कन्नूर (Cannanore) में रुकना हुआ था और वहीं से आगे कोंकण के कुछ क्षेत्रों को देख् आने का कार्यक्रम बना. लंबी दूरी के कारण किराये के वाहन से निकल पडे थे. मौसम बड़ा सुहाना था क्योंकि मानसून-पूर्व की बारिश हो चुकी थी. इस तटीय क्षेत्र में वैसे तो हरियाली हमेशा ही रह्ती है, इस बार कुछ ज्यादा ही भा रही थी. रास्ते में एक बेकल नामका किला पड्ता है. हमें दूरी का अंदाजा नहीं था. ड्राइवर से कह दिया था कि बेकल में रुकते हुए चलेंगे. काफी चलने के बाद हमने ड्राइवर महोदय से पूछा कि कहीं बेकल छूट तो नहीं गया परन्तु उसने बताया कि अभी बहुत दूर् है. हम बीच बीच में उसे याद दिलाते भी रहे, कहीं ऐसा ना हो कि झोंक में सीधे निकल जाए. लगभग 75 किलोमीटर चलने के बाद एक सूचना फ़लक दिखा “पल्लिक्करा बीच”. और हमें खुशी हुई क्योंकि मेरे गाँव का नाम पालियकरा से बड़ा साम्य है. ड्राइवर ने स्व्यं बताया कि बेकल का किला कुछ आगे ही है. मन तो किया था कि उस “बीच” को भी देखा जाए क्योंकि वह् एक अंजाना नाम था इसलिए लोगों की नजर में नहीं चढ़ा होगा. लहरों से एकांत में जी खोल के बातचीत भी हो सकतीं थी. गाड़ी तो आगे बढ़ गई थी और हमने भी समझौता कर लिया. 5/6 किलोमीटर चलने पर हम बेकल के प्रवेश द्वार पर थे.
यह किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के आधीन है और एक खँडहर हो चले इस पुराने किले को उसके मूल स्वरुप में लाने के लिए सराहनीय कार्य किया है. 40 एकड़ में फैला इस इलाके में यह सबसे सुन्दर और अनुरक्षित किला है. यहाँ प्रवेश के लिए 5 रुपये की टिकट लगती है वहीँ केमरा ले जाने पर 30 रुपयों का अतिरिक्त शुल्क लिया जाता है. प्रवेश द्वार के पास ही एक तरफ हनुमान जी का मंदिर है तो दूसरी तरफ किसी एक संत का मज़ार है – सह अस्तित्व के प्रतीक! आड़े तिरछे रास्ते से किले के अन्दर जाना पड़ता है. यह किले की सुरक्षा के निमित्त ही रहा होगा. सामरिक दृष्टि से यह किला महत्त्वपूर्ण रहा है क्योंकि एक भूभाग जो समुद्र के अन्दर तक घुस हुआ है उस पर ही किला बना है. इस कारण किले के तीनों तरफ समुद्र है और समुद्री आवागमन पर पूरी नज़र रखी जा सकती है. सुरक्षा के लिए खन्दक (MOT) भी बना है जिसके दो मुहाने समुद्र में खुलते हैं इस कारण समुद्र का पानी खन्दक में घुस आता है.
पूरा निर्माण स्थानीय लेटराइट पत्थरों का है. बडी संख्या (14) में बुर्ज भी हैं. जगह जगह तोपों को रखे जाने के लिए व्यवस्था तीन स्तरों पर बनी है परन्तु एक भी तोप देखने नहीं मिला. किले के अन्दर गोला बारूद रखे जाने की सुन्दर व्यवस्था है और किले की घेराबन्दी होने पर भूमिगत कक्ष एवं सुरंगें हैं. अन्दर से एक सुरंग दक्षिण दिशा में किले के बाहर निकलती है. पानी को संग्रहीत रखने के लिए एक बडी टंकी है जिसमें सीढ़ियों से उतरा जा सकता है. किले के बीच में एक बुर्जनुमा निर्माण है जिसे बनवाने का श्रेय टीपू सुलतान को दिया जाता है. इसपर चढ़ने के लिए ढलान दार रपटा बना है. ऊपर से पूरे इलाके पर पैनी नज़र रखी जा सकती है. वहां से चारों तरफ का विहंगम दृश्य आपको बांधे रख सकता है . किले के दोनों तरफ बेहद रमणीय बीच है और यहाँ समुद्र उथला है जिसके कारण मस्ती की जा सकती है. किनारे चट्टानों पे बैठकर लहरों से गुफ्तगू भी हो सकती है.
16 वीं सदी के प्रारंभ में “इक्केरि” नायक नामके राजवंश का इस क्षेत्र पर अधिकार रहा है और उनके द्वारा कोंकण क्षेत्र में अन्य किलों (चन्द्रगिरि और होसदुर्ग) का निर्माण कराये जाने के प्रमाण कनारा मैन्युअल और तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं. मान्यता है कि बेकल का यह किला एक शिवप्पा नायक द्वारा बनवाया गया था. 1763 में हैदर अली नें इस किले को अपने अधिकार में ले लिया. मालाबार को हस्तगत करने के लिए टीपू सुलतान द्वारा चलाये गए अभियान के समय बेकल का किला उसके लिए एक महत्वपूर्ण सैनिक अड्डा बन गया था. हैदर अली ने मैसूर में तो एक निरंकुश परन्तु धर्मं सहिष्णु शासक के रूप में अपनी छवि बनायी थी परन्तु अपने विजय अभियान में उसका अमानवीय घिनौना चेहरा ही सामने आता है. टीपू सुलतान तो अपने बाप से भी आगे था. जालियाँवाला बाग़ जैसा ही बेकल किले के अन्दर एक कुँवाँ चीत्कार कर रहा है.
सन 1799 में टीपू सुलतान अंग्रेजों के हाथों मारा गया और उसके राज्य के साथ साथ बेकल का किला भी अंग्रेजों के आधीन आ गया. उन्होंने इस किले को और मजबूत किया और उसे एक सैनिक छावनी के रूप में इस्तेमाल किया. विगत कुछ वर्षों में किले के अन्दर हुए उत्खनन से पता चलता है मध्य युग में वहां एक मंदिर परिसर, एक राज प्रसाद, कुछ नायकों और टीपू के भवन आदि का अस्तित्व रहा है. एक टकसाल भी मिली है. कुछ सिक्के जो मिले हैं वे सभी टीपू और मैसूर सल्तनत के हैं.
पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बेकल विकास प्राधिकरण गठित हुई है और पर्यटकों के लिए आवास सुविधा निर्मित की जा चुकी है. किले में आने वालों के लिए खान पान की भी व्यवस्था है. उत्तर दिशा से आने वालों के लिए नजदीकी शहर ” कासरकोड़” है यहाँ ठैरने की अच्छी व्यवस्था है और बेकल मात्र 15 किलोमीटर दूर पड़ेगा.