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जयपुर (उडीसा) – “बचपन के दिन भी क्या दिन थे”

जनवरी 21, 2011

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर से लगभग ७५ किलोमीटर पूर्व में एक शहर है जयपुर  (Jeypore). वहां के स्थानीय लोग जोयोपुर कहते हैं. वैसे उड़िया भाषियों को “ओ” से बड़ी आत्मीयता है.  यह है तो उडीसा के  कोरापुट जिले में,  परन्तु यह कोरापुट से काफी बड़ा है. दक्षिणी उडीस का यह एक महत्वपूर्ण  व्यापारिक केंद्र भी है. समुद्र की सतह से २१६५ फीट की ऊँचाई पर, पूर्वी घाट श्रृखला के  हरे भरे पहाड़ों से, घोड़े की नाल की तरह तीन ओर से  घिरा यह एक सुन्दर शहर है. यहाँ एक बहुत ही बड़ा तालाब है जिसे जगन्नाथ सागर कहा जाता है.

जगन्नाथ सागर

आज़ादी के पूर्व यह एक देसी रियासत की राजधानी भी रही. यहाँ पुराने किले के खँडहर तथा रजवाड़ा इस बात के  द्योतक हैं  कि इस शहर का इतिहास भी संपन्न  रहा है.इस शहर को राजा विनायक देव द्वारा  सन १४५० में बसाये जाने का उल्लेख मिलता है जब कि वास्तव में यह उससे कहीं अधिक प्राचीन है.

रजवाड़े का सिंहद्वार


८ वर्ष की अवस्था में हमें यहाँ आना पड़ा था और यहाँ की स्थानीय भाषाओँ को सीखना पड़ा. वैसे उडीसा में होने के कारण यहाँ ज्यादातर लोग उड़िया बोलते हैं परन्तु तेलुगु बोलने वालों की भी बहुत बड़ी आबादी है. हिंदी बोलने वाले भी कम नहीं हैं. अतः इस नगर को कास्मोपोलिटन कह सकते हैं. यहाँ हर व्यक्ति तीनों भाषाओँ में वार्तालाप करने में सक्षम है.

इस शहर से भी मेरे बाल काल के बहुतेरे अनुभव जुड़े हैं. इस शहर के पूर्व में  एक बड़ा पहाड़ है. शीर्ष पर एक लोहे का खम्बा भी था, किसी राजा के द्वारा लगाया गया, परन्तु अब दिख नहीं रहा.   हम अपने कुछ साथियों के साथ दुपहर में निकल पड़े थे उसी पहाड़ की तरफ. चाह रहे थे कि उस खम्बे को छू आयें. रास्ते में खाने के लिए अंग्रेजी इमली (गंगा इमली) के कंटीले पेड़ भी बहुत सारे थे. तो पत्थर  या किसी डंडे को फ़ेंक फ़ेंक कर बहुत सारी इमलियाँ तोड़ ली थीं. बहुत चलने के बाद हम उस पहाड़ की तलहटी में थे. चढ़ाई भी शुरू कर दी.  कुछ ऊपर जाने के बाद  समतल सी जमीन भी मिली.  वहां खजूर के पेड़ों का झुरमुट  भी था. पेड़ भी पुराने और बहुत सारों के तने तो खोखले हो गए थे. मटरगश्ती करते आगे बढ़ ही रहे थे.  जमीन में  मानव के अस्ति  पंजर बिखरे पड़े थे.   कई  खोपड़ियाँ भी दिखीं. अचानक एक खजूर के खोखले तने पर नज़र पड़ी. हमारी पेंट गीली हो गयी. पेड़ के खोल में एक मानव था. लाश ही रही होगी. हम सब वहां से दौड़ पड़े और पहाड़ के दाहिनी ओर से सोमरतोटा के शिव मंदिर जा पहुंचे. देर शाम घर भी आ गए थे. ज्वर से पीड़ित. दो दिनों तक बुखार नहीं उतरा था.

