Archive for सितम्बर, 2012

कहते हैं यहाँ ज्ञान मिलता है

सितम्बर 30, 2012

दक्षिण के छोटे कस्बों, गाँव खेड़ों के हिन्दुओं का मंदिर जाकर  देवी/देवताओं का दर्शन करना साधारणतया उनके दैनिक दिन चर्या का एक हिस्सा होता है. वहीँ शहरों या बड़े कस्बे के लोग अपनी व्यस्तताओं के कारण यह कार्य कुछ विशेष अवसरों/पर्वों पर ही कर पाते हैं. ऐसा नहीं है कि नित्य मंदिर जाने वाले नहीं होते परन्तु उनकी संख्या कम ही होती है. १३ जुलाई को हमारे छोटे भाईसाहब के विवाह की रजत जयंती थी. देवताओं का आशीर्वाद तो लेना ही था. कहाँ चलें वाली दुविधा थी. चेन्नई में तीन महत्वपूर्ण शक्ति  स्थलों की बात सुन रखी थी. एक जगह इच्छाएं पूर्ण होती हैं (इच्छाशक्ति) दूसरी जगह ज्ञान प्राप्ति होती है (ज्ञान शक्ति) और तीसरी जगह कार्य सिद्धि होती है (क्रिया शक्ति). हम लोगोंने ज्ञान प्राप्ति का उपक्रम किया और शाम को निकल पड़े चेन्नई के उत्तरी हिस्से में स्थित  तिरुवोत्तियूर के लिए.

यहाँ पर एक प्राचीन मंदिर समूह है जो एक ही परकोटे के अन्दर है. नाम कहलाता है त्यागराज एवं वडी वुडै अम्मान मंदिर. यह नाम वास्तव में भ्रामक हैं   क्योंकि यह मूलतः शिव और पार्वती का मंदिर है जो अलग अलग हैं. वडी वुडै अम्मान पार्वती जी के लिए ही अभिप्रेरित है. यहाँ एक और नाम प्रचलित है “त्रिपुरसुन्दरी” इन्हीं  की प्रतिष्ठा में महान राम भक्त,  संत एवं संगीतज्ञं त्यागराज (१७६७ – १८४७) ने अपनी पांच रचनाओं (कृतियों) को समर्पित किया था. वे सभी रचनाएं यहाँ  गर्भगृह के बाहर उत्कीर्ण की गयी हैं. त्यागराज जी के लिए भी एक मंदिर बना हुआ है और उन्हें सोमस्कंद स्वरुप मान्यता दी गयी है. यहाँ के शिव मंदिर का प्राचीनतम नाम आदिपुरेश्वर ज्ञात हुआ  है.

शाम ढलने के पूर्व ही हम लोग मंदिर पहुँच गए थे. सामने ही विशालकाय सात मंजिल वाला राजगोपुरम दिख रहा था परन्तु वह  टाट पट्टियों  से पूरी तरह ढंका था. रख रखाव का कार्य जोरों पर था. अन्दर घुसने पर अन्दर कई मंदिर दिखे परन्तु सब में कुछ काम हो रहा था. अन्दर वैसे तस्वीर खींचने पर प्रतिबन्ध था परन्तु बाहर से भी कुछ दिखे तब तो कोई बात बनती.

आदिपुरेश्वर का मुख्य मंदिर  पीछे से अर्ध वृत्ताकार है (गज पृष्ठ) तथा गर्भ गृह में भगवान् शिव के तीन स्वरुप बताये जाते हैं. एक अग्नि अथवा ज्योति, दूसरा एक चौड़ी दीमक की बाम्बी और तीसरा बाम्बी के अन्दर का भाग  जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती. दीमक की बाम्बी को सोने के कवच (पत्तर) से ढांक रखा है जिसे वर्ष में एक बार कार्तिक महीने के पौर्णमी के दिन श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ हटा दिया जाता है. आदिपुरेश्वर के मुख्य मंदिर के मंडप में नटराज हैं और गलियारे में ६३ नायनारों (शिव भक्तों) की मूर्तियाँ तथा कई शिव लिंग हैं. इनमें एक विशिष्ट मूर्ति एकपद शिव की है.  शिव में ही ब्रह्मा और विष्णु भी समाहित हैं. इसी मंदिर के बगल में एक और शिव मंदिर है जिसके गर्भगृह में बड़ा सा शिवलिंग है. इसे तिरुवोत्तीश्वर कहा जाता है.  गणेश, कार्तिकेय, दक्षिणामूर्ति आदि के भी अनेकों छोटे छोटे मंदिर हैं. एक छोटे मंदिर के शिवलिंग को जगन्नाथ कहा जाता है. २७ नक्षत्रों को भी एक गलियारे में लिंग रूप में दर्शाया गया है. ऐसा अन्यत्र नहीं देखा गया है. इस विशाल मंदिर में, मंडपों में एवं गलियारों में  में रखे गए मूर्तियाँ बेहिसाब हैं.

