मेरे गाँव के मंदिर का वार्षिकोत्सव

मंदिरों में अलग अलग समय कुछ कुछ आयोजन होते ही रहते हैं परन्तु हर वर्ष एक प्रमुख पर्व भी होता है जिसे बड़े धूम धाम से मनाया जाता है. त्रिस्सूर (त्रिचूर) के निकट पालियाकरा मेरा पुश्तैनी गाँव है और यहाँ का प्रमुख मंदिर “चेन्नम कुलंकरा” कहलाता है जहाँ माँ काली विराजमान हैं. इस मंदिर का प्रमुख उत्सव  कुम्भ (माघ/फाल्गुन) माह के भरणी नक्षत्र के दिन पड़ता है. पिछले 6 मार्च को वह शुभ दिन था. इसे ही चेन्नम कुलंकरा भरणी कहते हैं.

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गाँव का मामला है इसलिए हमारे घर वालों के लिए भी यह एक खास दिन होता है. आस पास रहने वाले मेरे भाई तथा उनका परिवार इस आयोजन के लिए विशेष रूप से घर पहुँच ही जाते हैं. उस दिन सुबह ही कोच्ची से एक और कोयम्बतूर से एक भाई का यहाँ आना हुआ.

Vilichapadफसल के काटने के बाद लगान के रूप में एक हिस्सा  जमींदार को दिया जाता रहा और मन्नत के आधीन मंदिर को भी. उन दिनों धान मापने के लिए जो पैमाना हुआ करता था वह “परा” कहलाता था जो लगभग 10 किलो का होता है. “परा” एक पीतल का गोल बर्तन होता है जिसको धान से भरा जाता है. इसके लिए भी एक अनुष्ठान होता है जिसे परा भरना कहते हैं.एक और बात जो मैंने पूर्व में भी बताया है, यहाँ के जमींदार नम्बूतिरी ब्राह्मण हुआ करते थे जिनके बड़े बड़े फैले  हुए आवास होते हैं जिन्हें “मना” या “इल्लम” कहा जाता है. एक “मना” यहाँ के मंदिर के पीछे भी है और  उत्सव का प्रारम्भ “मना” से ही होता है. वहीँ हाथियों, वाद्यों आदि के बीच “मना” के नम्बूतिरियों द्वारा “परा” भराई होती है. उस समय एक “विलिचपाड़” वहाँ उसके लिए रखे लाल धोती आदि पहन लेता है और देवी के तलवार को हाथ में ले जोर जोर से थिरकने लगता है. मान्यता है कि देवी उस व्यक्ति पर आ जाती है.

यहाँ के “मना” का वरिष्ठ नम्बूतिरी ब्राह्मण भोज में शामिल होने किसी दूरस्थ गाँव गया था. जब वह वापस पहुँच ही रहा था, वह एक  पीपल के  नीचे बैठ गया और अपने ताड़ के पत्ते से बने छतरी को वहीँ नजदीक रख दिया। जब वह उठ गया और अपने छाते को लेनी चाही  तो उसे उठाते नहीं बना. उसी समय एक देवी की आवाज आई कि वह भी साथ है. देवी ने नम्बूतिरी के साथ “मना” के अंदर जाने की इच्छा व्यक्त की. नम्बूतिरी के पास कोई विकल्प नहीं था. उसने छतरी को ले जाकर एक कमरे में रख दिया। ऐसा कहते हैं कि देवी अब भी वहीँ है परन्तु अपने लिए पूर्व  मुखी मंदिर बनाये जाने की मांग रखी जिसका पालन हुआ.

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हम तीनों भाई भतीजों को ले सीधे “मना” में पहुंचे और उसी समय वहाँ का कार्यक्रम प्रारम्भ भी हुआ. सामने पांच हाथी बन ठन  के खड़े थे. पारम्परिक वाद्यों (मेलम) का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ.  धीरे धीरे उनकी गति बढ़ती गई और उच्चतम तक पहुँचते पहुँचते जनता भी थिरकने लगी. आरोहण और अवरोहण का सिलसिला कुछ देर तक चलता रहा. वाद्य वृंद के पांचवें पायदान में पहुँचने पर “विलिचपाड़” प्रकट हुआ. अपने वस्त्र, अस्त्र शस्त्रों को धारण कर तीव्र गति से थिरकने लगा. बीच बीच में कुछ आवाजें भी निकालता. इसी समय “परा” भराई का कार्यक्रम भी संपन्न हुआ. सर्वसाधारण के लिए परा भराई मंदिर के सम्मुख  ही होती है.

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जब वहाँ कार्यक्रम चल ही रहा था तब बगल के मुख्य मार्ग में कुछ चल समारोह का भान हुआ. अभी अभी सेवा निवृत्त हुए भाई को संग ले हम सड़क पर पहुँच गए. एकदम सामने दुर्गा जी के वेश धरे बेहतरीन तरीके से सजा एक युवक था. पीछे पीछे गाजे बाजे वाले करतब दिखाते चल रहे थे और भी बहुत कुछ. काश घर में छोटे बच्चे होते तो बहुत ही आनंदित हुए होते.

