वैदिक सभ्यता के भारत पहुँचने के काफी पहले से ही अमूमन पूरे भारत में ग्राम देवी देवताओं/वन ेवताओं को स्थापित कर उनकी आराधना किये जाने की परंपरा रही है. मान्यता है कि वे किसी भी विपत्ति में गाँव वालों कि सुरक्षा करते है. तामिलनाडु के गावों की सरहद पर पेड़ों की झुरमुट के बीच ऐसे ही ग्राम देवता निवास करते हैं और उन्हें “अय्यनार” कहते हैं. उनके कई सहायक भी होते हैं. चारों तरफ मिटटी से बने (टेराकोटा) बड़े बड़े घोड़े हाथी आदि बिखरे पड़े होते हैं. इन्हें देखने से ऐसा लगता है मानो ये उपेक्षित हैं. खँडहर जैसा लगता है. अलबत्ता कभी कभार कोई श्रद्धालु अगरबत्ती जला जाता है. मुझे लगा था कि यह परंपरा अब मृतप्रायः हो चली है परन्तु यह मेरी भूल थी.
अभी कुछ महीनों पूर्व चेन्नई से केरल तक सड़क मार्ग से जाने का अवसर मिला था. रास्ते में सेलम के पास राजमार्ग से कुछ दूरी पर अय्यनार का डेरा दिखा और जब तक हैम गाडी रोकने को कहते तब तक काफी आगे निकल चुके थे. हमने चालक महोदय से आग्रह किया कि अब जब भी कहीं अय्यनार दिखे तो गाडी रोक लेना. कुछ दूर जाने पे ही एकदम सड़क के किनारे ही नई नई रंगाई की हुई भीमकाय अय्यनार के दर्शन हुए. यहाँ कई आदमी और औरतें पूजा पाठ में लगे थे. जैसे निर्देशित किया गया था, चालक ने गाडी रोक दी. केमरा हाथ में लिए हम उतर पड़े और वहीँ खड़े खड़े तस्वीरें लेने लगे. इतने में अय्यनार के पास खड़े एक सज्जन ने हम सब को आमंत्रित किया. पता चला कि यह नया नया बना है तब मेरा माथा ठनका. समझ में आ गया कि अय्यनार के आदिम परंपरता को पुनर्जीवित किया जा रहा है. अय्यनार के मंदिरों में साधारणतया कोई छत नहीं होता. मूर्तियाँ आदमकद तो होती ही हैं. मध्य में अय्यनार तलवार लिए होता है जो कभी कभी सफेद घोड़े पर बैठा होता है. अगल बगल उसके सहयोगी रहते है. अय्यनार स्वयं शाकाहारी माना गया है जब कि उसके बाकी सहयोगी जिनकी एक बड़ी संख्या है, मांसाहारी होते हैं. वर्ष में केवल जनवरी में पड़ने वाले उत्सव के समय ही बकरों, मुर्गियों आदि की बलि दी जाती है. शराब पीकर वहाँ जाना प्रतिबंधित है. अय्यनार के पौरुष और पराक्रम से जुडी ढेर सारे किस्से कहानियां हैं जो उत्सव के समय समूह गान के रूप में गाया जाता है.
वहाँ हम सब को खीर और कुछ प्रसाद दिए गए. भरी दुपहरी थी, भूक भी लगी थी सो सब ने पूरे प्रसाद को बड़ी तन्मयता से खा लिया. मेरी माताजी ने भी खाया जब कि मैंने उन्हें बता दिया था कि यह अय्यनार का प्रसाद है जो गाँव के छोटे तबके (शूद्रों) के देवता हैं. माताजी कुछ हद तक रूढ़िवादी हैं परन्तु जब भूक लगती है तो सब कुछ शिव/विष्णु का प्रसाद बन जाता है. सड़क के किनारे होने से कम से कम वहाँ के निम्न वर्ग के गाड़ीवाले तो रूककर कुछ चढ़ावा भी दे जायेंगे। वहाँ दलित वर्ग अपने आपको “आदि द्रविड़” मानता है और अय्यनार के मंदिरों में अधिकतर पुजारी के रूप में गाँव का कोई कुम्हार ही होता है. वहाँ हमें कोई प्रज्वलित दीप नहीं दिखा. पूजा पद्धतियां भी जनजातीय ही हैं.
