Archive for अक्टूबर, 2013

अन्टार्क्टिका – भारतीय अभियान – भारती

अक्टूबर 16, 2013

अन्टार्क्टिका (दक्षिणी ध्रुव) में बहु आयामी वैज्ञानिक अन्वेषण हेतु कुछ दूसरे विकसित  देशों की तर्ज पर भारत ने भी अपना कार्यक्रम बनाया और अपना पहला भू केंद्र वहां सन 1983 में स्थापित किया.  नाम दिया गया “दक्षिण गंगोत्रि”. इस केंद्र को बंद कर 1990 में “मैत्री” नामसे एक दूसरा केंद्र स्थापित हुआ जो अभी भी कार्यरत है. अपनी प्रतिष्ठा को बढाने  के लिए एक तीसरे केंद्र को स्थापित करने का निर्णय सन 2012 में क्रियान्वित किया गया. इस केंद्र का नाम “भारती” रखा गया जो एक बेहद दुर्गम स्थल “लारस्मान पहाड़ी” पर है. यह कोई ऊंची पहाड़ी नहीं है महज उस बर्फीले इलाके में पथरीली जगह है जो समुद्र के पास ही है. हमारे “मैत्री” नामक भू केंद्र से “भारती” की दूरी लगभग 3000 किलोमीटर है और दोनों जगह जाने के लिए दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन से गर्मियों में साधारणतया समुद्री मार्ग उपयुक्त रहता है. वहां पहुँचने के लिए बरफ काटते  चलने वाली जहाज़ का प्रयोग  होता है और गति धीमी होने के कारण यात्रा ३ सप्ताह से अधिक की भी हो सकती है “भारती” भू केंद्र के पास हेलिपेड भी है.

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हमारा भू केंद्र “भारती” ऐसा दिखता  है 

पिछले वर्ष शायद अगस्त के महीने में मुझे पता चला था कि मेरा भतीजा, जिसने विद्युत् अभियांत्रिकी में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली थी, अन्टार्कटिका  अभियान दल के लिए चुना  गया है. शीघ्र ही भारत में बर्फीले जगहों का आदी होने के लिए उसे प्रशिक्षण दिया गया और अभियान के मुख्यालय गोवा में कुछ दिनों के लिए रखा गया. फिर वह दिन भी आ गया जब उसने मुंबई से केप टाउन के लिए उडान भर दी. “भारती” के लिए जाने वाला यह पहला दल था हलाकि उस केंद्र के निर्माण  के लिए पूर्व में एक दल जाकर अपना काम कर लिया था. 

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केप टाउन में एक सांस्कृतिक संध्या 

Cape Town

केप टाउन में कुछ भ्रमण 

केप टाउन पहुँचने के बाद भतीजे से एक फ़ोन प्राप्त हुआ था.  वहां दो चार दिन रुकने के बाद पूरे दल को बरफ फोडू जहाज़ में लाद कर दक्षिण ध्रुव के हमारे “भारती” केंद्र” के लिए रवाना कर दिया गया. इसके बाद मार्च तक उससे कोई संपर्क नहीं बन पाया. इधर माता  पिता परेशान. कई बार मेल भेजे परन्तु कोई जवाब नहीं मिल पाया. अतः अभियान के गोवा मुख्यालय से भी संपर्क किया गया. मार्च में पहली बार उसने “भारती” से ही फ़ोन किया कि  वह ठीक है. बस इतना ही. बाद में उससे फ़ोन प्राप्त करने के अन्तराल में काफी कमी हुई. एक बार जब उसका फ़ोन आया था तो मुझसे भी बात हुई. यों कहें कि सभी रिश्तेदारों से एक एक कर बात हो सकी. उस समय उसने बताया था कि  जाते ही उपग्रहीय संचार व्यवस्था को व्यवस्थित करने  में उन्हें जुटना पड़ा था. तीसरे चित्र के बायीं तरफ जो दो गोले दिख रहे हैं वे ही उपग्रहीय संचार के लिए बने अन्टेना हैं. Piston Buly 300

उस इलाके में आवागमन का साधन – पिस्टन बुली 300 

अभिभावकों की परेशानियों को समझते हुए अभियान मुख्यालय ने एक अच्छी व्यवस्था कर दी.  भारत का ही एक दूरभाष नंबर उपलब्ध कराया गया. उस नंबर को डायल कर एक एक्सटेंशन नंबर भी डायल करें तो यहाँ से हम उपग्रहीय दूरभाष के जरिये सीधे बात करने में सक्षम हो गये. इसके लिए एक निश्चित समय निर्धारित किया गया. यह व्यवस्था सब को रास  आई और सराही गई. मैंने भी कई बार संपर्क किया ताकि उसे संबल मिले और साथ ही अपना कुछ ज्ञान वर्धन भी कर पाया.