यकीनन वह स्थल  वहां के आदिवासियों  का श्मशान ही था. अब समझ में आया है कि यह Tree Burial ही था परन्तु वहां के आदिवासियों में ऐसे किसी परंपरा की जानकारी नहीं है. वह कोई अपवाद स्वरुप किसी विशेष परिस्थिति में किया गया होगा.

एक बार अस्पताल जाते हुए पुलिस थाने के ठीक सामने सड़क के उस पार कुछ पुलिस वाले कबूतर को थामे हुए थे. एक कबूतरखाना खम्बे पर बना हुआ था. मेरे लिए तो यह कौतूहल का विषय था ही, सो हम भी उस कम्पौंड में घुस गए परन्तु हमें भगा दिया गया. वहां कबूतरों के माध्यम से जिला मुख्यालय कोरापुट तक सन्देश पहुंचाए और प्राप्त किये जाते थे. मैंने कई बार उनकी प्रक्रिया को जानने की कोशिश की थी. कबूतर के पाँव में कुछ बाँधा जाता था और दो कबूतर एक  साथ उड़ जाते थे. कबूतरों के माध्यम से संदेशों के आदान प्रदान को देखने का  यह मेरा पहला और अंतिम अवसर रहा है.

जीवन में सबसे पहले इसी शहर में मुझे कुत्ते ने काटा था. गिरिजेश जी यदि पढेंगे तो बड़े प्रसन्न होंगे. संयुक्त परिवार था. घर में किसी की बीमारी के लिए मुझे अस्पताल से दवा लाने के लिए कहा गया. पर्ची तो पहले से बनी थी. मुझे केवल वहां दिखाना भर था और कॉमपाउंडर द्वारा  दवा दी जाती थी. हुआ यों कि रस्ते में पुलिस थाने के पास बड़े इमलियों के पेड़  के नीचे कुछ सोडा बेचने वाले खड़े थे. एक दो पहिये वाली गाडी जिसमे अनेकों बोतल रखने के खांचे बने होते थे. उसमें हत्ता बना होता था जिसे पकड़ कर वे कहीं भी ठेलते हुए जा सकते थे. एक कुत्ता ठेले के पास आकर बोतलों को सूंघने लगा. मैं पास से गुजर रहा था. ठेले वाले ने कुत्ते को भगाने की बहुत कोशिश की और अंत में नीचे पड़े एक ईंट के टुकड़े से कुत्ते को दे मारा. ईंट का टुकड़ा कुत्ते को जम कर लगा और मेरे पास ही आ गिरा. मैं अपने आप को बचाने के लिए कुछ भागा इतने में कुत्ते ने मेरी टांग दबोच ली. मांस का  एक बड़ा टुकड़ा उसने बेरहमी से उखाड़ दिया. मैंने हाथ में पकडे हुए बोतल से उसके सर पर कई प्रहार किये तब कही उसने मुझे छोड़ा लेकिन तुरंत ही फिर जांघ  पर हमला कर दिया. इस बीच लोग आ गए. मैं  सड़क पर गिर पड़ा था, लहू लुहान. अस्पताल पास ही था तो लोगोंने मुझे वहां पहुंचा दिया. प्राथमिक चिकित्सा से काम नहीं बना तो मुझे अन्दर टेबल पर उलटे लिटा कर कटे फटे हिस्से की सिलाई कर दी. सुई में घोड़े के बाल का प्रयोग हुआ था. अब १४ इंजेक्शन का सवाल था. वह दवा जयपुर में उपलब्ध नहीं थी. हमारे एक मामाजी हमें बस में बिठा कर कोरापुट ले गए,  वहां के जिला अस्पताल में. उनके सुई के आकार को देखकर ही मेरे होश उड़ गए. हम लंगडाते हुए भाग खड़े हुए लेकिन सफल नहीं हो सके. पहली सुई तो पेट में नाभि के पास लगी परन्तु जैसा हम सोच रहे थे उतना दर्द नहीं हुआ. यह सिलसिला हर रोज चला. केवल १३ इंजेक्शन ही लग पाए. दवा ख़त्म हो गयी. क्योंकि एक लगना रह गया था, कभी कभी अपना असर दिखा देता है.

