घर में तीखुर के पौधे दिखने में ये हल्दी और अदरख से मिलते जुलते हैं
हमारे पुश्तैनी घर पर दिसंबर और जनवरी के बीच आरद्रा (आरुद्र) नक्षत्र के दिन तिरुवादिरै नामका एक पर्व मनाया जाता है (शैव परंपरा) और उस दिन एक ख़ास पकवान बनता है जिसे “तिरुवादिरै कली” कहते हैं.“कूवै” नामके पौधे की जड़ को पीस पास कर उसके स्टार्च (मंड) में दूध नारियल के बारीक टुकड़े, काजू, इलाइची, घी, शक्कर या गुड मिलाकर हलवा जैसा बनाया जाता है जो बहुत ही स्वादिष्ट भी होता है. क्योंकि यह पकवान मुझे बहुत पसंद था तो पर्व का इंतज़ार किये बगैर जब भी मैं घर पर होता, बनाया जाता था. इसके पौधे तो घर पे ही एक किनारे उगे होते थे और अब भी हैं . घर से वापसी पर एक या दो किलो कूवै का पाउडर मुझे पकड़ा दिया जाता, यह कह कर कि गर्मी के दिनों में दूध में एक दो चम्मच मिला कर गरम कर लिया करो और रात में सेवन करो. इसकी तासीर ठंडी है .

बस्तर के बाज़ार हाटों में आदिवासियों के द्वारा डल्ले नुमा एक पीलापन लिए वस्तु बिकने आती थी और उसे वे तीखुर कहते थे. बाद में पता चला कि यही मेरा कूवै है जिसकी साफ़ सफाई अच्छे से नहीं की गई होती. यही आरारूट भी है जो वहां की वनोपज है जगदलपुर के व्यापारी गाँव गाँव जाकर बडे सस्ते में खरीदते थे और निर्यात करते थे. आरारूट बनाने के लिए कुछ दूसरे पेड़ पौधों के स्टार्च (श्वेतसार) का भी प्रयोग किया जाता है. परन्तु हम जिस तीखुर की चर्चा कर रहे हैं वह Maranta arundinacea है. कस्टर्ड पाउडर कहलाने वाली चीज भी तीखुर का ही बंधु है.

हमारी अम्मा को तीखुर की जानकारी थी और कहा करती थी कि वह जंगली है इसलिए कसैला और कुछ कडुवापन लिए होती है. मेरा मानना है कि जंगल से प्राप्त होने वाले तीखुर की भी जमकर सफाई की जावे तो उसका कसैलापन निकल जाएगा. अपने घर में मैंने वह प्रक्रिया देखी है. पौधों को जमीन से उखाड़े जाने पर नीचे मूली जैसे पतले कंद (Tuber) होते हैं . उन्हें अलग कर लिया जाता है और पानी में धोया जाता है. इसके बाद उन्हें ओखली में डाल कर खूब कूटा जाता है. गमछे में उन्हें रख कर एक अलग बर्तन में निचोड़ा जाता है. दूध जैसा गाढ़ा तरल पदार्थ इकठ्ठा होता है जिसे उस बर्तन में ही एक दो घंटे के लिए रख दिया जाता है. उतनी देर में एक सफ़ेद पदार्थ नीचे बैठ जाता है और ऊपर जो पानी बचा रहता है उसे निथार कर फेंक देते हैं. फिर एक बार बर्तन में ताजा पानी ड़ाल कर नीचे बैठे पाउडर को धोया जाता है और कुछ देर के बाद ऊपर का पानी फेंक दिया जाता है. यह प्रक्रिया जितनी बार दोहराई जायेगी तीखुर उतना ही परिष्कृत होता जाएगा. अंत में कागज़ बिछाकर तीखुर के गीले पाउडर को धूप में सुखा लिया जाता है. सूखने पर शुद्ध तीखुर तैयार हो जाता है. आजकल मशीनी युग है. कारखानों में सेंट्रीफ्यूज़ का प्रयोग एवं ब्लीच कर झका झक तीखुर का पाउडर बन जाता है.

इस बार घर पर रहते हुए एक नए व्यंजन पर प्रयोग किया गया . कटहल पक गए थे उन्हें पानी में उबाल कर मेश कर लिया, थोडा काजू, इलाईची और तीखुर मिलाकर एक पिण्ड बनाया गया और केले के पत्ते में पोटली बनाकर भाप में पका लिया. क्या जायका था बस दिव्य!.