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पहली बार ही मेरे पूछने पर उसने बताया था कि केप टाउन से वहां पहुँचने में लगभग 28 दिन लग गए थे.  फिर मैंने यह जानना चाहा  कि उसे क्या करना पड़ता है तो बताया कि सब को सब काम करना पड़ता है. झाड़ू पोछा से खाना बनाने तक. तब मैंने कहाँ वहां झाड़ू पोछे की क्या जरूरत है. इस पर उसने बताया कि उसके इलाके में सबसे तेज हवाएँ चलती हैं जिसके कारण उस पथरीले इलाके के पत्थर  लुढ़कते   हैं और डस्ट उड़कर केंद्र के अन्दर पहुँचता है. उसने हवा की गति को कुछ नॉट्स में बताया जो पल्ले नहीं पड़ा.

दक्षिण ध्रुव में वैसे तो ६ माह गर्मी का मौसम होता है (शून्य डिग्री) तो बचे ६ माह ठण्ड का (-40 डिग्री). उसी तरह ६ माह दिन रहता तो ६ माह रात. परन्तु “भारती जहाँ है वह दक्षिण ध्रुव के केंद्र में न होकर कुछ ऊपर है. इस लिए यहाँ गर्मियों में दिन लगभग 18 घंटे का होता है फिर कुछ कुछ अँधेरा सा होने लगता है. वैसे ही सर्दियों में जब रात रह्ती है, क्षितिज के नीचे सूर्य के होने से रंग बिरंगी रौशनी बिखरी होती है.  भतीजे ने एक बार बताया था कि गर्मियों में कभी कभी बाहर  का दृश्य खतरनाक रहता है. खतरनाक शब्द से हम चौंके और पुछा क्या उस समय बाहर निकलने से जीवन को खतरा होता है? तो उसने हँसते हुए कहा नहीं ताऊ बेहद सुन्दर लगता है. मतलब यह हुआ कि बेहद सुन्दर उसे खतरनाक लगा.  इस प्राकृतिक खेल को उसने कुछ विस्तार से भी समझाया. पृथ्वी की ओक्सिजेन का जब आकाश के नैट्रोजेन से मिलन होता है तो बेहद खूबसूरत छठा बनती है इसे “अरोरा” कहते हैं. मैंने उससे वहां  के कुछ चित्र भेजने के लिए कहा था परन्तु उसे सहज रूप से नेट पहुँच में नहीं थी. अभी अभी उसने फेसबुक के अपने अल्बम में डाल कर सूचित किया है. 

खनिज के रूप में वहां गार्नेट नामक रत्न चट्टानों में पाया जाता है. हमने मजाक में कहा था 5/10  किलो ले आना तो उसने झट से कहा था “एक तो मुझे उसकी  पहचान नहीं है और यहाँ से कुछ ले जाना मना  है”. वहां वनस्पती तो है ही नहीं हाँ पेंगुइन बहुत दिखते हैं इसके अलावा कुछ समुद्री जंतु भी.1380825_528643880544184_774633203_n

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acbऔर यही है वह खतरनाक अरोरा – नेट से प्राप्त किया 

अभियान दल के द्वारा प्रति दिन विसर्जित मल की प्रोसेसिंग अत्याधुनिक संयंत्र द्वारा की जाती है और दीगर कचरा एक बडे टंकी में डाल  दिया जाता है. दल के वापसी पर इस कचरे को साथ ले जाना होता है जिसे बीच समुद्र में दफ़न कर देते हैं. शुक्र है पूरा कचरा बायो डिग्रेड़ेबल होता है. यही प्रक्रिया दूसरे देश वाले भी अपनाए हुए हैं. आपसी सद्भाव बनाए रखने के लिए और कुछ कुछ एकाकी पन  से उबरने के लिए जितने भी देशों के केंद्र दक्षिणी ध्रुव पर हैं वे आपस में एक दूसरे  से मिलने जाया करते हैं और कभी कभी कुछ  सांस्कृतिक कार्यक्रम भी करते रहते हैं.

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मार्च या अप्रेल में भतीजे के वापस आ जाने की उम्मीद है और हम सब बेसब्री से उसके इंतज़ार में हैं. 

