमारे समूह के लोगों को लगता है पहले देखे जा चुके चश्में शाही से ही संतृप्ति हो चली थी इसलिए प्रस्ताव आये की अब यहाँ अधिक समय न बिताएं अन्यथा दूसरे जगहों पे नहीं जा पायेंगे. मेरी व्यक्तिगत धारणा थी कि हम पूरा आनंद नहीं उठा रहे हैं क्योंकि ऊपरी हिस्से अधिक सुन्दर बताये गए थे. बहुमत की तो जीत होती ही है.
निशात बाग़ से निकलने के बाद बारी आने वाली थी शालीमार की. गाड़ियों में चढ़ने के पूर्व ही सामूहिक रुदन सुनाई पड़ा, “वहां भी तो यही सब होगा”. एक गाडी के चालक यासीन मियां ने कहा “हम आपको ऐसे बाग़ में ले चलते हैं जहाँ किसी सैलानी को नहीं ले जाया जाता. एकदम अलग सा. वहां सिर्फ कश्मीरी लोग ही जाते हैं”. सामूहिक सहमती मिल गयी और “हरवान” नामके बाँध की तलहटी में में बने बाग़ को देखने चल पड़े.
वहां पहुँचने पर धीमी धीमी फुहारें पड़ने लगी थी. यहाँ भी टिकट कटवानी पड़ी और अन्दर घुस गए. अन्दर जाने पर चालक महोदय की बात बिलकुल सही लगी. वहां हम लोगों के अलावा एक भी बाहरी पर्यटक नहीं दिखा मानों केवल कश्मीरियों के लिए आरक्षित हो. वैसे ही अन्य दोनों बागों में हमें कोई भी स्थानीय नहीं दिखा था, मानों उन्हें उबासी हो चली हो.
बागीचे के अन्दर प्रवेश के लिए पक्का रास्ता बना हुआ है और जगह जगह कमानीदार स्वागत द्वार बने हैं. उनपर लगे गुलाब के बेलों में मानो बहार आई हुई थी. सब के सब फूलों से लदे थे और बहुत ही आकर्षक लग रहे थे. एक तरफ बाँध से पानी की निकासी हो रही थी और चारों तरफ बेहद मोटे तने वाले घने चिनार के वृक्ष लगे थे. वैसे तो वे हमें वे मेपल के पेड़ जैसे लग रहे थे क्योंकि उनकी पत्तियां वैसी ही दिख रही थीं. हरियाली की भरमार थी. उस दिन वहां स्कूली बच्चों का जमावड़ा दिखा. कुछ स्थानीय परिवार भी पिकनिक मना रहे थे.
हम लोगों ने धीमी धीमी पड़ रही फुहार का आनंद लेते हुए बाँध देखने पहुंचे. बाँध की ढलान पर भी गुलाबों की रोपनी थी और सामने पहाड़ियों की श्रृंखला धुंद से आच्छादित बड़ा सुकून दे रही थी. वापसी में स्कूली बच्चों की अठखेलियाँ देखने मिली. एक जगह बालिकाएं अपने पारंपरिक परिधान पहन कर फोटो खिंचवाने के लिए फोटोग्राफर को घेरे हुए थीं तो दूसरी तरफ कुछ बालिकाएं चिनार के पेड़ों तले पिकनिक मनाते हुए कुछ गाने गा रही थीं.
हाँ, यहाँ कुछ अलग सा लगा था, लीक से हटकर कुछ देखने मिला और हम सबको आनंदित कर गया.
दुपहर खाने का समय हो चला था सो झील के किनारे बने ढाबेनुमा होटल में हम सब उतर गए. बागीचों का भ्रमण यहीं समाप्त भी हो गया था.