वयनाड (केरल), एक स्वर्ग यहाँ भी

नवम्बर 1, 2010

यह पोस्ट मूलतः अंग्रेजी में मेरे अनुज

श्री पी.एन. संपत कुमार,

कोचिन शिप यार्ड, कोच्ची द्वारा

यहाँ प्रकाशित किया गया है

साधारणतया हमलोग सपरिवार कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम केवल  ओणम, क्रिसमस या गर्मियों में ही बना पाते  है जब हमारे पुत्र के स्कूल की छुट्टियाँ रहती हैं. इस बार ओणम के समय श्रीलंका जाना निर्धारित था क्योंकि हमारे लिए पास ही है और विदेश भी. परन्तु छुट्टियाँ केवल चार दिन की थीं इसलिए हमें लगा कि श्रीलंका के साथ हम न्याय नहीं कर पायेंगे. वहां कई महत्वपूर्ण स्थल हैं जिन्हें देखने के लिए अधिक समय की आवश्यकता थी.

अब कहीं न कहीं जाना तो था. हमारे केरल में ही उत्तर में अतुल्य प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास को समेटे,  जैविक विविधता लिए वर्षा वनों से आच्छादित एक जिला “वयनाड” है जहाँ कभी जाना नहीं हो पाया था.  एर्नाकुलम (कोच्ची) से वयनाड जाने के लिए हमारे पास दो विकल्प थे. एक, अपनी ही गाडी से निलंबूर होते हुए जाया जावे या फिर रेल से कोज्हिकोड़ (केलिकट) और वहां से बस द्वारा. बरसात का मौसम और अनजाने रास्तों ने हमें दूसरे विकल्प को चुनने के लिए वाध्य कर दिया. कालपेट्टा , जो वयनाड का एक प्रमुख शहर है, में कई यात्री निवास हैं और हमने एक जेब पर भारी न पड़ने वाले “हरितगिरी” नामक रेसोर्ट में एक कमरा आरक्षित करवा लिया. हमने कुछ छान बीन कर ली थी और हमें इस रेसोर्ट के बारे में संतोषप्रद प्रतिक्रियाएं ही मिली थीं.

हम लोगों ने दुपहर की ट्रेन द्वारा कोज्हिकोड़ (केलिकट) के लिए प्रस्थान किया जिससे कि वहां शाम तक पहुँच जाएँ. वहां पहुँचने के बाद एक सस्ते होटल में कमरा लिया और निकल पड़े थे वहां के समुद्री किनारे की ओर. वहां की “बीच”  बड़ी सुन्दर है परन्तु वास्को  डा गामा तो “काप्पाड़”  नामके तट पर आया था जहां हम नहीं गए. हाँ वहां के सबसे पुराने “ताली” नामके शिव मंदिर में दर्शन कर लिया. इस शहर में शाखाहारियों  के लिए बड़ी मुसीबत है.  विकल्प बड़े सीमित हैं. एक होटल थी “दक्षिण” जहाँ हम लोगोंने दोसा खाकर पेट भरा.

कोज्हिकोड़ (केलिकट) से वायनाड के लिए बसें अनवरत चलती रहती हैं. हम लोग नाश्ता  कर बस में बैठ  गए. ढाई घंटे में हम लोग तामरस्सेरी  घाट से होते हुए कालपेट्टा पहुँच गए. पूरा रास्ता कोहरे से भरा था और हमारे बेटे ने कुल नौ रोमांचक नोकदार घुमाओं का हिसाब रखा है. पहाड़ियों और जंगलों के सफ़र का यह भी एक बहुत ही रोमांचक पहलू रहा है.

