Archive for the ‘Culture’ Category

ग्राम देवी की प्रतिष्ठा में एक पर्व

अप्रैल 16, 2014

यहाँ केरल में फसल की कटाई फ़रवरी में हो जाती है और शुरू होता है ग्राम्यांचलों में उत्सवों का दौर. साधारणतया यहाँ के मंदिरों के उत्सवों के लिए ‘बिन हाथी सब सून’ वाली बात सटीक रहेगी   परन्तु अपवाद स्वरुप चार छै मंदिर ऐसे भी हैं जहां हाथी के बदले काठ के घोड़े मोर्चा सम्भालते हैं. मैंने “मंदिर” शब्द का प्रयोग किया जो थोडा सा भ्रामक है. मंदिर के लिए   मलयालम में समानार्थी   शब्द “अम्बलम” है. जहाँ समाज के तथाकथित सभ्य लोगों के देवी देवता का निवास होता है. जबकि सभ्यता से दूर आदिम परम्पराओं से जुड़े ग्रामवासी सांधारणतया  शक्ति स्वरूपिणी माँ  काली (भद्रकालि) सहित प्रकृति, प्राकृतिक शक्तियों, सर्पों, पूर्वजों  की  आराधना करते हैं और ऐसे आराध्य स्थलों को  “कावु” कहते हैं जो खुली जगहों में पेड़ों के नीचे   स्थापित हुआ करते थे परन्तु फिर कई जगहों में उनके लिए खपरैल  वाला आश्रय स्थल निर्मित हुआ, बहरहाल यहाँ के देव स्थल दोनों प्रकार के मिलते हैं. कुछ कावु का स्थापत्य तो  मंदिरों को भी मात दे रहा है. बहुतेरे  कावु तो अब समाज के अभिजात्य वर्गके आधीन चले गए हैं.

पिछले18 फ़रवरी की सुबह  कोच्ची से मेरा छोटा भाई अपनी गाडी ले यहाँ घर आ पहुंचा.  उसने यहाँ से लगभग 30 किलोमीटर उत्तर पूर्व के ग्रामीण आँचल में आयोजित तिरुवानिकावु उत्सव की  तारीफ़ करते हुए चले चलने का प्रस्ताव रखा. वैसे हम  तो तैयार ही बैठे थे क्योंकि उसके आने की सूचना तो पहले से थी और यह भी मालूम था कि कहीं बाहर जाना है.  अतः सुबह ही नाश्ता कर निकल पड़े. वडकांचेरी नामक शहर से मुख्य मार्ग से कटना पड़ा और घुमावदार रास्तों से पूछते पूछते अपने गंतव्य तक पहुँच गए. उस जगह का नाम था माच्चाड और आयोजन का नाम था माच्चाड मामांकम (उत्सव).

IMG_4786

सड़क से लगा हुआ ही वह देव स्थल था जिसके सामने सुन्दर पेगोडा जैसा बांस का बना प्रवेश द्वार निर्मित किया गया था. हम   लोगों ने मंदिर (खेद है यही सम्बोधन सर पर सवार है) की  एक परिक्रमा  की. एक तरफ उत्सव समिति का कार्यालय था जहाँ हम   लोगों ने कार्यक्रम आदि की जानकारी प्राप्त की. हमें अतिथि मानते हुए उन लोगों ने मुफ्त में ही दुपहर के भोजन की कूपन पकड़ा दी. बाहर खाने कि अच्छी व्यवस्था थी. खाने के साथ खीर (भर पेट) भी उपलब्ध थी. भोजन ग्रहण कर हम फिर मंदिर प्रांगण में आ पहुंचे.

???????????????????????????????

दुबारा जब परिक्रमा करने लगे तो दो व्यक्ति लकड़ी के टुकड़ों को बजाते हुए कुछ गा रहे थे. एक व्यक्ति नीचे बैठा हुआ था जिसके सामने एक लकड़ी का बुत रखा था. दूसरा खड़े खड़े ही लकड़ी का बत्ता बजा रहा था. ये “पानन” जाति के होते हैं जो पहले कभी ताड़    के पत्तों से छतरी बनाया करते थे (कुछ कुछ  बसोड़ जैसा). पुराने जमाने में इन्हें जादू टोने में माहिर समझा जाता था.

IMG_4829

IMG_4797

कुछ देर उन्हें देख कर हम  लोग आगे बढ़ गये. एक विशालकाय पीपल के चबूतरे के आस पास अच्छी भीड़ लगी थी. कावु का द्वार पश्चिम की  तरफ था जिधर खेत थे और हम लोगों को बताया गया कि आस पड़ोस के दूसरे  क़ावुओं से देविओं के घोड़े गाजे बाजे के साथ आयेंगे. खेतों का विस्तार दूर दूर तक था. हम  लोग उसी दिशा की तरफ बढ़ते चले गए. जब लगा कि हम गाँव की सरहद तक पहुँच गए हैं तो वहीँ रुक भी गए. एक पीपल के नीचे किसी ग्राम देवता के लिए अनुष्ठान हो रहा था और वहीँ पास कुछ बालक/बालिकाओं के द्वारा कुछ करतब दिखाए जा रहे थे. कुछ ही देर में एक काठ के घोड़े को लादे और हल्ला करते लोग आते दिखे.

