३८ लाख की आबादी वाला एक छोटा सा देश आर्मेनिया परन्तु किसी समय उसका भी जलवा था. सोवियत रूस के विघठन के बाद अब एक स्वतत्र गणराज्य है. भारत से अर्मेनियायियों का सम्बन्ध बहुत पुराना कहा जा सकता है. ८/९ वीं सदी में “थोमस ऑफ़ काना” नामके एक व्यापारी के भारत आने की बात कही जाती है. इस बात पर मतभेद है कि क्या वह एक बिशप था या महज व्यापारी. उसके साथ में कई अन्य परिवारों के आने की बात भी कही गयी है. दक्षिण का एक ईसाई समुदाय अपने आप को उनका वंशज भी मानता है. संयोग से विश्व में आर्मेनिया पहला देश था जिसने ४ थी सदी में ही ईसाई धर्म को अपना राज धर्म घोषित किया था.
मध्य युग में, यहूदी या पारसियों की तरह भारत में, अर्मेनियाई पनाह लेने के लिए नहीं आये थे. उनका आना तो कुछ धन प्राप्ति की लालसा लिए रहा. १६ वीं सदी के आसपास अकबर बादशाह ने अर्मेनियायियों (तत्कालीन फारस के) को आगरे में बसने के लिए आमंत्रित किया और धीरे धीरे वहां उनकी एक बड़ी आबादी हो चली थी. सूरत में भी इनका आगमन हुआ और वहां के बड़े व्यापारियों में शुमार हुए. इसी प्रकार गवालियर सहित अन्य कई नगरों में भी ये बस गए थे. मुखतः वे हीरे जवाहरात, रेशम, मसाले आदि का व्यापार करते थे.
चेन्नई (मद्रास) से भी अर्मेनियायियों का सम्बन्ध १६ वीं सदी से रहा है. उनके नाम से एक सड़क ही नहीं वरन उनके द्वारा बनवाया हुआ एक पुल भी है जो क्रमशः आर्मेनियन स्ट्रीट और आर्मेनियन ब्रिड्ज कहलाती हैं परन्तु दुर्भाग्य से अब यहाँ अर्मेनियायियों का नामों निशान नहीं है. उसी सड़क पर एक प्राचीन चर्च है जो चेन्नई की धरोहरों में गिनी जाती है. अंग्रेजों द्वारा बनाये गए सेंट जोर्ज के किले के अन्दर सन १६६८ में उन्होंने अपने लिए एक लकड़ी का काम चलाऊ चर्च बना लिया था. १७१२ में उसे पक्का बनाया गया परन्तु इस बीच मद्रास पर कुछ समय के लिए फ्रांसीसियों का अधिकार हो गया जिन्होंने उस चर्च को तुडवा दिया. कुछ दूसरे स्रोतों से पता चलता है कि उस चर्च को अंग्रेजों ने ही गिरवा दिया था. अंततोगत्वा १७७२ में आर्मेनियन स्ट्रीट पर ही शामियर नामक एक अर्मेनियाई रहीस परिवार के निजी कब्रगाह में पुनः एक चर्च बनाया गया जो आज उस समाज के नगर से जुड़े इतिहास को जीवित रखे हुए है. संदर्भवश पूरे भारत में आज उनकी आबादी लगभग ३५० की है.
यह आर्मेनियन स्ट्रीट है. चेन्नई में अंग्रेजी का एक नमूना – बायीं तरफ के सूचना पटल पर
क्योंकि हमने भी इस चर्च के बारे में सुन रखा था इसलिए देख आने की इच्छा जागृत हुई. मद्रास उच्च न्यालय से लगी (उच्च न्यायालय ने अपना नाम परिवर्तित नहीं किया है) सड़क पे जाकर ढूँढने पर चर्च तो नहीं दिखी परन्तु एक जगह दरवाजे के ऊपर लिखा दिख गया. दरवाजे के सामने हाकरों ने कब्ज़ा जमा रखा है. शाम ४.३० बज चुके थे और दरवाजा बंद ही था. आस पास पूछने पर पता चला कि वह ५ बजे खुलता है. तभी अचानक एक चौकीदार दरवाज़ा खोल बाहर आया, हम खुश हुए और अन्दर जाने लगे. चौकीदार ने रोकते हुए अंग्रेजी में बताया की सुबह ९.३० से दुपहर २.३० तक ही पर्यटकों को अन्दर जाने दिया जाता है. मिन्नतों का कोई असर नहीं हुआ. हम उल्टे पैर वापस लौट आये थे. एक सप्ताह बाद पुनः सुबह १० बजे ही पहुँच गए तब वहां बैठे एक सज्जन ने स्वागत करते हुए अन्दर आने को कहा. उसने बताया कि वह उस चर्च का अभिरक्षक है. अपना नाम उसने टी. अलेक्सांडर बताया और यह भी कि वह एंग्लो इंडियन समाज का है. चर्च से सम्बंधित दीगर जानकारियाँ भी उसी सज्जन से प्राप्त हुईं.
