हरे घांस की चादर ओढ़ी हुई पहाड़ी ढलानों में जब गुल खिला हुआ होता है तो वह स्थानीय भाषा में गुलमर्ग कहलाता है. कहते हैं पूर्व में इस स्थल का नाम गौरीमर्ग था परन्तु १६ वीं सदी में सुलतान यूसुफ़ चाक नें इसे गुलमर्ग कह कर संबोधित किया था. तब से यही नाम चला आ रहा है. यहाँ मुग़ल बादशाह जहाँगीर भी नियमित रूप से आया करता था और यहाँ के विभिन्न प्रजातियों के पुष्पों को संग्रहीत किया करता. हिमालय के पीर पंजल पर्वत श्रृंखला से लगा हुआ और श्रीनगर से पश्चिम की तरफ ५६ किलोमीटर की दूरी पर, समुद्री सतह से लगभग ९००० फीट की ऊँचाई पर स्थित बड़ा ही खूबसूरत सैरगाह है गुलमर्ग . इसकी ख्याति इतनी अधिक है कि कश्मीर जाने का अर्थ ही गुलमर्ग जाना मान लिया जाता है. सबसे अधिक पर्यटक भी यहीं आते हैं और यहाँ के अतिसुन्दर वादियों के आगोष के हवाले हो लेते हैं. ८७०० फीट की ऊँचाई पर विश्व में सबसे ऊंचा गोल्फ का मैदान यहीं पर है और १२००० फीट से अधिक ऊँचाई पर स्कीइंग के लिए उपयुक्त ढलाने भी यहीं हैं जिसका विस्तार ५ किलोमीटर से अधिक है. यहाँ आने वाले अधिकतर विदेशी पर्यटक स्कीइंग के शौकीन होते हैं. यह बात और है कि जब हम लोग वहां गए थे उस समय वहां एक भी विदेशी नहीं था. बताया गया कि वे लोग दिसंबर/जनवरी में आना पसंद करते हैं. हम लोगों के लिए इस बार का मौसम भी अनुकूल नहीं था. गर्मियों में वहां लगातार बारिश ही हो रही थी.
हम लोगों को श्रीनगर से निकलने में कुछ देर हुई क्योंकि एक दिन पूर्व सोनमर्ग जाकर आने से सभी थके हुए थे और देर से ही उठना हुआ था. सुबह १० बजे के लगभग ही निकल पाए जबकि हमारे ड्राइवर ने सलाह दी थी कि गुलमर्ग में हम यदि ९ बजे तक पहुँच सकें तो बहुत अच्छा रहेगा. वहां एक गाइड की व्यवस्था की जा चुकी थी और ड्राइवर महोदय उससे सतत संपर्क बनाए हुए थे. रास्ता सीधा ही था और लगभग ४० किलोमीटर चलने पर तंगमर्ग नामके एक कस्बे में पहुंचे. यहाँ से पहाड़ी का तंग रास्ता प्रारंभ हो जाता है. यहीं हमें गम बूट, दस्ताने, कोट आदि सुलभ कराये गए. पिछले अनुभव के आधार पर हम लोगोने बरसाती भी ले लेना उचित समझा. हमें बताया गया कि आगे का रास्ता सर्दियों में बर्फ से ढंका रहता है. १५ किलोमीटर के बचे हुए मार्ग पर टायरों पर चेन लगी हुई गाड़ियाँ ही जा पाती हैं जिसके लिए अतिरिक्त शुल्क देनी पड़ती है.
पहाड़ी की चढ़ाई पूरी कर हमारी गाडी एक गेट के पास रोक दी गयी. बगल में एक घांस का मैदान था और किनारे पर्यटकों के लिए काटेज बने थे. गेट के अन्दर से एक पक्की सड़क गयी हुई थी. यहाँ से बर्फीली पहाड़ियों तक पहुँचने के लिए कई विकल्प थे. आपकी गाडी तो गेट के अन्दर जा ही नहीं सकती. घोड़ों पर बैठ कर बर्फीली पहाड़ के एक हिस्से तक जाया जा सकता है या फिर घोड़ों पे बैठकर या पैदल चल कर हम उस जगह तक पहुँच सकते हैं जहाँ “गोंडोला” (उड़नखटोला) का अड्डा था. गोंडोले का मजा लेना ही था और बताया गया था कि नजदीक ही है. कई अन्य पर्यटक भी पैदल ही जा रहे थे इसलिए हम लोगोंने भी घोड़ों पर लदने की जगह दूसरे पर्यटकों का अनुसरण करना उचित समझा. दूरी तो हमारे आंकलन के अनुसार लगभग २ किलोमीटर रही होगी लेकिन बात करते करते वहां तक पहुँच ही गए. गोंडोला में चढ़ने वालों की खासी भीड़ थी. कतार का छोर नहीं देख पा रहे थे. हम लोगों को आश्वस्त कर गाइड, जो हमारे साथ हो लिया था, खुद टिकट कटवा लाया. शायद यही उसकी उपयोगिता रही. गाइड लगवाने की बात जब कही गयी थी तो हमारी समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसी जगह गाइड का क्या काम. अब समझ में आया कि वह प्रशिक्षित था!
