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सिगिरिया (श्रीलंका), आसमान में महल (समापन)

सितम्बर 9, 2011

दाम्बुला  टीले के चारों तरफ के नैसर्गिक सौन्दर्य अप्रतिम लगे. वहीँ से १३ मील दूर  सिगिरिया की पहाड़ी हमें आमंत्रित करते प्रतीत हो रही थी. ग्रामीण अंचल की मिटटी/गिट्टी की सड़क से एक कठिन यात्रा कर आधे घंटे में हम लोग सिगिरिया पहुँच ही गए (मुख्य मार्ग की मरम्मत हो रही थी). प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क १६५०/- सिंहली रुपये. हम लोगों ने एक अधिकृत गाइड “पेरेरा” को   ५०० रुपयों में ठैरा लिया.  पेरेराजी ने राजा कश्यप के समय से सिगिरिया नगरी की कहानी, आदि से अंत तक हमें सुना दी. स्थल का पूर्व परिचय ऐसे ही तो कराते हैं.

यह नगर लगभग २ मील लम्बी और ०.६८ मील चौड़ी है. चारों तरफ बड़े ऊंची दीवारों से भी घिरी थी. सुरक्षा के लिए खाई भी बनी है जिसमे पानी भरा है. पहाड़ी की तलहटी में एक और वृत्ताकार खंदक (moat) है जिसमें बड़े बड़े मगरमच्छ घात लगाये रहते थे. आज भी अन्दर की तरफ के खंदक में मगरमच्छों का होना बताया जाता है. यह सब यही इंगित करता है कि वहां के शासक द्वारा उस पहाड़ का एक दुर्ग के रूप में प्रयोग किया जाता रहा होगा.

किसी बौद्ध विहार के लिए इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की आवश्यकता नहीं हो सकती थी.मॉनिटर छिपकलियाँ यहाँ बहुतायत से हैं. यही बात मधुमक्खियों के छत्तों की भी है. पर्यटकों को सूचना फलक द्वारा ऊंची आवाज़ नहीं करने की सलाह दी गयी है जिसके कारण मधुमक्खियाँ परेशान होकर हमला कर सकती हैं. ऐसी घटनाएं यहाँ घटती भी रहती हैं.

सिगिरिया के चारों तरफ सुव्यवस्थित उद्यान हैं. इनमे जलोद्यान, पाषाण उद्यान एवं सीढ़ीदार उद्यान सुनियोजित हैं.  किले/महल की ओर जाने वाले  मुख्य मार्ग पर आजू बाजू पानी के सममित (symmetrical) जो जल कुंड बने हैं उन्हें ही जलोद्यान के रूप में संबोधित किया जाता है. इन कुंडों में लगे असंख्य प्राचीन फौव्वारे बरसात में अब भी काम करते हैं. हमारे गाईड पेरेरा ने यह बताने के लिए कि फौवारे अब भी काम करते हैं, एक के छेद में जोर से फूंक मारी  और दुसरे फौव्वारे से पानी बाहर आया.

जलोद्यानों के करीब ही राजा का ग्रीष्मकालीन राजप्रसाद हुआ करता था, निर्माण की कालावधि के दृष्टिकोण से वे अद्भुत ही हैं. उपमहाद्वीप में  सिगिरिया के उद्यानों को प्राचीनतम कहा जाता है. UNESCO के तत्वावधान में किया जाने वाला उत्खनन  कार्य  अपूर्ण है, अभी तो बहुत कुछ और किया जाना है.

राजप्रसाद का निर्माण पहाड़ रुपी चट्टान के ऊपर  हुआ  था जबकि अन्य भवन, उद्यान आदि पहाड़ के चारों  तरफ बने थे. अब तो केवल जमीनी अवशेष ही बचे हैं जिनपर भवनों के कभी होने का एहसास होता है. किसी समय चट्टान के एक छोर पर एक भीमकाय सिंह बना हुआ था और उसके पंजों के बीच से गुजरकर मुह के अन्दर से ऊपर तक जाने के लिए सीढियां बनी थीं. सिंह के पंजे और आरंभिक सीढियां अभी भी विद्यमान हैं. ऊपर  जाने की सीढ़ियों की संरचना चौकाने वाली हैं.