तीखुर के औषधीय गुणों के बारे में इतना कह सकता हूँ कि इसके सेवन से पाचन क्रिया दुरुस्त होती है. बच्चों को भी दिया जाता है. ताजे ताजे घाव पर लेप लगा दें तो एंटीबायोटिक का काम करता है. जंग लगे लोहे से जख्म हो गया हो तो धनुर्वात से भी बचा जा सकता है. और भी गुण होंगे जिन्हें तलाशनी होगी.
बडे बडे क म्पनियों के द्वारा बाज़ार में उपलब्ध कराये जाने वाले अरारूट में मूल प्राकृतिक स्वाद नहीं पाया जाता.
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This entry was posted on अगस्त 13, 2013 at 7:22 पूर्वाह्न and is filed under Bio-diversity, Environment, Kerala, Paliakara. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed.
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अगस्त 13, 2013 को 7:42 पूर्वाह्न
अच्छा व्यंजन बता दिया आपने -आजमाते हैं !
अगस्त 13, 2013 को 7:42 पूर्वाह्न
छत्तीसगढ़ में तीजा व्रत के अवसर पर तिखुर का उपयोग फलाहार के लिए किया जाता है. तिखुर का हलवा मुझे बहुत पसंद है, अब कटहल का फ्लेवर ट्राई किया जाएगा 🙂
अगस्त 13, 2013 को 7:46 पूर्वाह्न
कमाल की मेहनत करते हो आप पोस्ट लिखने के लिए , हर पोस्ट संकलित करने योग्य !
इस पोस्ट ने ललचा दिया भाई जी ! बिना खिलाये फोटो दिखा दिया !
चलिए आभार आपका !
अगस्त 13, 2013 को 7:50 पूर्वाह्न
शुभ प्रभात
गर्मी में तीखुर का शरबत पीकर निकलो
लू नही लगती
शीतल, पेट की जलन को शान्त करता है
अगस्त 13, 2013 को 7:58 पूर्वाह्न
तीज के अलावा, मैदानी छत्तीसगढ़ में पहले एकादशी व्रत के फलाहार का जरूरी हिस्सा तिखुर का (लपची सा) हलुआ होता था. इसकी महिमा गुणगान जे. फारसथि ने भी अपनी पुस्तक में किया है.
अगस्त 13, 2013 को 8:33 पूर्वाह्न
स्वादिष्ट पोस्ट 🙂
अगस्त 13, 2013 को 11:23 पूर्वाह्न
अरारूट तो जानता था पर उसके वंश क्रम और प्रोसेस से अच्छा परिचय हुआ .यह नया कटहल तीखुर संगम मिठाई ट्राई करेंगे 🙂
अगस्त 13, 2013 को 3:24 अपराह्न
बहुत ही उपयोगी जानकारी दी आपने, आभार.
रामराम.
अगस्त 13, 2013 को 6:39 अपराह्न
Thanks. badhiya jaankari
Sadar
Sushma Naithani by email.
अगस्त 13, 2013 को 7:39 अपराह्न
I wanted to know from sometime about Arrowroot, and I must say that your article came just in time :), very good information I must say
अगस्त 14, 2013 को 6:29 पूर्वाह्न
आनंदम!
अगस्त 14, 2013 को 6:08 अपराह्न
आनंद आ गया पढ़कर.
अगस्त 14, 2013 को 8:44 अपराह्न
maine bhi ye pouda bodla,kawarda ke jagalo me dhekha hai khass kar barsat ke dino me tikhur chhattishgarh me bhi kafi prachlit hai
अगस्त 14, 2013 को 9:54 अपराह्न
वाह, पहली बार इसे जाना। हम तो गोंद बनाने के लिये ही उपयोग में लाते थे।
अगस्त 15, 2013 को 8:30 अपराह्न
तीखुर के हलुवे को मूत्र कृच्छ [ ठनकी ] बार बार पेशाब आना की बीमारी में भी प्रयुक्त किया जाता है
अगस्त 17, 2013 को 11:38 पूर्वाह्न
महत्वपूर्ण और नई जानकारी। धन्यवाद।
अगस्त 18, 2013 को 11:01 अपराह्न
रोचक भी, लाभदायक भी।
अगस्त 27, 2013 को 5:16 अपराह्न
बहूत अच्छा वर्णन. मज़ा आया. में ने अपने कंप्यूटर में हिंदी फोंट्स लगवा लिया हूँ. धन्यवाद. संपत..
जनवरी 12, 2017 को 2:31 अपराह्न
This is a good know I am in Maharashtra I am not sure what name people refer it with. I have got lot of babul gum and want to get tikhur laddu made but didn’t get it in market.
मार्च 29, 2017 को 4:22 अपराह्न
मराठी में इसे तवकिरा या थवकिल कहते हैं।
सितम्बर 21, 2019 को 10:54 पूर्वाह्न
Tikhur aur arrarrowt ek hi cheez hai kha