टिकट दर था ३०० रुपये प्रति व्यक्ति वह भी केवल खिलनमर्ग (कुंगदूरी) नामके प्रथम पडाव तक ही. टिकट हाथ में आते ही, हम लोग गोंडोला में सवार होने चले गए. कुछ प्रतीक्षा के बाद हम लोगों का भी नंबर लग गया. ६ लोगों के बैठने योग्य गोंडोला चारों तरफ से बंद एक डिब्बा था लेकिन बाहर के दृश्य देखे जा सकते थे. तस्वीर खींचने पर एक प्रकार से बंदिश ही लग गयी. दृश्य मनोरम था और नीचे कुछ सपाट छत वाले आयताकार छोटे छोटे घर भी दिख रहे थे. खूबी यह थी कि घरों के ऊपर मिटटी डाल कर कृषि कार्य होता भी दिखा. पहले पड़ाव पर पहुँचने में बमुश्किल दस मिनट लगे होंगे. यहाँ नीचे उतर कर आना था. दुबारा टिकट खरीदनी थी दूसरे चरण के लिए जो हमें ले जाती है “अप्परवाथ”.
इसके लिए टिकट दर है ५०० रुपये प्रति व्यक्ति. तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चों के टिकट नहीं लगते परन्तु उससे ऊपर तो पूरे लगते हैं. यहाँ भी टिकट की मारा मारी दिखी. हमें चिंता नहीं थी क्योंकि प्रशिक्षित गाइड जो साथ था. बीच बीच में टिकट खिड़की बंद कर दी जाती थी और ध्वनि विस्तारक से बताया जाता रहा कि ऊपर का मौसम खराब हो जाने की वजह से टिकट बिक्री स्थगित की जा रही है.
ऐसे ही ऊहा पोह की स्थिति बनी रही और समय का सदुपयोग करने के लिए वहां की व्यवस्थाओं का जायजा लेते रहे. पता चला कि यहाँ से “मेरी शोल्डर” नाम से प्रसिद्द स्कीइंग करने योग्य पहाड़ियों तक एक अलग से उड़न खटोला चलता है. जिसे चेयर लिफ्ट कहते हैं. यह खुला बेंच नुमा होता है जिसमें चार लोग बैठ सकते हैं (यह दस साल से छोटे बच्चों के लिए नहीं है). मेरी शोल्डर तक का किराया २०० रुपये था परन्तु उस समय बंद था. वहां पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं.
डेढ़ एक घंटे के बाद हमें भी आगे जाने का टिकट मिल गया और गोल्डोला पर सवार हो गए. कुछ दूर जाने के बाद गोंडोला रुक गयी. तभी बारिश भी होने लगी और समझ में आया कि मामला कुछ गड़बड़ है. फिर चल पड़ी परन्तु अपने अंतिम पडाव “अप्परवाथ” में रुकने की बजाय वापस घूम गयी. मौसम ख़राब था नीचे कोहरे के बीच से सफ़ेद बर्फ कुछ कुछ दिखाई पड़ रहा था. इस प्रकार आधे घंटे हवा में बने रहने के बाद वापस खिलनमर्ग (कुंगदूरी) में हमें उतार दिया गया.
एक तरफ अंतिम पडाव में नहीं उतर पाने का अफ़सोस था तो यह भी लगा कि अच्छा ही हुआ. १३५०० फीट से अधिक की उस ऊँचाई पर सांस लेने में कुछ कुछ तकलीफ तो हो ही रही थी. इस बात कि संतुष्टि थी कि एशिया के सबसे ऊंचे और बड़े गोंडोला मार्ग पर एक बार जाना तो हुआ.
आजकल गोंडोला में सफ़र करने के लिए ऑन लाईन टिकट पहले से खरीदी जा सकती है. वहां जाकर E – टिकट कौंटर से बोर्डिंग पास लेना होता है.