सिगिरिया की एक बड़ी खूबी, वहां की चट्टानों में ५ वीं  सदी में  बने भित्ति चित्र भी हैं. ५०० के लगभग चित्रों में से अब दर्जन भर ही शेष हैं. इन भित्ति चित्रों को देख सहज ही भारत के अजंता की याद हो आएगी. कुछ का मानना है कि चित्रों में दर्शायी नारियां अप्सराएँ हैं. हमें तो वे कहीं भारतीय, कहीं चीनी तो और कहीं अफ़्रीकी मूल के लग रहे थे. कहते हैं राजा कश्यप की ५०० रानियाँ थीं और उसी ने अपने परिवार की स्त्रियों के चित्र कलाकारों से बनवाये थे. बहरहाल उन कलाकारों की कल्पना एवं तकनीक की  जितनी भी प्रशंशा की जावे कम है.

सीढ़ियों से ऊपर जाते समय एक ऐसी दीवार भी है जिसपर कुछ लेप लगाकर एकदम चिकना बना दिया गया है. इस दीवार में कोई भी अपना स्पष्ट प्रतिबिम्ब देख सकता है जैसे हम आयने में देख पाते हैं. उस दीवार पर ६ वीं से १४ वीं सदी के बीच आये हुए यात्रियों ने  उत्कीर्ण लेखों द्वारा अपने पद चिन्ह छोड़ रखे हैं.

पठार रुपी शीर्ष पर पुरातत्व में रूचि रखने वाले तो घंटों बिता सकते हैं. वहां के तरुण पुष्कर, पीने के पानी हेतु सरोवर, पानी ले जाने के लिए बनी नालियां आदि तो अब भी अस्तित्व में हैं. दीवाने आम जैसा जनता से भेंट करने के स्थल, पत्थर से बने चबूतरे, पहरेदारों के रहने की व्यवस्था सभी कुछ तो है. हम लोग तो बस चारों तरफ का नज़ारा देखते ही रहे. एक तरफ घने जंगल, जहाँ से शायद युद्ध के लिए हाथी पकडे जाते रहे होंगे,

एक तरफ दूर दूर तक फैले धान के खेत, जो भरपूर अन्न देते रहे होंगे, उन्हीं खेतों के उस पार उत्तर में अनुराधापुरा का एहसास वगैरह वगैरह. ८० मील पूरब में पड़ेगा त्रिंकोमाली, जो दुनिया के सुन्दरतम बंदरगाहों में एक है. और १०० मील दक्षिण पश्चिम में श्रीलंका में हमारा अड्डा. संध्या हो चली थी,  उतनी दूर वापस भी तो जाना है. अलविदा सिगिरिया.

सिगिरिया (श्रीलंका), आसमान में महल (1)

सितम्बर 2, 2011

श्री पी.एन. संपत कुमार, कोचिन शिपयार्ड, कोच्ची
के आलेख का हिंदी रूपांतर 

अंतरजाल में गोताखोरी करते हुए श्रीलंका के ऐतिहासिक विश्व धरोहर “सिगिरिया” के बारे में पहली बार सन २००४ में जाना था. मेरे एक साथी सपरिवार छुट्टियाँ मनाने श्रीलंका जाना चाह रहे थे और मुझसे आग्रह किया था कि उनके प्रस्तावित प्रवास के  कार्यक्रम की रूपरेखा सुझा दूँ.  उन दिनों श्रीलंका के राजनैतिक हालातों, अंदरूनी भागों में यात्रा के जोखिम, बहुत सारे सीढ़ियों को चढ़ पाने में उनकी पत्नी की असमर्थता आदि को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सिगीरिया को तिलांजलि दे दी थी. परन्तु सिगिरिया के बारे में जानी हुई बातों ने उन दिनों ही मेरे मस्तिस्क में उत्कंठा के बीज रोपित कर दिए थे और उपयुक्त अवसर आने पर वहां घूम आने के लिए लालायित रहा.

