११ जून २०१२:
सुबह हमें बस्ती में ही मुख्य मार्ग के होटल में स्थानांतरित कर दिया गया और वहीँ सुबह का नाश्ता भी मिल गया. अब भ्रमण के लिए निकलना था. पहलगाम से आगे जहाँ कहीं भी जाना हो तो वहीँ की स्थानीय टेक्सियाँ लेनी पड़ती हैं. मुख्य मुख्य पर्यटन स्थलों के लिए टेक्सी स्टेंड में सैकड़ों गाड़ियाँ अपना नंबर लगाए खड़ी रहती हैं और उनका किराया भी पूर्व निर्धारित है. वहीँ सूचना फलक, स्थानीय प्रशासन की तरफ से, लगा हुआ है. पर्यटकों को पूरा निचोड़ने का इंतज़ाम किया धरा है. पहलगाम के आसपास के मुख्य आकर्षण बेताब घाटी, चंदनवाड़ी और आरू घाटी हैं. ये सब लगभग १६ किलोमीटर की परिधि में ही है. इन सब जगहों में घुमा लाने का न्यूनतम टेक्सी किराया १५०० रुपये है. एक चक्कर लगभग चार साढ़े चार घंटों में पूरी हो जाती है. १५०० रुपयों में टेक्सी करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. नंबर के मुताबिक टेक्सी वाले आ खड़े हुए और हमें ले चले.
इन दिनों यहाँ अमरनाथ यात्रा के लिए तैय्यारियाँ पूरी जोरों पर थीं. पहलगाम ही इसके लिए बेस केम्प होता है. कुछ जगहों पर यात्रियों के ठहरने के लिए तम्बुयें बनी थी/तानी जा रही थीं. आगे रास्ता लिद्दर (Liddar) (मूलतः लम्बोदरी) नदी के किनारे से चलता है. दूर दूर तक नदी के किनारे कई परिवार पिकनिक मनाते दिखे, उनकी गाड़ियाँ या तो सड़क के किनारे खड़ी थीं या फिर नीचे उतार दी गयीं थीं. ज्यों ज्यों आगे बढ़ते गए, कलकल करती नदी का तेज प्रवाह और दूसरी तरफ देवदार से आच्छादित पहाड़ियां जो कहीं कहीं बर्फ से ढकी भी थीं, पहाड़ी झरने कहीं जमी हुई और कहीं प्रवाह्वान सब मिलकर एकदम तिलस्मी वातावरण निर्मित कर रही थीं.
पहलगाम से ६/७ किलोमीटर की दूरी पर ही एक बहुत ही प्यारी घाटी दिखी और काफी नीचे नदी थी. यहाँ नदी के किनारे को, कटाव से बचाने के लिए. सीमेंट कोंक्रिट से बाँध रखा है और उसीके आगे पैदल चलने का पक्का रास्ता भी बना दिया गया है. पूरे इलाके को एक सुन्दर पिकनिक स्पाट के रूप में विकसित किया गया है. हमें बताया गया था कि हिंदी फिल्म बेताब की शूटिंग यहीं पर हुई थी. ख़ास कर यह गाना “जब हम जवाँ होंगे, जाने कहाँ होंगे” तो सभी को याद होगा ही. तब से ही यह बेताब घाटी कहलाने लगी जबकि इसका वास्तविक नाम हजन घाटी था.
वैसे नीचे तक गाडी के जाने के लिए रास्ता बना था परन्तु ड्राइवर वहां ले जाने के मूड में नहीं था. कहा, यहाँ से जितना अच्छा दिख रहा है उतना पास से नहीं देख पायेंगे. फिर प्रति व्यक्ति १५० रुपये भी देने पड़ेंगे. हम लोगोंने वहां उतर कर दृश्यों को आँखों और केमरे में भर लिया और आगे बढ़ गए.
आगे का रास्ता भी नैसर्गिक सौन्दर्य से भरा पूरा था. चंदनवाड़ी पहुँच कर कुछ पैदल चलना पड़ा. लगा हम फिर सोनमर्ग पहुँच गए हैं. यहाँ भी सोनमर्ग की ही तर्ज पर आँखों के देख पाने की हद तक बर्फ फैली हुई थी. काफी पर्यटक और उनके बच्चे बर्फ का आनंद ले रहे थे. यहाँ बर्फ सफ़ेद नहीं थी, मिटटी से सनी हुई कुछ कुछ मट मैला क्योंकि पुरानी हो चली थी. बायीं तरफ से एक रास्ता जाता है जो सीधे अमरनाथ ले जाता है. यहाँ से केवल ३० किलोमीटर ही दूर है. चंदनवाड़ी से ही अमरनाथ की वास्तविक यात्रा प्रारंभ होती है.
चंदनवाड़ी में लगभग एक घंटे बरफ में खेल कूद कर वापस हो लिए. अब आरू घाटी जा रहे थे. यह रास्ता कुछ तंग था और पहाड़ियों से गुजरता था. जब आरू पहुंचे तो बारिश होने लगी. वहां छाते किराए पे मिल रहे थे. पहले तो प्रति छाते के लिए १०० रुपये की मांग की गयी. हम लोगों को बारिश से बचने के लिए अच्छी जगह मिल गयी थी. छाते वाला पीछे पड़ा हुआ था. आखिरकार ३० रुपये प्रति नग के हिसाब से मामला तय हुआ. दूसरों का अनुसरण करते हुए हम लोग भी चल पड़े. छोटी सी बस्ती थी जो पर्यटकों पर ही आश्रित थी. खाने पीने के लिए कतार से धबनुमा होटलें थीं. उन सब को पार कर एक मैदान दिखा. घोड़े/खच्चर भी वहां उपलब्ध थे लेकिन पैदल घूमने की ही सलाह मिली थी. लम्बे चौड़े घांस के मैदान, पहाड़ियां, झरने आदि का समागम रहा. एक जगह लेवेंडर फार्म लिखा था और क्यारियों में एक रोपनी थी. इसे फार्म का नाम दिया जाना बेतुका सा लगा था. दूर एक पर्यटन विभाग का होटल दिख रहा था और नाम लिखा था अल्पाइन होटल. बस यों ही मटर गस्ती करते रहे. वैसे वहां देखने समझने के लिए कुछ था भी नहीं. हाँ यहाँ से कई स्थानों के लिए ट्रेक्किंग में लोग जाया करते हैं. कोलाहोई ग्लेसियर उनमे प्रमुख है. अब भूक लगने लगी थी और बारिश भी बंद हो चुकी थी. छाते वाला वहीँ मैदान में ही अपना हिसाब चुकता करवा लिया. एक होटल तलाशा गया जहाँ मन पसंद खाना मिल गया. पता चला कि वहां का कारीगर उत्तर प्रदेश का था. उसे धन्यवाद दे पहलगाम वापस आ गए.