खम्बों पर सुन्दर कारीगरी है और सैकड़ों उत्कीर्ण लेख हैं. उनमें से कुछ पल्लवों के काल (७ वीं सदी) के बताये गए हैं और दूसरे अधिकतर चोल वंशीय हैं. उनमें पूरा इतिहास भरा पड़ा है. मंदिर के लिए निश्चित आय के स्रोत हेतु कृषि भूमि दिए जाने, दैनिक कार्य संचालन , उत्सवों के बारे में और यहाँ तक कि दिए में तेल की व्यवस्था तक की बातें कहीं गयी हैं. ११ वीं सदी में चोल शासन के समय मंदिर का काफी विस्तार किया गया था और इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि चोल शासक मंदिर  के उत्सवों में पूरे उत्साह से भाग लिया करते थे. यहाँ देवदासियां समूह में देवी के समक्ष नृत्य भी किया करती थीं. १५ वीं सदी में भी विजयनगर शासकों द्वारा निर्माण कराये गए थे.

हम जब देवी त्रिपुरसुन्दरी के दर्शनार्थ कतार में खड़े थे तो हमें मंदिर के दीवार के बगल से ही लगा हुआ एक खम्बा दिखा जिसका ऊपरी हिस्सा टूट चूका था. यह वहां के पुराने निर्माण का अवशेष ही था. बचे हुते खम्बे के हिस्से में सिंह की आकृति बनी थी. तत्काल दिमाग में बात कौंधी. यह तो पल्लवों की शैली रही है. ऐसे सिंह आकृति वाले खम्बे कांचीपुरम के कैलाशनाथ   तथा महाबलिपुरम के मंदिरों में भी देखे थे जो  पल्लवों के द्वारा बनवाये गए थे. अब हमें यह मानने के लिए कि मूलतः  तिरुवोत्तियूर में भी पल्लवों का ही मंदिर था, कोई शंका नहीं रही. देवी त्रिपुरसुन्दरी का मंदिर वैसे बाहर से तो आकर्षक नहीं लगा परन्तु अन्दर का मंडप बहुत सुन्दर है. परिक्रमा के लिए गलियारे का आभाव था. देवी गर्भगृह में खड़ी हुई दर्शाई गयी हैं और उनका अलंकरण भी प्रभावी था. जैसा पहले ही बताया गया है, यह देवी चेन्नई वासियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्हें बहुत ही शक्तिशाली माना जाता है. ज्ञान शक्ति पीठ  भी तो है. श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ रहती है और अक्सर होता है कि लोग इस देवी के दर्शन कर ही संतुष्ट हो जाते हैं. अतः शिव तथा अन्य देवताओं के पास पहुँचने वाले कम हो जाते हैं.

जैसा हमने अपने पूर्व के एक पोस्ट में बताया था, ८ वीं सदी में अप्पर, सुन्दरर और सम्बन्दर नामके तीन धुरंदर शिव भक्त हुए हैं जिन्होंने अपने काव्य संग्रह “तेवारम” में यहाँ के मंदिरों की महिमा का बखान किया है. सुन्दरर यहीं के रहने वाले थे.  ८ वीं सदी में ही आदि शंकराचार्य जी का यहाँ आगमन हुआ था जिन्होंने देवी के मंदिर में श्री चक्र स्थापित कर देवी के उग्र स्वभाव को शांत किया था. यह बातें इस बात की ओर इंगित करती हैं कि यह मंदिर उनके आने के पूर्व से ही यहाँ अस्तित्व में था. ९ वीं सदी में यहाँ एक मठ के अस्तित्व का भी पता चलता है.   मंदिर के प्रांगण    में ही दो विशाल मंडप हैं जहाँ आज भी कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता है. भूतकाल में यह मंदिर वैदिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था. तमिल रामायण के रचयिता कंबर (११८० – १२५०) ने यहीं पर वाल्मीकि रचित संस्कृत रामायण का अध्ययन किया था.