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इन्हें देखने के बाद मंदिर के भी दर्शन कर लिए और घर लौट आये. शाम 7 बजे मंदिर में “तायम्बका” जिसमें 2 या दो से अधिक लोग “चेंडा” नमक वाद्य बजाते हैं वह भी जुगलबंदी के साथ. इस कार्यक्रम में हम  नहीं जा पाये. माँजी का साथ देते हुए दूसरों को भिजवा दिया. कोच्ची से आया हुआ भाई रात 1 बजे “मेलम” सुनने गया और फिर ४ बजे सुबह की आतिश बाजी देख वापस चलता बना.

16 Responses to “मेरे गाँव के मंदिर का वार्षिकोत्सव”

  1. प्रवीण पाण्डेय Says:

    जीवन और समाज में उत्सवों ने एक आनन्द बिखेरा है। सामाजिक उत्कर्ष की गाथा गाते हमारे स्थानीय त्योहार।

  2. Sushil Kumar Says:

    बाकी तो सब बढ़िया है, किन्तु-परन्तु प्रसाद में क्या मिलता है?

  3. विवेक रस्तोगी Says:

    बहुत ही रंगीन होती है सजावट और अनुशासन में भी, ऐसे ही एक त्यौहार थय्यम के बारे में अभी सुना, उसके बारे में भी जानकारी दीजिये

  4. Alpana Says:

    बहुत ही सुन्दर !हाथियों की सज्जा मनमोहक है.
    दक्षिण भारत में हिन्दुओं ने रीती रिवाज़ ,संगीत,कला और परम्पराओं को बचाए रखा है.यह जानना वाकई सुखद है.
    उनके उत्सव बहुत ही अच्छे लगते हैं.

  5. Gyandutt Pandey Says:

    परा के समान्तर उत्तर में पईला है। जिसमें से अनाज रख कर मापा जाता है।

    एक गांव में इतना सुन्दर होता है परम्परा का निर्वहन?! चित्र देख ललचा गया मन वहां जाने को!

  6. सलिल वर्मा Says:

    केरल के साथ मेरा लगाव आज भी वैसा ही है जैसा आज से 28 साल पहले हुआ करता था. आपकी पोस्ट पढते हुये लगा कि वहीं पहुँच गये हैं और वह सारा दृश्य सामने से गुज़र गया. हमारी पुरानी परम्पराएँ आज भी हमें खींचती हैं, जड़ें बुलाती हैं! और केरल की असली पहचान ये गाँव और रीति रिवाज़ ही हैं. मेरे लिये तो तकषी शिवशंकर पिल्लै ही वहाँ का आईना थे, अब आप हैं!

  7. पा.ना. सुब्रमणियन Says:

    @सुशिल कुमार जी
    वैसे उस ख़ास दिन तो लोग देने जाते हैं (धान). चाहें तो स्वयं धो के ले जा सकते हैं या फिर उसके बदले पैसे दे दें और नाप के भर दें.. वहाँ धान रखा रहता है प्रसाद में लड्डू पेड़ा तो नहीं बंटता परन्तु एक केला, हल्दी और कुमकुम दिया जाता है.

  8. Shikha varshney Says:

    सुखद रहा वर्णन पढ़ना .. और चित्र तो बहुत मोहक हैं.

  9. sanjay @ mo sam kaun.....? Says:

    आपका ब्लॉग दक्षिण और शेष भारत के बीच एक पुल जैसा है।

  10. ramakantsingh Says:

    परंपरा और त्यौहार का अद्धुत संगम बेहतरीन ज्ञान परक पोस्ट

  11. प्रतिभा सक्सेना Says:

    बहुत अच्छा लगता है ,दक्षिण अपनी परंपराओं को उसी रूप में सँजोये है वही भावना ,वही सज्जा-अलंकरण .इस सुन्दर जानकारी के लिए आभार 1

  12. देवेन्द्र बेचैन आत्मा Says:

    नई जानकारी, सुंदर पोस्ट..आभार।

  13. arvind mishra Says:

    समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा -हम भी कुछ दिन गुजारना चाहेगें आपके गाँव में में

  14. akaltara Says:

    वाह, चलचित्र की तरह घूम गए दृश्‍य, मनोरम.

  15. सतीश सक्सेना Says:

    यह परम्पराएं हमारी आत्मा हैं , बेहद खूबसूरत चित्र , इन आस्थाओं और परम्पराओं को प्रणाम !!

  16. सोमेश सक्सेना Says:

    दक्षिण भारत की परम्पराओं एवं संस्कृति से परिचय कराने के लिए आपका आभार. मैं नियमित रूप से आपका ब्लॉग पढता हूँ.

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