हमारे मोहल्ले के शोपिंग कोम्प्लेक्स में एक बड़ी दूकान किराने की भी है, पहले माले में. जैसे कई दूकानदारों की आदत होती है, उनके भी बहुत सारे सामान बाहर की ओर बरामदे में सजे रखे थे. उसी के बगल में एक ए.टी.एम् भी लगी है. हमारे एक मित्र एक दूसरे मित्र के साथ पैसे निकालने गए थे. वापसी में किराने की दूकान के सामने से गुजरना हुआ. मशीन से निकली पर्ची पर ध्यान था इस कारण सामने रखे बोरे से भिड गए. बोरे पर लिखा था “सच्चा मोती”. दूकानदार को कोसते हुए उन्होंने पूछ लिया “क्या रखा है यार इसमें, अन्दर क्यों नहीं रख लेते” जवाब मिला साहब, साबूदाना है, अभी व्रत त्योहारों का सीसन है इसलिए बाहर रख दिया. यह सुनते ही मित्र को याद आई की उन्हें भी घर के लिए साबूदाना खरीदना है. संवाद आगे जारी रहा. “सबसे अच्छा वाला कौनसा होता है”. जवाब मिला “यही है” “क्या भाव लगा रहे हो” “२५० के १५ रुपये”. “बहुत महंगा लगा रहे हो” “साब ए वन है”. “ठीक है फिर दे दो २५० ग्राम”.
दोनों मित्र नीचे आकर एक दूसरी दूकान के सामने रखी बेंच पर बैठ गए. उस दिन चर्चा साबूदाने पर केन्द्रित रही. जिस मित्र ने खरीदा था, उनका कहना था कि इसका पेड़ अपने यहाँ तो नहीं होता. दूसरे ने कहा यह पेड़ पर नहीं होता, बनाया जाता है. नहीं यार यह पेड़ का बीज है. बहश यों ही चलती रही.
लिए यह चित्र विकिमिडिया कोमंस से है
उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में ख़ास कर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में ताड़ जैसे कई पेड़ हैं जिनके तने का गूदा गरीबों का भोज्य पदार्थ होता है. इनमे “सागू पाम” (Metroxylon Palms) के तनों के गूदे से प्राप्त होने वाला स्टार्च (श्वेतसार) साबूदाना बनाने के लिए प्रयुक्त होता है. एक और सागो पाम है जो cycads Palms के अंतर्गत वर्गीकृत है परन्तु इस पौधे का हर हिस्सा जहरीला होता है. यह घर के अन्दर या बागीचे में अलंकरण के लिए रखा जाने वाला “सैकस” है.
भारत में साबूदाना मुख्यतः “टपिओका” (Manihot esculenta) नामके कंद से प्राप्त होने वाले स्टार्च से बनाया जाता है. टपिओका को कसावा भी कहते हैं. बल्कि शायद यह कहना बेहतर होगा कि कसावा के पौधे से टपिओका उत्पन्न होता है. यह दक्षिण अमरीकी मूल का है और पश्चिम द्वीप समूहों के अतिरिक्त भारत तथा अन्य देशों में भी बहुतायत से पैदा किया जाता है. वास्तव में टपिओका करोड़ों लोगों के लिए भोजन का प्राथमिक स्रोत है क्योंकि इसके पौधे अनुपजाऊ भूमि में तथा अल्प वर्षा वाले जगहों में भी आसानी से पनपते हैं. अभी अभी सुनने में आया है कि तंज़ानिया में वहां टपिओका की फसल कीटग्रस्त हो गयी थी परन्तु इसे अपवाद ही माना जाना चाहिए. टपियोका ही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जिसकी प्रति इकाई भूमि में उत्पादकता सबसे अधिक है और इस मायने में यह विश्व में गरीबों के लिए वरदान है. माइक्रोसोफ्ट कारपोरेशन के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री बिल गेट्स ने भी कुपोषण को दूर करने में टपिओका के महत्त्व को रेखांकित किया है. इसके पोषक तत्वों में अभिवृद्धि के लिए और अधिक सक्रियता से शोध किये जाने की आवश्यकता पर भी बल दिया है. इस हेतु उन्होंने अपने न्यासों के माध्यम से एक बड़ी राशि भी उपलब्ध कराने की पेशकस की है.
टपिओका के पौधे तैयार करने हेतु तने के ही कई टुकड़े कर दिए जाते हैं और मिटटी में निश्चित दूरी पर रोप दिया जाता है. इसकी कुछ प्रजातियों में हानिकारक तत्व भी होते हैं परन्तु सफाई की प्रक्रिया से उन्हें दूर कर लिया जाता है.
चेन्नई के बाज़ार में ठेले पर बिक रहा है
भारत में टपिओका का प्रदार्पण १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ था और इसकी सबसे अधिक खेती केरल, तामिलनाडू और आन्ध्र प्रदेश में होती है. जैसा पूर्व में कहा जा चूका है, यह केरल में भी कई लोगों के दैनिक भोजन का एक प्रमुख हिस्सा है. इसे यों ही उबाल कर भी खाया जा सकता है या फिर सब्जियों के अतिरिक्त पकवान आदि भी बनाए जा सकते हैं. एक प्रकार से यह आलू का विकल्प है. मछली की करी के साथ टपिओका का बहुत चलन है. टपिओका के चिप्स बड़े स्वादिष्ट होते हैं और इसके आटे से पापड़ भी बनता है. इसमें प्रोटीन का अभाव है परन्तु कर्बोहैड्रेट्स की भरमार है. दूसरे पौष्टिक तत्व भी समुचित मात्रा में पाए जाते हैं.
तकनीकी रूप में साबूदाना किसी भी स्टार्च युक्त पेड़ पौधों के गूदे से बनाया जा सकता है. चूंकि टपिओका में स्टार्च की भारी मात्रा होती है, उसे साबूदाने के उत्पादन के लिए उपयुक्त पाया गया. भारत में इसका उत्पादन १९४० के दशक में ही प्रारंभ हो चला था.यह पहले तो कुटीर उद्योग था परन्तु अब तामिलनाडू का एक महत्वपूर्ण लघु उद्योग है. संक्षेप में कहा जाए तो पहले कंद के छिलके की मोटी परत को उतारकर धो लिया जाता है. धुलने के बाद उन्हें कुचला जाता है. निचोड़कर इकठ्ठा हुए गाढे द्रव को छलनियों में डालकर छोटी छोटी मोतियों सा आकार दिया जाता है. धूप में सुखा लिया जाता है या एक अलग प्रक्रिया के तहत भाप में पकाते हुए एक और गरम कक्ष से गुजारा जाता है. सूखने पर साबूदाना तैयार.
यह आलेख रायपुर से प्रकशित उदंती (मासिक) पत्रिका के अक्टूबर अंक से साभार।