अँधेरा हो चला था और  घर जाने का वक्त हो गया था तभी सामने से रथ पे सवार  देवी की झांकी निकलते दिखी. उस नयनाभिराम चल समारोह के बाद वापस लौट आये थे.

अवन्तीपुर (कश्मीर)

सितम्बर 8, 2012

पुराने साहित्य एवं इतिहास में  अवन्ती का नाम सुन रखा था परन्तु वह तो एक महान जनपद था (प्राचीन १६ जनपदों में). जिसकी एक  राजधानी उज्जैनी हुआ करती थी.  वस्तुतः अवन्ती या अवंतिका, आजकल के मालवा क्षेत्र का ही प्राचीन नाम था. इसके पूर्व के एक पोस्ट में पहलगाम  जाते हुए अवन्तीपुर में रुकने की बात कही थी जो श्रीनगर से लगभग ३० किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में है.  बहुत पहले कभी सुन रखा था कि यहीं कश्मीर की कभी राजधानी हुआ करती थी.

जब हमारी गाडी मंदिर के सामने रुकी, सामने ही अपने अतीत की भव्यता को संजोये, खँडहर ने हमारा स्वागत किया. वहीँ एक चौकीदार खड़ा था जिसने कहा कि “आप लोगों को टिकट लेनी होगी, यहीं बायीं तरफ, साहब बैठे हैं”. हम टिकट खिड़की की ओर बढ़ गए. वहां साहब के रूप में एक सरदारजी बैठे थे. सरदारजी ने हमारा परिचय जानना चाहा  और बातों ही बातों में हमने उन्हें जाहिर कर दिया कि हम भी एक पुरा प्रेमी हैं. शायद हमने अंग्रेजी का शब्द Amateur Archaeologist का प्रयोग किया था. सरदारजी ने क्या समझा नहीं मालूम लेकिन बड़े गदगद होकर उन्होंने टिकट देने से इनकार कर दिया. प्राजी आपके लिए सब फ्री.  हमने कहा हम अकेले नहीं हैं, दस लोग हैं. सरदार जी ने कहा “तो क्या हुआ जी, आप हमारे आदमी हैं”. टिकट खिड़की में  कैमरे का भी १० रूपया और विडियो कैमरे का २५ रूपया लिखा देखा. पूछने पर कहा वह भी माफ़. प्रसन्न हो  हमने अपने दूसरे साथियों को भी बुला लिया और अन्दर प्रवेश कर गए.

१२ वीं सदी कश्मीर के एक महान संस्कृत कवि एवं विद्वान् “कल्‍हण”  की रचना राजतरंगिनी (राज वंशों का इतिहास) में उल्लेख है कि उत्पल राजवंश के राजा अवन्तिवर्मन के द्वारा विश्वैकसरा नामके स्थल पर अवन्तीपुर नामके नगर की स्थापना की गयी थी.  संभवतः यहाँ मृत्यु पश्चात आत्माओं के स्वर्गारोहण के लिए विशेष कर्मकांड किये जाते थे. इससे अनुमान लगता है कि अवन्तीपुर की स्थापना/नामकरण के पूर्व ही से यह कोई धार्मिक स्थल रहा है. नजदीक ही झेलम (प्राचीन नाम वितस्ता) नदी की उपस्थिति  भी अनुकूल है.  अवन्तिवर्मन मृत्यु पर्यंत एक परम वैष्णव बना रहा. ९ वीं सदी में उसी ने इस नगर में एक विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया और गर्भगृह में  विष्णु महाराज अवन्तिस्वमिन के नाम से प्रतिष्ठित हुए. राजा का मंत्री “सुरा” शिव का आराधक था इसलिए लगभग एक किलोमीटर दूरी पर एक और भव्य मंदिर, जिसे अवन्तीश्वर कहा जाता है,  शिवजी के लिए भी बनवाया गया. अब दोनों ही अपनी अतीत की याद में आंसू बहा रहे हैं. शिव मंदिर के भग्नावशेष इतने करीब होंगे, नहीं मालूम था. अन्यथा उसे भी देख आते.