सिगिरिया, श्रीलंका वासियों के लिए हमारे ताज महल से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं अभीष्ट है. सिगिरिया संस्कृत मूल के सिंह गिरी का अपभ्रंश जान पड़ता है. ऐसी मान्यता है कि ५ वीं सदी में यह राजा कश्यप (सन ४७९ – ४९७) की राजधानी थी. कहते हैं कि अनुराधापुरा (सिगिरिया से ५० किलोमीटर उत्तर में) के राजा धातुसेन के पुत्र कस्सप्पा (कश्यप) ने अपने ही पिता का वध कर अपनी राजधानी अनुराधापुरा से सिगिरिया स्थानांतरित कर दिया था. उसे इस बात का भय था कि उसके सौतेले भाई मोग्गालाना को राजगद्दी सौंपी जायेगी. उसने सिगिरिया में एक सुन्दर नगर बसाया और १२१४ फीट ऊंचे उस गिरी के ऊपर अपना राजप्रसाद, वह भी मात्र ७ वर्षों में. यह जगह सुरम्य वादियों में बड़ी अनुकूल जगह थी क्योंकि वहां किसी शत्रु का पहुँच पाना भी कठिन था. उसका सौतेला भाई मोग्गालाना तो अपनी प्राण रक्षा के लिए भारत भाग गया परन्तु कुछ वर्षों बाद शक्तिशाली होकर वापस लौटा. दोनों भाईयों में युद्ध हुआ और कश्यप परास्त हो गया. शत्रु के हाथों मरने की अपेक्षा उसने अत्म्सम्मानार्थ आत्महत्या कर ली थी. उसके मरणोपरांत सिगिरिया को बौद्धों के तेरावड़ा एवं महायाना संप्रदायों के द्वारा  अपने विहारों के लिए अनुकूल समझ प्रयुक्त किया जाता रहा.  १६ वीं और १७ वीं सदी में यह स्थल कॅंडीयन राज्य के लिए एक सैनिक अड्डे के रूप में भी प्रयुक्त हुआ और तत्पश्चात शनै शनै खंडहरों में परिवर्तित हुआ. एक अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता एच.सी.पी. बेल ने सिगिरिया को पुनः ढूंड निकाला. कुछ विद्वानों का मत है कि सिगिरिया की पहाड़ी के ऊपर कभी कोई राजप्रसाद नहीं रहा है और न ही वह कभी भी श्रीलंका की राजधानी रही है. वह प्रारंभ से ही एक बौद्ध केंद्र ही रहा है.

ये सभी बातें मस्तिष्क में घुसी हुई तो थीं ही, इसलिए जब हम लोगों ने  इस वर्ष अप्रेल माह में छुट्टी मनाने श्रीलंका का कार्यक्रम बनाया तो, गाँठ बाँध ली थी कि सिगिरिया तो जाना ही है. हम लोग कोलम्बो से श्रीलंका के मध्य के शहर कंडी (Kandy) पहुँच वहीँ रहने की ठानी. वह एक रविवार का दिन था. सुबह नाश्ता कर एक टेक्सी दिनभर के लिए किराए में ले ली.(कंडी  में तमिलों के भी कई रेस्तोरां दिखे थे). हमारे गाडी के चालक “तामुरा” (kandy cabs) का  शिष्ट व्यवहार बड़ा अच्छा लगा था. वह कुछ कुछ तमिल और अंग्रेजी भी समझता था. जिस होटल में हम लोग रुके थे, वहां की मालकिन श्रीमती शकुंतला बड़ी मददगार साबित हुई. उसने हम लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा में  सेंडविच, सुगन्धित दूध के पेकेट और पानी की बोतले बंधवा दी थीं. फिर हम निकल पड़े सिगिरिया के लिए. रास्ते में ही “दाम्बुला” गुफा मंदिरों को देखने का कार्यक्रम भी था.

कंडी का मौसम बड़ा अविश्वसनीय रहता है. दो दिनों से घने घने बादलों की लुपा छुपी हो रही थी इसलिए रास्ते में ही बारिश में घिरने का अंदेशा बना हुआ था. महावेली नदी के किनारे किनारे कुछ मील (यहाँ अब भी गज और मील का ही चलन है) और फिर अरक्षित वनों के बीच से होते हुए हम लोग “मताला” नामके कस्बे में पहुंचे. यहाँ कुछ रुक कर एक एक कप श्रीलंका की चाय पी. फिर चहल कदमी करते हुए बस्ती के बीच ही बने बड़े देवी के मंदिर (मुथु मारि अम्मन) तक हो आये. मुझे बताया गया कि सन १९२७ में महात्मा गाँधी जी मताले आए थे और एक पाठशाला का शिलान्यास किया था.