वयनाड से उत्तर में कर्णाटक तथा पूर्व में तामिलनाडू की सीमायें लगती हैं. इस जिले के तीन प्रमुख शहर हैं, कालपेट्टा, मानंतवाडी  और सुलतान बेटरी. अधिकतर भूभाग वनों से आच्छादित हैं  और बचे हुए में बागान हैं या कृषि भूमि. कॉफ़ी  (कहुआ) की खेती बड़े पैमाने पर होती है. चाय के भी बागान हैं. वयनाड का अदरख, हल्दी, लेमन ग्रास तथा शहद पूरे केरल में अपनी गुणवत्ता, स्वाद तथा सुगंध के लिए प्रख्यात हैं. मौसम पूरे वर्ष ठंडा तथा आरामदायक  रहता है. अधिकतर  यहाँ की आबादी बाहर से आये हुए खेतिहरों की है जो अपनी किस्मत आजमाने यहाँ आ बसे. यहाँ आदिवासी भी हैं जो अपने तीर चलाने एवं गुरिल्ला युद्ध तकनीक के लिए जाने जाते हैं.१७ वीं सदी में  ब्रिटिश राज से युद्ध में स्थानीय आदिवासियों ने पज्हस्सी राजा का साथ दिया था. इस राजा का स्मारक  मानंतवाडी में है.

एक छोटे स्विमिंग पूल, बार, रेस्तोरां तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा सुविधा से युक्त हरितगिरी एक अच्छा रेसोर्ट लगा. शाखाहारियों के लिए हरितगिरी का रेस्तोरां अनुपयोगी है क्योंकि वहां भोज्य पदार्थ प्रधानतया मांसाहारी हैं. और भी रेसोर्ट हैं जहां भांति भांति के भोजन की व्यवस्था है.  हमने बस्ती में जाकर छोटे  भोजनालयों को तलाशा. ऐसे कई भोजनगृह मिले. हम लोगोंने एक स्वामी के भोजनगृह का जायका लिया. इसे एक ब्राह्मण परिवार द्वारा चलाया जा रहा था. भोजन सुरुचिकर रहा. एक सब्जी तो सूखे कटहल के बीजों की बनायी हुई थी.

वयनाड के प्रमुख दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करने के लिए टूरिस्ट टेक्सी कर लिया जाना सर्वोत्तम है. हम लोगों ने एक टाटा इंडिका २७०० रुपयों के किराये पर डेढ़ दिनों के लिए ले ली थी. छोटी छोटी ४/५ किलोमीटर तक की दूरियों के लिए वहां के ऑटोरिक्शा उत्तम हैं क्योंकि यहाँ वे बहुत ही किफायती हैं. हमें कभी भी १० रुपयों से अधिक का किराया नहीं देना पड़ा था. यहाँ के लोगों का व्यवहार एकदम मित्रतापूर्ण रहा, वैसे ही सभी वाहन चालक बड़े भले हैं.

यहाँ के टूर ऑपरेटर्स के दृष्टिकोण से वयनाड में कुरुवा द्वीप (भारी बारिश के कारण बंद थी), चेम्ब्रा पाहाडी की चोटी,  पूकोड झील, मुत्तंगा अभ्यारण, तिरुनेल्ली, पक्षी पातालम, सूचिपारा जलप्रपात आदि ऐसे महत्वपूर्ण स्थल हैं जहाँ जाना ही चाहिए. हम लोगोंने अपने ड्राईवर सह गाइड से सलाह कर अपना खुद का कार्यक्रम बनाया. चेम्ब्रा पाहाडी की चोटी (ऊँचाई समुद्र सतह से ६९०० फीट) की आधी दूरी तक ही जा पाए जहाँ तक सड़क ठीक थी.वहाँ एक वाच टावर बना था. नीचे घाटियों में चाय और कॉफ़ी  के बागान और कालपेट्टा नगर के दृश्य बड़े मनोरम लग रहे थे. हमारा पुत्र बादलों की टुकड़ियों  द्वारा चुम्बित हो बड़ा ही प्रसन्न था. वह बादल के टुकड़ों  को अपनी मुट्ठी में भर कर कमीज की जेब में सहेजने  में व्यस्त हो गया. चेम्ब्रा पहाड़ की चोटी तक पहुँच कर वापसी में ६/७ घंटे तो लगेंगे ही. इसके लिए समान सोच वाले ७/८ लोगों का समूह चाहिए जो दाना , पानी और आवश्यक उपकरणों के साथ अभियान में शामिल हों. हम जहाँ तक पहुँच पाए थे वहां से और कुछ ऊँचाई पर सुना है कि दिल के आकार का झील भी है जिसके किनारे लोग खान पान और विश्राम करते हैं फिर आगे बढ़ते हैं. यह सब हमें मान सरोवर की याद दिला रहा था. कभी और सही.

