मुंबई के आस पास तो कई ऐतिहासिक स्थल हैं परंतु शहर के अंदर भी कुछ बचे होनेका अंदाज़ा नहीं था क्योंकि अनुमान यही था कि बढ़ती हुई विस्फोटक आबादी और बहु मंज़िली भवनों के निर्माण ने सब कुछ लील लिया होगा. पिछले अक्टूबर में “सायन” के इलाक़े से गुज़रते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक सूचना पट दिखाई दे गया जिसमें सायन (शिनवा या शीव) के किले का उल्लेख किया गया था. यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य ही रहा. उसी समय चंदबर्दाइ का दोहा याद हो आया …”मत चूको”. वास्तव में एक मित्र के नये नये बने बहु मंज़िली इमारत में गृह प्रवेश का अनुष्ठान आयोजित था जो संयोग से उस किले के एकदम करीब था. इसलिए यह तो एक सुअवसर था और यदि हाथ से निकल जाने देता तो मेरी ही बेवकूफी होती.
दूसरे दिन सुबह नाश्ता आदि कर लेने के बाद ९.०० बजे हम पैदल ही निकल पड़े थे. जहाँ बहु मंज़िली इमारत बनी थी वहाँ पहले झोपड़ पट्टियाँ थीं और इस कारण मुख्य मार्ग पर जो किले के किनारे से ही जाती है अत्यधिक गंदगी थी. खैर हमारा लक्ष्य तो उस टोपी नुमा पहाड़ी पर जाना था. रास्ता तलाश लिया. नीचे एक नेहरू उद्यान है उसके अंदर से होकर जाना था. रास्ता बना हुआ है. उस दिन ना मालूम क्यों वहाँ युवाओं की भीड़ थी. सभी कापी किताब लिए हुए थे. शायद कोई आस पास के स्कूल या कॉलेज में नौकरी आदि की परीक्षा रही होगी. हम तो सीढ़ियों को चढ़ते हुए पहले चरण में पहुँच गये. वहाँ से किले के लिए आसान सीढ़ियाँ बनी हुई हैं.
जैसा सभी जानते हैं मुंबई कुल ७ द्वीपों से बना है और सायन द्वीप के अंतिम छोर की इस पहाड़ी के उसपार साल्सेट द्वीप पड़ता था.सायन (शीव) का शब्दार्थ ही है “सरहद” या प्रवेश द्वार. यह पहाड़ी अपनी ऊँचाई के कारण सामुद्री यातायात पर नज़र रखने के लिए महत्वपूर्ण था भले अब वहाँ समुद्र का अता पता नहीं चलता. सबसे पहले पुर्तगाली आए थे और पूरे भारत के तटीय क्षेत्रों में उन्होने किलों का निर्माण किया था. यहाँ सायन में भी १७ वीं सदी में उन्होने ही उस पहाड़ी पर ५०/६० सैनिकों के रहने योग्य व्यवस्था की थी. पुर्तगालियों को खदेड़कर मराठों ने इन किलों को अपने कब्ज़े में ले लिया था इस लिए आप वहाँ किसी स्थानीय से पूछेंगे तो यही कहेगा कि किला शिवाजी का है. १७८२ में सलबैई की संधि के तहत मराठों द्वारा यह किला अँग्रेज़ों को प्रदान किया गया.
तनिक विश्राम कर लेने के बाद हम आगे बढ़ने लगे थे. नेहरू उद्यान की सीमा समाप्त हो गयी थी और अब चारों तरफ़ जंगल झाड़ियों का साम्राज्य था. एक मोड़ पर हमें एक बरगद की तरह मोटे तने का पेड़ दिखा. वहाँ एक दीवार सूक्ष्म निरीक्षण को बाधित कर रहा था. पत्तियों को देखने से पता चला, अरे यह तो अपनी चंपा (फ्रंगिपानी) है. जीवन में इतने मोटे तने वाले चम्पे के पेड़ नहीं देखे थे. निश्चित ही वह् सैकड़ों साल पुराना है.
ऊपर पहुँचने में कोई ज्यादा समय नहीं लगा परन्तु लगता है मैंने ग़लत रास्ता चुना था. ऊपर एक तरफ़ एक पुराना तोप रखा हुआ था. वैसे कहते हैं यहाँ 12 तोपें थी अब केवल दो बची हैं. फिर कुछ ऊपर चढ़ना पड़ा था और वहाँ के खंडहर अपनी कहानी बता रहे थे. जितने भी भवन या कमरे थे सब खपरैल वाले ही रहे होंगे. यह बताना मुश्किल है कि किस हिस्से का प्रयोग किन किन कामों के लिए होता रहा होगा. कुछ जगह तहखाने भी दिखे जहाँ शायद बारूद रखी जाती रही होगी. पूरा एक चक्कर लगाने के बाद नीचे जाने का एक दूसरा आसान रास्ता दिख गया और हम लौटने लगे थे.
नीचे जाते समय ही ऐसी जगहों का वर्तमान में सदुपयोग का एक नमूना भी दिखा. आख़िर प्रकृति के बीच एकांत, प्रेमी युगलों के लिए एकदम अनुकूल वातावरण जो प्रदान करता है.
किले का भ्रमण पूरा हो गया था और अब रास्ता भी दिख गया. हाँ नीचे उतरते समय एक बड़ी भारी सीमेंट या चूने से बनी टंकी दिखी और यह समझने में देर नहीं लगी कि यहाँ वर्षा का पानी संग्रहीत किया जाता रहा होगा जो वहाँ के सैनिकों के द्वारा प्रयुक्त होता था. लौटते समय लिए गए कुछ चित्र भी ऊपर दिए गए हैं.