प्रसाद से निपट कर वहाँ केलोगों से विदा ली और आगे बढ़ गए कोई २०/२५ किलोमीटर चलने पर एक और अय्यनार दिखा. यहाँ भी गाडी रोकी गई. यहाँ अय्यनार अकेले था परन्तु साथ देने के लिए दो घोड़े बने थे. बगल में एक कमरा बना था जो बंद था. उसी के सामने एक सूचना फलक था जो बता रहा था कि बकरे आदि कि बलि केवल जनवरी में ही होगी और दारु प्रतिबंधित है. कुछ तस्वीरें खींच कर हैम लोग आगे बढ़ गए.
मुझे इस बात का खेद है कि अंदरूनी गाओं में जाकर खँडहर बन चुके पुराने अय्यनारों की तस्वीर नहीं ले सका.
फ़रवरी 28, 2014 को 8:29 पूर्वाह्न
ज्ञानवर्धन का आभार..अच्छी जानकारी मिली…
फ़रवरी 28, 2014 को 8:42 पूर्वाह्न
हम उत्तर भारतीयों को दक्षिण के इस सांस्कृतिक वैभव से निरंतर परिचित कराकर आपने हमारे ह्रदय को जीत लिया है -कहीं यह आपकी कोई कोई रणनीति का हिस्सा तो नहीं है ? 🙂
अपरंच बहुत सम्भव है इन अय्यनारों का संबंध आदि द्रविण -सैंधव सभ्यता से है जिन पर शोध की जरुरत है
फ़रवरी 28, 2014 को 9:09 पूर्वाह्न
होसूर से सेलम के बीच लगभग हर गाँव में ग्रामदेवता की प्रतिमा देखने को मिली।
फ़रवरी 28, 2014 को 9:34 पूर्वाह्न
कुछ-कुछ हमारे ठाकुरदेव की तरह.
फ़रवरी 28, 2014 को 9:50 पूर्वाह्न
ग्राम देवता उत्तर भारत में भी हैं , विधिवत पूजा भी होती है !
फ़रवरी 28, 2014 को 9:59 पूर्वाह्न
“वैदिक सभ्यता के भारत पहुँचने के काफ़ी पहले, …”
रोचक किन्तु भ्रमपूर्ण जानकारी !
क्षमा चाहूँगा, ’वेद’ और ’वैदिक’ सभ्यता नहीं ’सत्य’ और ’संस्कृति’ है, जो सदा से अस्तित्वमान रहा / रही है । हमारे ’ऐतिहासिकता’ की कसौटी पर भी !
अथर्ववेद में (शिव-अथर्वशीर्ष, देवी अथर्व-शीर्ष देखें) में स्पष्ट वर्णन है कि ’देवता’ ’सोमपा’ और ’असोमपा’ इन दो रूपों में होते हैं । जो लोकदेवता / ग्रामदेवता होते हैं उन्हें प्रायः ’भैरव’ / ’भैरवी’ के रूप में पूजा जाता है । और पूरी दुनिया में ’पैगन्’ / ’प्रगण’ के रूप में उनकी विद्यमानता सदा से स्वीकार्य है ।
इसलिए, ’अय्यनार’ को पढ़कर आश्चर्य नहीं हुआ । आश्चर्य सिर्फ़ इस बात से हुआ कि आपने अपनी पोस्ट का प्रारंभ ही प्रामाणिकता की कसौटी पर कसे बिना ही पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दिया ।
सादर,
फ़रवरी 28, 2014 को 10:56 पूर्वाह्न
अय्यनार की मूर्तियाँ जो मैने भी देखी हैं सड़क के किनारे, बहुत सुघड़ होती हैं। किस चीज की बनी होती हैं? प्लास्टर ऑफ पेरिस की?
सुघड़ता में दक्षिण की प्रतिमायें उत्तर से कहीं आगे हैं।
फ़रवरी 28, 2014 को 3:05 अपराह्न
आदिप्राचिन काल से गांव नगरों के सीमांत पर गांवदेवता/नगरदेवता के यक्षायतन होते थे।
फ़रवरी 28, 2014 को 5:38 अपराह्न
தமிழ் நாட்டை தவிர இதர மாநலங்களில் அதிகம் தெரியாத , சுவையான தகவல்கள் சார்.! அருமை.