दरवाजे के अन्दर घुसते ही जो सामने दिखाई देता है वह घंटाघर है और आर्मेनियन चर्च के रूप में मैंने इसी की तस्वीर देखी थी. बगल में एक लम्बे बरामदे से लगा चर्च का प्रार्थना कक्ष है. सामने आले में माता मरियम शिशु ईशु को लिए खड़ी है. नीचे ईशु के जीवन से संबंधित सुन्दर छोटे छोटे चित्र बने हैं. मोमबत्ती जलाई रखी गयी थी और असीम शांति का अनुभव भी हो रहा था. घंटाघर रुपी मीनार पर चढ़ने के लिए लकड़ी की सीढ़ी थी परन्तु ऊपर चढ़ना वर्जित था. सीढ़ियों की जर्जर अवस्था एवं दुर्घटना की सम्भावना को मद्दे नज़र यह व्यवस्था बताई गयी.
ऊपर चढ़ने की बड़ी लालसा थी क्योंकि वहां छै बड़ी बड़ी घंटियाँ टंगी हैं. प्रत्येक का वजन १५० से २०० किलो तक का है. उनका निर्माण लन्दन के बिग बेन को बनाने वाली कम्पनी द्वारा सन १७७५ के आसपास किया गया था. एक इनमें सबसे पुराना सन १७५४ का है जिसे सन १८०८ में मद्रास में ही पुनः ढाला गया था. उस पर तामिल में लेख भी अंकित है.
बाहर की तरफ चारों ओर उद्यान हैं. पूरे क्षेत्र में चंपा (Frangipani/Plumeria) के कई पेड़ लगे हैं जिनमें लगे फूलों का आकार देखकर प्रसन्नता हुई थी. वे काफी बड़े बड़े थे गोयाकि परिसर में दफ़न ३७० अर्मेनियायियों के अवशेषों से उन्हें उर्वरकता प्राप्त हो रही है. सभी कब्रें समतल हैं और कब्र होने का एहसास केवल उनपर बिछी फर्शी पत्थरों के लेखों से ही हो पाती है. अपवाद स्वरुप एक कब्र है जो अलग थलग है. यह कब्र फादर हरुत्युम श्मवोनियाँ (Harutyum Shmavonian) की है जिनका निधन सन १८२४ में हो गया था.
आर्मेनिया के इतिहास में उनकी भाषा में सबसे पहले सन १७९४ में एक मासिक पत्रिका “अज़दरा ” का प्रकाशन इसी शक्शियत के द्वारा किया गया था. पत्रिका का मुद्रण भी इसी चर्च में हुआ था. हमने उस पत्रिका के दर्शन लाभ करवाने के लिए अलेक्सेंडर जी से निवेदन किया था परन्तु उसकी कोई भी प्रति वहां उपलब्ध नहीं थी. अलेक्सेंडर जी का मानना है कि संभवतः उन्हें सुरक्षित रखने की बात सोची भी नहीं गयी. इसी चर्च में तत्कालीन अर्मेनियायियों ने अपने एक स्वतंत्र देश के लिए संविधान की रूपरेखा सन १७८१ में तैयार की थी. विडम्बना ही कहा जा सकता है कि आर्मेनिया को स्वतंत्रता १९९१ में सोवियत गणराज्य के विघठन के पश्चात ही मिल पायी.
अर्मेनियायियों के बारे में एक रोचक पहलु यह भी है कि वे क्रिसमस २५ दिसंबर की बजाय ६ जनवरी को मनाते हैं. वे अपने आप को Eastern Orthodox Christians बताते हैं. उनका मानना है कि क्रिसमस मनाये जाने के लिए २५ दिसम्बर की तिथि का निर्धारण सन ३२५ में रोमन चर्च ने किया था जबकि उनके यहाँ क्रिसमस की परंपरा उसके पूर्व से ही रही है. अतः उस परिपाटी को जस का तस बनाए रखा है. दूसरी तरफ रूस के आर्थोडक्स चर्च द्वारा क्रिसमस ७ जनवरी को मनाया जाता है.
७ वीं सदी में पल्लवों के द्वारा निर्मित चेन्नई के कपालीश्वर का मूल मंदिर पहले समुद्र के किनारे था जिसे पुर्तगालियों ने १६ वीं सदी में ध्वस्त कर “सेनथोम” नामसे विख्यात चर्च (बेसिलिका) निर्मित किया. इसके लिए आर्मेनियायियों को उत्तरदायी माना जाता है. कहा जाता है कि मद्रास के अर्मेनियायियों ने ही उस इलाके में कहीं सेंट थोमस के दफ़न होने की सुनी सुनाई बात पुर्तगालियों को बतायी थी. इस पर कभी और…