अपने आध्यात्मिक गुरु मीर सैय्यद  अली हमादानी की प्रेरणा एवं उन्हें खुश करने के लिए कश्मीर के १४ वीं सदी के शासक सुल्तान सिकंदर बुतशिकन ने पूरे कश्मीर में क्रूरता की सभी हदें पार कर दीं.  बुतशिकन का शाब्दिक अर्थ ही होता है मूर्ति भंजक. आजकल के तालिबान भी उसके सामने फीके पड़ जायेंगे.  बड़े व्यापक रूप से धर्मांतरण हुए और साथ ही कत्ले आम भी. नृत्य, संगीत, मदिरा पान पूरी तरह प्रतिबंधित थे. चुन चुन के सभी मंदिरों को धराशायी कर दिया. अवन्तिपुर का विष्णु मंदिर भी इसी कारण अन्य मंदिरों की तरह  वर्तमान अवस्था में है. लेकिन मंदिर इतना मजबूत था कि उसे तोड़ने में एक साल लग गया था. किन्तु संयोग से सिकंदर का द्वितीय पुत्र जैन-उल-अबिदीन  (१४२३ -१४७४) जो अपने बड़े भाई के मक्का रवानगी के बाद सुलतान बना था, अपने पिता के स्वभाव के विपरीत  अत्यधिक सहिष्णु था.  परन्तु उसके आते तक तो सभी हिन्दू धर्मस्थल जमींदोज़ हो चुके थे.

एक विहंगम दृश्य – यह चित्र चुराया हुआ है

मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाने के लिए एक सुन्दर रेलिंग युक्त पक्का मार्ग बना हुआ है. प्रवेश करने के लिए सीढियां बनी हैं. लगभग ५ फीट ऊपर पहुँचते ही खंडित खम्बे और पत्थर पर अलंकरण स्पष्ट होने लगता है. यह द्वार अपने समय में बड़ा ही आकर्षक रहा होगा. यहाँ एक प्रकार के चूने का पत्थर प्रयुक्त हुआ है और तोड़ फोड़ के अतिरिक्त प्राकृतिक क्षरण के कारण भी शिल्पों की पहचान आम आदमी के लिए काफी कठिन हो चला है. मंदिर आयताकार है (१७०.६ x १४७.६ फीट). मुख्य दरवाजे से नीचे उतरने पर एक बड़ा भारी आँगन मिलता है. बीचों  बीच ही  गर्भ गृह बना है जो कुछ पिरामिड नुमा है. नीचे काफी चौड़ा है जो उत्तरोत्तर सकरा होते जाता है. संभव है कि  गर्भ गृह ६’ x ६’ का रहा हो. मंदिर के चारों तरफ कुछ ऊँचाई लिए कई कक्ष बने है जिनमें खम्बे भी लगे थे. यह कहना कठिन है कि उन कक्षों का क्या प्रयोजन रहा होगा. निवास के लिए तो उपयुक्त नहीं है. बौद्ध विहारों की तर्ज पर यहाँ बैठ कर ध्यानमग्न हुआ जा सकता है या फिर इनके अन्दर भी भिन्न भिन्न देवी, देवताओं की प्रतिष्ठा रही हो.  आँगन के अन्दर ही  चारों कोनों पर छोटे मंदिरों के भग्नावशेष स्पष्ट दिख रहे हैं. संभवतः और भी छोटे मंदिर रहे हों. बताया गया कि यहाँ से प्राप्त मूर्तियों को श्रीनगर के संग्रहालय में रखा गया है.

इस मंदिर के स्थापत्य के बारे कुछ जानकारों का मत है कि तुलनात्मक दृष्टि से मंदिर निर्माण कला उस समय अपने चरम पर थी और गांधार शैली का प्रभाव दिखता है. कुछ इस मंदिर के निर्माण को यूनानी प्रभाव युक्त भी मानते हैं. उदाहरणों को उद्धृत करूँ तो बात बहुत आगे बढ़ जायेगी. इतना ही कहना मेरे लिए यथेष्ट होगा कि यह मंदिर अपनी सम्पूर्णता में अपने समय का  अद्भुत एवं अद्वितीय निर्माण रहा होगा.

यहाँ एक बात और बताना चाहूँगा कि अवन्तिपुर में ही एक दूसरा जो अवन्तीश्वर (शिव)   का   मंदिर है वह भी लगभग इसी प्रकार का है.  अनंतनाग (इस्लामाबाद) से ८ किलोमीटर की दूरी पर ललितादित्य द्वारा ८ वीं सदी में निर्मित  मार्तंड सूर्य मंदिर के खँडहर हैं. वह भी अवन्तिपुर के मंदिर जैसा ही विशाल था और बनावट भी मिलती जुलती है.  इन दोनों मंदिरों को देखने का हमें सौभाग्य नहीं मिला.