यही है चेम्ब्रा की पहाड़ी

चेम्ब्रा की चोटी की ओर जाने का रास्ता

आधी दूरी तय करने के बाद

हमारा अगला कार्यक्रम “एडक्कल” गुफाओं को देखने का था. कालपेट्टा से २५ किलोमीटर सुल्तान बेटरी  जाने वाले मार्ग पर एक पहाड़ मिलता है जिसे अम्बु कुट्टी मला कहते हैं. एडक्कल गुफाएं इसी पहाड़ पर १००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं इन गुफाओं की खोज का श्रेय मालाबार जिले के पुलिस अधीक्षक श्री फ्रेड फासेट को दिया गया है जो सन १८९० में उस इलाके में शिकार करने गया था.  हमारी यात्रा ग्रामीण सडकों से होते हुए रही और वहाँ तक पहुँचने में १ घंटा ही लगा.

गुफा में जाने का रास्ता

एक सुन्दर पेट्रोग्लिफ – मिश्र (ईजिप्त) याद आ रहा है

गुफाएं पहाड़ की चोटी पर थीं जहाँ पहुँचने के लिए २०० – २५० मीटर खड़ी चढ़ाई  है. इसके लिए चट्टानों पर चढ़ने का कुछ कौशल चाहिए. वहां हमने पाया कि बहुतेरे पर्यटक आये हुए थे भले इतिहास  में उनकी रूचि न रही हो. गुफा की चट्टानों में खोदकर आकृतियाँ (Petroglyphs) बनायीं गयीं हैं जिन्हें पाषाण युग के आदि मानवों द्वारा बनाया गया माना जाता है और इस लिहाज़ से ये हजारों वर्ष पूर्व की हैं. यहाँ का चित्रांकन अन्य शैलाश्रयों में पाए जाने वाले शैल चित्रों से भिन्न हैं.  इन गुफाओं की देख रेख  राज्य का पुरातत्व विभाग के जिम्मे हैं. उन आकृतियों में हमें लगा कि कहीं हिरण को रूपांकित किया गया है और कहीं किसी आदि मानव के मुख को अलंकरण सहित दर्शाया गया है जैसे कुछ कबीलों के सरदार होते हैं. हमें इस गुफा के लिए पूरे दो घंटे का समय देना पड़ा.  अद्यतन: – इन गुफाओंमे तामिल ब्राह्मी में लिखे कुछ लघु लेख भी हैं. अभी अभी फ़रवरी २०१२ में पांचवां लेख कालीकट  विश्व विद्यालय के सेवानिवृत्त पुरालेख के प्राध्यापक श्री राघव वारियर के द्वारा ढून्ढ निकला गया है.  लेख को  “श्री वज्हुमी” पढ़ा गया है.

                                                                                        चित्र साभार :  मोहम्मद अ

एडक्कल गुफाओं के ही करीब है सुल्तान बेटरी नामका शहर. वायनाड का यह सबसे बड़ा शहर भी है. यहाँ से कुछ दूरी पर कर्णाटक की सीमा से लगा हुआ है “मुत्तंगा अभ्यारण”. वैसे अभ्यारणों में विचरण के लिए प्रातःकाल उपयुक्त रहता है परन्तु हम वहां शाम को ही पहुँच पाए. अभ्यारण के अन्दर भ्रमण के लिए गाइड सहित गाड़ियां उपलब्ध हैं. सुबह पहुँचने पर गवर (बायसन), हाथी और कभी कभार शेर के भी दर्शन हो जाते हैं परन्तु हम लोगों को हिरणों के झुण्ड और कुछ मयूर आदि से ही संतुष्ट होना पड़ा.