IMG_4796

IMG_4806एक इसरायली पर्यटक (इनका एक समूह था)

IMG_4802

IMG_4807

IMG_4824

IMG_4831

IMG_4838

IMG_4816

घोड़े को लादे लोग हम  लोगों के सामने ही आकर रुक गए. भीड़ भी जुटने लगी थी. फिर घोड़े को पलट के खड़ा कर दिया  गया मानो अपने दूसरे  साथियों की  बाट जोह रहा हो. 15/20 मिनटों में एक दूसरा घोडा आ पहुंचा. अब दोनों घोड़े आमने सामने खड़े कर दिए गए थे. शायद आपस में कुछ गुफ़तगू हुई हो. धीरे धीरे अलग अलग दिशाओं से और भी घोड़े आ पहुंचे. जब सब इकट्ठे हो गए तो काफिला मंदिर की  तरफ उछल कूद करते हुए चल पड़ा. अंततः सभी घोड़े (5 बड़े और 5 छोटे) मंदिर की चहार  दीवारी के बाहर कतारबद्ध हो खड़े हो गए. फिर सिलसिला छोटे छोटे समूहों का था जो गाजे बाजे के साथ सर पर कलश लिए आता रहा और सीधे मंदिर के अंदर जाता. इनमे ऐसे भी लोग थे जिन्होंने अपने दोनों गालों के आर पार त्रिशूल घुसेड़ रखे थे. यह परंपरा मूलतः तामिलनाडु की  है और मुरुगन (कार्तिकेय) के भक्तों द्वारा किया जाता है.  इधर घोड़ों को व्यस्त रखने के लिए “मेलम ” नामक वाद्य प्रारम्भ हुआ जो 2/3 घंटे का होता है.

IMG_4834

IMG_4835

हम  लोगों के लिए वहाँ 2/3 घंटे बने रहना कष्टदायक लगा फिर रात होने के पहले घर भी तो लौटना था इसलिए वापस लौटने की  सोची. शाम 4 बज रहे थे और घोड़ों के  अंदर प्रवेश के पूर्व  एक प्रतियोगिता होनी थी.  मंदिर प्रांगण के प्रवेश स्थल पर एक 20/25 फीट ऊंचा आयताकार मचान बना था. ऊपर सम्भवतः बांस की कमचिओं से मंच जैसा बना था जिसमें कोई ख़ास दम नहीं था. दर्शकोंने तो कह दिया कि घोडा उसके ऊपर से कूदकर अंदर जाएगा। उस ऊँचाई को देखते हुए यह तो असम्भव जान पड़ा.  वास्तव में  सभी घोड़े उसके नीचे से गुजरते हैं. प्रत्येक घोड़े को ऊपर उछाल कर  घोड़े के सर से टाट को टकराया जाना होता है. जो घोडा इसमें सफल रहता है वह विजयी घोषित किया जाता है. यहाँ यह बताना उपयुक्त होगा कि ये घोड़े वास्तव में बांस की  कमचियों, घांस फूंस से बने होते हैं और न कि सम्पूर्ण काठ के. 

IMG_4794आगे आने वाले कार्यक्रमों में एक “विलिचप्पाड” को कंधे में लाद  कर लाया जाना था. विलिचप्पाड वह व्यक्ति होता है जिस पर देवी आती है यह देवी और भक्तों के बीच संदेशवाहक का काम करता है. जब उस पर देवी आती है तो वह थर थर कांपता है  उछल कूद भी मचाता  है. भक्तों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर भी देता है. उसे कंधे पर लाद  कर लाये जाने की परंपरा केवल यहीं है. किसी जमाने में विलिचप्पाड सर्प दंश से पीड़ित हुआ था और तब ऐसा करना पड़ा था. शायद उसी की  याद में यह प्रथा अब भी जारी है.

संध्या 7 बजे आतिशबाजी का आयोजन था और उसके बाद कठपुतलिओं के माध्यम से रामायण का प्रदर्शन. यह कार्यक्रम लगातार 41 दिनों तक चलेगा.

इस आधुनिक युग में पर्याप्त मनोरंजन के साधनों के होते हुए भी ऐसे पारम्परिक आयोजनो में लोगों की रूचि सराहनीय है.