ब्रेड फ्रुट ट्री – हमारा कल्प वृक्ष

अक्टूबर 6, 2013

बचपन में अपने गाँव से वापस आने पर कटहल के बारे में जब भी बात निकलती तो हम अपने दोस्तों से कहते “हमारे गाँव के घर में जो कटहल का पेड़ है उसमें “ये” बड़े बड़े पत्ते होते हैं, बिलकुल पपीते के पत्तों की तरह, लेकिन फल छोटे छोटे”.  मुझे याद है, पूछने पर पिताजी ने बताया था कि यह कटहल नहीं है. हालाकि  मलयालम में इसे कडचक्का ही कहते है और चक्का का अर्थ कटहल होता है. उन्होंने समझाते हुए कहा था कि इन्हें पुर्तगाली लेकर आये थे, शायद मलक्का से और भारत में पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में जहाँ उनका अधिपत्य था लगवा दिया.  इन्हें ब्रेड फ्रुट कहते हैं और उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों के मूल निवासियों का प्रमुख भोजन रहा है. वे उन्हें उबाल कर या भून कर खाया करते हैं.

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घर के सामने ही और घर से सटा बरगद की तरह एक बड़ा ब्रेड फ्रुट पेड हुआ करता था और खूब फल लगा करते थे. वैसे हम लोगों के लिए यह फल निषिद्ध रहा. फिरंगी था ना.  हमारे दादाजी बरामदे में आराम कुर्सी पे बैठ पान चबाते रहते थे और उनकी निगाह दूर बने गेट पर होती.

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स्थानीय ईसाई समाज  के लिए यह फल परम प्रिय थी. कोई न कोई तो रोज ही आता और दादाजी उसी को पेड़ पर चढ कर तोड लेने कहते. 1950 के दशक में प्रति नग चार आने मिलते. लगभग प्रति दिन दस रुपये की कमायी हो जाती.  उस पेड से घर को नुक्सान भी पहुँच रहा था.  उसकी जड़ें घर के अन्दर घुस आतीं और दीवार के कोनों में पौधे  उग आते.  दूसरी समस्या रोशनी की भी थी. घर के सामने  अँधेरा छाया रहता और खोकला भी हो चुका था.   परन्तु हम लोगों के लिए वह कल्प वृक्ष जैसा था. 1960 के लगभग वहां अकाल की स्थिति बन गई. घर में लगे बांस के वृक्ष सूख गए परन्तु गेहूं जैसे बीज भी लगे. उस अकाल में हम लोगों ने बांस के बीज का प्रयोग गेहूं जैसा किया और ब्रेड फ्रूट की सब्जी बनने लगी. ब्रेड फ्रूट को आलू के जैसे प्रयोग करते. साम्बार के लिए बड़ी उपयुक्त पाई गई थी.  आलू की चिप्स की तरह हमारे यहाँ उससे भी चिप्स बनते. दादाजी के गुजर जाने पर ही पिताजी ने अपने विवेक का प्रयोग करते हुए उसे कटवा दिया. परन्तु उसकी जड से पनपे एक पौधे को दूर लगा दिया जो अब बड़ा हो चुका है और फल भी लग रहे हैं.

अबकी बार जब घर जाना हुआ था तो हम अपने कल्प वृख से मिले. अक्सर ही ऐसा होता कि जिस मौसम में हम गाँव जाते उस समय कभी कभार ही फल देख पाते. इस बार एक फल मिला और पूरे पेड़ पर फल लगने की पूर्व की स्थिति ही बनी थी.

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कटहल की शैशव अवस्था 

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कटहल के कोमल पत्ते 

???????????????????????????????ब्रेड फ्रुट की अपेक्षाकृत कोमल सतह 

IMG_4557कटहल की कठोर सतह (छिलका)

घर में कटहलों   के भी कुछ पेड हैं और जैसा सब जानते हैं कि  कटहल अधिकतर  तने पर ही लगते हैं जबकि ब्रेड फ्रूट शाखाओं पे लगते हैं  नीचे नीचे के कटहल तोडे जा चुके थे और उनका जाम बनवा कर सब भाई बहन ले गए. अब जो बचे हैं इतने ऊपर हैं कि उन्हें तोडे कौन.  वे पक पक  कर  धडाम से धराशाई हो रहे हैं और कोई नज़दीक भी नहीं जाता.

इस पोस्ट के माध्यम से दोनों प्रकार के कटहलों पर एक तुलनात्मक संक्षिप्त समझ ही बन सकेगी.  ब्रेड फ्रूट के पेड़ के बारे में अधिक और विस्तृत जानकारी यहाँ उपलब्ध है.

चित्र ३ और ४ विकिपीडिया से