पूकोड झील

वैतिरी नामक जगह के पास एक प्राकृतिक झील है “पूकोड”, बेहद सुन्दर. इतना सुन्दर झील हमने केरल में नहीं देखा है. हमें नैनीताल  की याद हो आई. यहाँ बोटिंग की सुविधा है और बहुतेरे तो केवल झील के चारों तरफ पैदल भ्रमण कर आनंदित हो रहे थे.

एकदम सुरक्षित कन्तंपारा जलप्रपात

सूचिपारा जलप्रपात देखना था परन्तु दूरी के कारण हमारे ड्राईवर ने नजदीक के ही एक दूसरे “कन्तंपारा जलप्रपात” चलने का सुझाव दिया. यह प्रपात अपेक्षाकृत छोटा है परन्तु लोगों की नजरों से ओझल है.

कन्तंपारा जलप्रपात

यह प्रपात दो चरणों में बंटा है. पहला वाला एकदम सुरक्षित है जहाँ एक कुंड सा बनता है. यहाँ छोटे बच्चे भी उधम कर सकते हैं. वायनाड में ऐसे अनछुए कई  स्थल हैं जहाँ हम प्रकृति की आगोश में होते हैं.

कन्तंपारा जलप्रपात

१६ वीं सदी तक तिरुनेल्ली एक प्रमुख नगर रहा है. तिरुनेल्ली में एक प्राचीन विष्णु मंदिर है और निकट ही पापनासम जलप्रपात. अगले दिन की यात्रा बस द्वारा की गयी. पहले  मानंतवाडी पहुँच कर वहां से तिरुनेल्ली के लिए दूसरी बस पकडनी पड़ी. कुल सफ़र ढाई घंटे का रहा जो सुरम्य जंगलों और पहाड़ियों के बीच से होकर था. हाथियों के लिए यहीं पर गलियारा प्रस्तावित भी है. कहने की जरूरत नहीं है की यहाँ रास्ते पर या अगल बगल जंगली हाथियों के दर्शन हो जाते हैं. हम लोगोंने कुछ हिरण ही देखे. तिरुनेल्ली का मंदिर पहाड़ियों से घिरा है और वहां की वादियों को छोड़ मंदिर में वैसे कोई ख़ास आकर्षण नहीं दीखता. अन्दर रख रखाव का काम चल रहा था. कहा जाता है की इस मंदिर का उल्लेख १० वीं शताब्दी के साहित्य में मिलता है. यहाँ के मंदिर के लिए सुदूर पर्वतों से पानी लाने की जो व्यवस्था की गयी है वह देखने योग्य है. यह आप इस चित्र से समझ जायेंगे.मंदिर के लिए पानी लाने की व्यवस्था

लोगों द्वारा  तिरुनेल्ली जाने के पीछे दो उद्देश्य होते हैं. एक तो नजदीक में प्रवाहित होने वाले पापनासम

पापनासम (जहाँ पापों से मुक्ति मिलती है)

(जहाँ पापों से मुक्ति मिलती है) झरने और कुंड में स्नान करना और दूसरा वहां के पारंपरिक चिकित्सा में पारंगत जनजातीय वैद्यों से सलाह लेना. पापनासम कुंड को “ब्रह्म तीर्थ” भी कहा जाता है. वहा हमें एक चट्टान दिखा जिसे गोलाई में तराशा गया है. उसपर विष्णु पाद, शंख, चक्र, गदा एवं पद्म बने हैं. यह काफी प्राचीन लग रहा था और पूजित भी है.

संभवतः यह मृतकों के मोक्ष के लिए पिंड दान करने के लिए है

हम लोग तीसरे दिन केलिकट होते हुए वापस एर्नाकुलम आ गए. वयनाड केरल के लिए  प्रकृति का वरदान ही है. अच्छी आबो हवा, अछे मिलनसार लोग, अप्रतिम प्राकृतिक सौदर्य से लोग प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकते. यहाँ भ्रमण का पूरा आनंद उठाने के लिए लम्बी पैदल यात्रा और कुछ कठिन पर्वतारोहण  की तैय्यारी के साथ जाया जावे तो फिर आनंद की सीमा नहीं रहेगी.