नारियल के बागीचों और धान के खेतों के बीच से हम लोग आगे बढ़ चले. पूर्णतः अनजानी वादियों में से  गुजरना बड़ा अच्छा लग रहा था. धान के खेत बुआई के लिए तैयार हो रहे थे. किसानों का  भैंसों की सहायता से हल चलाते दिखना यहाँ के लिए सहज है. हवा में सोंधी सोंधी मिटटी की गंध घुली हुई थी. यदा कदा दिख जाने वाले ग्रामीण घर भारत में मालाबार की याद दिला देते हैं. खपरैल वाले ऐसे घर बारिश के लिए बड़े अनुकूल भी होते हैं. सड़क के दोनों तरफ छोटी छोटी दूकानों में केले, फल, सब्जियां और नरम नारियल उपलब्ध थे. पर्यटन को यहाँ बड़ी गंभीरता से लिया जा रहा है. सड़क के दोनों तरफ बड़े बड़े पीपल या वट वृक्षों को देखना भी एक अनुभव रहा. यहाँ की सरकार के द्वारा इस प्रकार के वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किया जाता है. इनसे भरपूर प्राणवायु (ओषजन) तो मिलती ही है, यह भी कहा जाता है कि ओज़ोन की परत भी सुरक्षित रहती है. दाम्बुला पहाड़ी के नीचे स्वर्ण मंदिर और भीमकाय बुद्ध

दाम्बुला गुफाओं की अग्रसर होते पर्यटक

मंदिर के बाहर

कक्ष के अन्दर

गर्भ गृह

चैत्य एवं पार्श्व में भित्ति चित्र तथा बुद्ध की प्रतिमाएं

जब सिगिरिया की दूरी लगभग १३ मील ही रह गयी थी, हम लोग दाम्बुला में थे. दानबुल्ला में एशिया महाद्वीप के गौतम बुद्ध को समर्पित महत्वपूर्ण गुफा मंदिर हैं. तीसरी सदी में  पहाड़ी पर बने इन गुफा मंदिरों का तबसे ही अनवरत उपयोग किया जा रहा है. वहीँ एक अब भी कार्यरत विहार भी चल रहा है. दाम्बुला, बौद्ध धर्म से सम्बंधित अपने भित्ति चित्रों के लिए प्रख्यात है.

नीचे की ओर एक संग्रहालय भी है जहाँ बुद्ध के दन्त अवशेष से सम्बंधित जातक कथाओं को बताया गया है. दाम्बुला प्रेमी युगलों के लिए भी स्वर्ग सदृश माना जाता है. सड़क के किनारे की दूकानों में कमल के फूल, अगरबत्ती, स्मृति सामग्री, खाद्य पदार्थ आदि बहुतायत से उपलब्ध हैं. भारत के बाहर किसी बौद्ध पवित्र स्थल हमने पहले पहल ही देखा था फिर भी हमें निराशा ही हुई. शायद मन खट्टा हो गया था. ठीक है यह उनकी एक तीर्थ स्थली है परन्तु मैंने देखा कि वहां के कर्मकांडी भिक्षुओने स्थानीय गरीब जनता की आस्थाओं को अक्षुण्ण बनाये रखना ही अपना  ध्येय बना रखा है.

यहाँ  श्रीलंका वासियों को कोई प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ता परन्तु विदेशियों, भारतीयों सहित, को स्थानीय मुद्रा में २२०० रुपये देने पड़ते हैं (श्रीलंका का १ रूपया = भारतीय ०.४५ रुपये). बड़ी अजीब बात है की UNESCO के द्वारा धन उपलब्ध कराये जाने एवं अन्य राष्ट्रों जैसे जापान, म्यांमार आदि द्वारा उदारता पूर्वक सहायता दिए जाने के बावजूद विदेशियों को बलि का बकरा बनाया जाता है. श्रीलंका के ही अन्य स्मारकों आदि में सार्क सदस्य देशों के नागरिक प्रवेश शुल्क में ५०% छूट प्राप्त कर सकते हैं.

आगे जारी … दूसरा और अंतिम भाग