दाम्बुला टीले के चारों तरफ के नैसर्गिक सौन्दर्य अप्रतिम लगे. वहीँ से १३ मील दूर सिगिरिया की पहाड़ी हमें आमंत्रित करते प्रतीत हो रही थी. ग्रामीण अंचल की मिटटी/गिट्टी की सड़क से एक कठिन यात्रा कर आधे घंटे में हम लोग सिगिरिया पहुँच ही गए (मुख्य मार्ग की मरम्मत हो रही थी). प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क १६५०/- सिंहली रुपये. हम लोगों ने एक अधिकृत गाइड “पेरेरा” को ५०० रुपयों में ठैरा लिया. पेरेराजी ने राजा कश्यप के समय से सिगिरिया नगरी की कहानी, आदि से अंत तक हमें सुना दी. स्थल का पूर्व परिचय ऐसे ही तो कराते हैं.
यह नगर लगभग २ मील लम्बी और ०.६८ मील चौड़ी है. चारों तरफ बड़े ऊंची दीवारों से भी घिरी थी. सुरक्षा के लिए खाई भी बनी है जिसमे पानी भरा है. पहाड़ी की तलहटी में एक और वृत्ताकार खंदक (moat) है जिसमें बड़े बड़े मगरमच्छ घात लगाये रहते थे. आज भी अन्दर की तरफ के खंदक में मगरमच्छों का होना बताया जाता है. यह सब यही इंगित करता है कि वहां के शासक द्वारा उस पहाड़ का एक दुर्ग के रूप में प्रयोग किया जाता रहा होगा.
किसी बौद्ध विहार के लिए इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की आवश्यकता नहीं हो सकती थी.मॉनिटर छिपकलियाँ यहाँ बहुतायत से हैं. यही बात मधुमक्खियों के छत्तों की भी है. पर्यटकों को सूचना फलक द्वारा ऊंची आवाज़ नहीं करने की सलाह दी गयी है जिसके कारण मधुमक्खियाँ परेशान होकर हमला कर सकती हैं. ऐसी घटनाएं यहाँ घटती भी रहती हैं.
सिगिरिया के चारों तरफ सुव्यवस्थित उद्यान हैं. इनमे जलोद्यान, पाषाण उद्यान एवं सीढ़ीदार उद्यान सुनियोजित हैं. किले/महल की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर आजू बाजू पानी के सममित (symmetrical) जो जल कुंड बने हैं उन्हें ही जलोद्यान के रूप में संबोधित किया जाता है. इन कुंडों में लगे असंख्य प्राचीन फौव्वारे बरसात में अब भी काम करते हैं. हमारे गाईड पेरेरा ने यह बताने के लिए कि फौवारे अब भी काम करते हैं, एक के छेद में जोर से फूंक मारी और दुसरे फौव्वारे से पानी बाहर आया.
जलोद्यानों के करीब ही राजा का ग्रीष्मकालीन राजप्रसाद हुआ करता था, निर्माण की कालावधि के दृष्टिकोण से वे अद्भुत ही हैं. उपमहाद्वीप में सिगिरिया के उद्यानों को प्राचीनतम कहा जाता है. UNESCO के तत्वावधान में किया जाने वाला उत्खनन कार्य अपूर्ण है, अभी तो बहुत कुछ और किया जाना है.
राजप्रसाद का निर्माण पहाड़ रुपी चट्टान के ऊपर हुआ था जबकि अन्य भवन, उद्यान आदि पहाड़ के चारों तरफ बने थे. अब तो केवल जमीनी अवशेष ही बचे हैं जिनपर भवनों के कभी होने का एहसास होता है. किसी समय चट्टान के एक छोर पर एक भीमकाय सिंह बना हुआ था और उसके पंजों के बीच से गुजरकर मुह के अन्दर से ऊपर तक जाने के लिए सीढियां बनी थीं. सिंह के पंजे और आरंभिक सीढियां अभी भी विद्यमान हैं. ऊपर जाने की सीढ़ियों की संरचना चौकाने वाली हैं.
सिगिरिया की एक बड़ी खूबी, वहां की चट्टानों में ५ वीं सदी में बने भित्ति चित्र भी हैं. ५०० के लगभग चित्रों में से अब दर्जन भर ही शेष हैं. इन भित्ति चित्रों को देख सहज ही भारत के अजंता की याद हो आएगी. कुछ का मानना है कि चित्रों में दर्शायी नारियां अप्सराएँ हैं. हमें तो वे कहीं भारतीय, कहीं चीनी तो और कहीं अफ़्रीकी मूल के लग रहे थे. कहते हैं राजा कश्यप की ५०० रानियाँ थीं और उसी ने अपने परिवार की स्त्रियों के चित्र कलाकारों से बनवाये थे. बहरहाल उन कलाकारों की कल्पना एवं तकनीक की जितनी भी प्रशंशा की जावे कम है.
सीढ़ियों से ऊपर जाते समय एक ऐसी दीवार भी है जिसपर कुछ लेप लगाकर एकदम चिकना बना दिया गया है. इस दीवार में कोई भी अपना स्पष्ट प्रतिबिम्ब देख सकता है जैसे हम आयने में देख पाते हैं. उस दीवार पर ६ वीं से १४ वीं सदी के बीच आये हुए यात्रियों ने उत्कीर्ण लेखों द्वारा अपने पद चिन्ह छोड़ रखे हैं.
पठार रुपी शीर्ष पर पुरातत्व में रूचि रखने वाले तो घंटों बिता सकते हैं. वहां के तरुण पुष्कर, पीने के पानी हेतु सरोवर, पानी ले जाने के लिए बनी नालियां आदि तो अब भी अस्तित्व में हैं. दीवाने आम जैसा जनता से भेंट करने के स्थल, पत्थर से बने चबूतरे, पहरेदारों के रहने की व्यवस्था सभी कुछ तो है. हम लोग तो बस चारों तरफ का नज़ारा देखते ही रहे. एक तरफ घने जंगल, जहाँ से शायद युद्ध के लिए हाथी पकडे जाते रहे होंगे,
एक तरफ दूर दूर तक फैले धान के खेत, जो भरपूर अन्न देते रहे होंगे, उन्हीं खेतों के उस पार उत्तर में अनुराधापुरा का एहसास वगैरह वगैरह. ८० मील पूरब में पड़ेगा त्रिंकोमाली, जो दुनिया के सुन्दरतम बंदरगाहों में एक है. और १०० मील दक्षिण पश्चिम में श्रीलंका में हमारा अड्डा. संध्या हो चली थी, उतनी दूर वापस भी तो जाना है. अलविदा सिगिरिया.