ग्राम देवता – अय्यनार

फ़रवरी 28, 2014

1907566_636514736421955_383301678_n

वैदिक सभ्यता के भारत पहुँचने के काफी पहले से  ही अमूमन पूरे भारत में ग्राम देवी देवताओं/वन ेवताओं को स्थापित कर उनकी आराधना किये जाने की  परंपरा रही है. मान्यता है कि वे किसी भी विपत्ति में गाँव  वालों कि सुरक्षा करते है.  तामिलनाडु के गावों की सरहद पर पेड़ों की  झुरमुट के बीच ऐसे ही ग्राम देवता निवास करते हैं और उन्हें “अय्यनार” कहते हैं. उनके कई सहायक भी होते हैं. चारों  तरफ मिटटी से बने (टेराकोटा) बड़े बड़े घोड़े हाथी आदि बिखरे पड़े होते हैं. इन्हें देखने से ऐसा लगता है मानो ये उपेक्षित हैं. खँडहर जैसा लगता है. अलबत्ता कभी कभार कोई श्रद्धालु अगरबत्ती जला जाता है.  मुझे लगा था कि यह परंपरा अब मृतप्रायः हो चली है  परन्तु यह मेरी भूल थी.

IMG_4268

अभी कुछ महीनों पूर्व चेन्नई से केरल तक सड़क मार्ग से जाने का अवसर मिला था. रास्ते में सेलम के पास राजमार्ग से कुछ दूरी पर अय्यनार का डेरा दिखा और  जब तक हैम गाडी रोकने को कहते तब तक काफी आगे निकल चुके थे. हमने चालक महोदय से आग्रह किया कि अब जब भी कहीं अय्यनार दिखे तो गाडी रोक लेना. कुछ दूर जाने पे ही एकदम सड़क के किनारे ही  नई  नई  रंगाई की  हुई भीमकाय अय्यनार के दर्शन हुए. यहाँ कई आदमी और  औरतें पूजा पाठ में लगे थे. जैसे निर्देशित किया गया था, चालक ने गाडी रोक दी. केमरा हाथ में लिए हम  उतर पड़े और वहीँ खड़े खड़े  तस्वीरें लेने लगे. इतने में अय्यनार के पास खड़े एक सज्जन ने हम  सब को आमंत्रित किया.  पता चला कि यह नया नया बना है तब मेरा माथा ठनका. समझ में आ गया कि अय्यनार के आदिम परंपरता को पुनर्जीवित किया जा रहा है. अय्यनार के मंदिरों में साधारणतया कोई छत नहीं होता.  मूर्तियाँ आदमकद तो होती ही हैं. मध्य में अय्यनार तलवार लिए होता है जो कभी कभी सफेद घोड़े पर बैठा  होता है. अगल बगल उसके सहयोगी रहते है.  अय्यनार स्वयं शाकाहारी माना गया है जब कि उसके बाकी सहयोगी जिनकी एक बड़ी संख्या है, मांसाहारी होते हैं.  वर्ष में केवल जनवरी में पड़ने वाले उत्सव के समय ही बकरों, मुर्गियों आदि की बलि दी जाती है. शराब पीकर वहाँ जाना प्रतिबंधित है.  अय्यनार के पौरुष और पराक्रम से जुडी ढेर सारे  किस्से कहानियां हैं जो उत्सव के समय समूह गान के रूप में गाया जाता है.

???????????????????????????????

वहाँ हम सब को खीर और कुछ प्रसाद दिए गए. भरी दुपहरी थी, भूक भी लगी थी सो सब ने पूरे प्रसाद को बड़ी तन्मयता से खा लिया. मेरी माताजी ने भी खाया जब कि मैंने उन्हें बता दिया था कि यह अय्यनार का प्रसाद है जो गाँव के छोटे तबके (शूद्रों) के देवता हैं. माताजी कुछ हद तक     रूढ़िवादी हैं परन्तु जब भूक लगती है तो सब कुछ शिव/विष्णु का प्रसाद बन जाता है. सड़क के  किनारे होने से कम से कम वहाँ के निम्न वर्ग के गाड़ीवाले तो रूककर कुछ चढ़ावा भी दे जायेंगे। वहाँ दलित वर्ग अपने आपको “आदि द्रविड़” मानता है और अय्यनार के मंदिरों में अधिकतर पुजारी के रूप में गाँव का कोई  कुम्हार ही होता है. वहाँ हमें कोई प्रज्वलित दीप नहीं दिखा. पूजा पद्धतियां भी जनजातीय ही हैं.IMG_4274

IMG_4276

IMG_4277प्रसाद से निपट कर वहाँ केलोगों से विदा ली और आगे बढ़ गए  कोई २०/२५ किलोमीटर चलने पर एक और अय्यनार दिखा. यहाँ भी गाडी रोकी गई. यहाँ अय्यनार अकेले था परन्तु साथ देने के लिए दो घोड़े बने थे. बगल में एक कमरा बना था जो बंद था. उसी के सामने एक सूचना फलक था जो बता रहा था कि बकरे आदि कि बलि केवल जनवरी में ही होगी और दारु प्रतिबंधित है.  कुछ तस्वीरें खींच कर हैम लोग आगे बढ़ गए.

मुझे इस बात का खेद है कि अंदरूनी गाओं में जाकर खँडहर बन चुके पुराने अय्यनारों की  तस्वीर नहीं ले सका.