फ़रवरी 28, 2014 को 6:04 अपराह्न
वैदिक सभ्यता को आर्य सभ्यता भी कहा जाता है. मैंने पढ़ा है कि आर्य सभ्यता के भारत आगमन से पहले सिंधुघाटी सभ्यता के अवशेषों में घोड़े का होना नहीं पाया जाता. बल्कि घोड़ों को सिंधुघाटी के लोगों की हार का कारण माना जाता है जिनका प्रयोग आर्य करते थे. ‘वैदिक सभ्यता के भारत आने से पहले’ कह कर आपने मधुमक्खियों के छत्ते को छेड़ लिया है. 🙂 वैसे आपकी जानकारी के लिए बता देता हूँ कि एक भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता ने क्ंप्यूटर लैब में उक्त सभ्यता की एक उत्तकीर्ण शिला की फोटो में बनी गाय की फोटो को घोड़ा बनाने की कोशिश की थी ताकि सिद्ध किया जा सके कि सिंधुघाटी सभ्यता में घोड़े भी थे और आर्य भी. अस्तु. आपका आलेख बहुत अच्छा लगा. बधाई.
फ़रवरी 28, 2014 को 9:41 अपराह्न
ग्राम देवता की छबि अभी भी उत्तर भारत, madhy प्रदेश छत्तीसगढ़ मुझे milati Hai inhe कही ग्राम देवता, ghahamsan Dau भी kahte hai
मार्च 1, 2014 को 8:15 पूर्वाह्न
जब बहुत छोटा था तो अपने गाँव और शहर के कई मन्दिरों के बाहर एक पिण्डी रूप में देवता को पुजते हुये देखता था… उनके समक्ष बलि भी चढाते थे… लोग उन्हें “गोरइया” कहते थे.. तब छोटा था इसलिये अधिक जांकारी नहीं एकत्र कर पाया.. लेकिन सोचता हूँ उनका नाम गाँव के अगोरवइया (अगोरने या हिफ़ाज़त करने वाले) से गोरइया रखा गया होगा.
एक सेतु हैं आप उत्तर-दक्षिण के मध्य!! प्रणाम!
मार्च 1, 2014 को 7:16 अपराह्न
ग्राम देवता तो उत्तर में भी ख़ूब हैं, पर इतनी भव्य मूर्तियां नहीं होतीं. एक बात और है, हमारे यहां अलग-अलग जातियों के अलग-अलग ग्राम देवता ज़रूर हैं, पर उन्हें पूज्य सभी मानते हैं. जाति के आधार पर देवताओं या उनके प्रसाद के बहिष्कार की बात मैंने इधर कभी नहीं सुनी.
मार्च 2, 2014 को 7:30 अपराह्न
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन – आधा फागुन आधा मार्च मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
मार्च 3, 2014 को 3:21 पूर्वाह्न
बचपन में मैंने भी ग्रामदेवता के दर्शन -प्रत्येकगाँव में और (अनेक नगरों में भी)किये हैं वे स्थानीय लोगों के लिये मान्य होते हैं .किसी चबूतरे या वृक्ष के नीचे , रूप प्रायः अनगढ़ ही पाया है ,जिनमें अधिकतर ,तेल-सिन्दूर से पुते भेरूजी (भैरव) होते हैं .
मार्च 3, 2014 को 5:04 अपराह्न
हम अपनी ही परम्पराओं से कितने अनजान है. राजस्थान में गावों के बाहर गोगाजी और केसरिया कंवरजी या किसी वीर योद्धा को समर्पित मन्दीर देखें है. मगर वे बड़ी मूर्तियों वाले नहीं होते.
मार्च 5, 2014 को 6:58 अपराह्न
@ मेरी माताजी ने भी खाया जब कि मैंने उन्हें बता दिया था कि यह अय्यनार का प्रसाद है जो गाँव के छोटे तबके (शूद्रों) के देवता हैं. माताजी कुछ हद तक रूढ़िवादी हैं परन्तु जब भूक लगती है तो सब कुछ शिव/विष्णु का प्रसाद बन जाता है. 🙂
सितम्बर 28, 2017 को 6:05 अपराह्न
जिज्ञासा पूर्वक इस पोस्ट पर पहुँच गया. पलायन व् विस्थापित भी नए स्थानों से पूजा करते हुए आज भी ग्राम देवता का आह्वाहन करते हैं. परन्तु जिन गावों का अस्तित्व ही नहीं रहा तो इस परिपाटी को सुदूर अनुकरण करने की प्रासंगिता पर जानकारी का अभिलाषी हूँ.