Archive for the ‘Heritage’ Category

गोवा के सारस्वत और उनके मंदिर

सितम्बर 13, 2013

saraswatiपुराणों में वर्णित सरस्वती नदी एक वास्तविकता थी यह बात विगत कुछ वर्षों में हुए पुरा  अन्वेषणों से स्थापित हो चुका  है. तो बात उसी समय की है जब सरस्वती घाटी सभ्यता पर ग्रहण लग रहा था। लगातार सूखा पड़ने लगा और खेती किसानी ठप्प हो गयी.  खाने को अन्न के लाले पड़ने लगे.  ब्राह्मणों को चिंता होने लगी. उन्होंने अपने गुरु  सारस्वत मुनि (दधीची के पुत्र) के निर्देशानुसार सरस्वती नदी के मछलियों को  खाकर जीवन निर्वाह किया.  नदी में पानी की कमी से मछलियाँ भी लुप्त होने लगीं तब वहां से पलायन के अलावा कोई चारा नहीं बच  रहा. एक समूह उत्तर दिशा की ओर  प्रस्थान कर गया और कश्मीर सहित कई प्रदेशों में जा बसा. दूसरा समूह गंगा के किनाने किनारे चलते पूरब की तरफ मिथिला जा पहुंचा. कुछ लोग पश्चिम/दक्षिण पंजाब, सिंध , गुजरात और राजस्थान  की ओर बढ चले और एक बड़ा समूह  दक्षिण की तरफ कूच कर गया.  मछली खाने के आदी इन ब्राह्मणों को ही सारस्वत ब्राह्मण  कहा जाता है.

इन सारस्वतों  के बारे में एक पौराणिक कथा यह भी है कि एक बार श्री रामचन्द्रजी ने राजसूय याग (यज्ञं) का आयोजन किया.  लक्ष्मण को निर्देशित किया कि सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित करे. निर्धारित तिथि के पूर्व संध्या  पर श्री राम ब्राह्मणों के डेरे पर गए (जहाँ उन्हें  ठैराया  गया था), कुशल क्षेम पूछने.  वहां उन्हें एक भी सारस्वत ब्रह्मण नहीं दिखा.  चिंतित हो लक्ष्मण से पूछा  कि सारस्वत लोग क्यों नहीं पहुंचे. तब उन्हें पता चला कि उन्हें तो निमंत्रित ही नहीं किया गया है क्योंकि वे तो भ्रष्ट लोग हैं. मछली खाते हैं न.  तब श्री राम ने लक्ष्मण से मछली खाए जाने का तरीका  जानना चाहा. लक्ष्मण ने पूरी प्रक्रिया समझा दी. यह कि पहले मछली पकड़ते हैं फिर उस के सर और पूँछ को काट देते हैं.  बीच के हिस्से को खाने के लिए रख लेते हैं. फिर सर के साथ पूँछ को मिलाते हुए कुछ मन्त्र जाप करते करते हुए  फूंक मारते हैं.  इसके बाद सीधे नदी में डाल देते हैं. मछलियाँ  फिर जीवित होकर तैरने लग जाती हैं.  इस पूरे किस्से को सुनकर श्रीराम ने कहा,   फिर जीव हत्या तो नहीं हुई.  उन्हें अयोग्य मानकर चलना तुम्हारी भूल है. उन्हें भी आदर पूर्वक ले आओ.

तो जो समूह दक्षिण की तरफ कूच कर गया था वही बड़ी संख्या में गोवा में जा बसा. उनकी गिनती सफल व्यापारियों और प्रशासकों में होती थी. एक बडी संख्या उनकी भी थी जो खेती किसानी में अग्रणी बने.  मध्य युग में कुछ सारस्वत ब्राह्मण  बिहार आदि पूर्वोत्तर राज्यों से भी गोवा में आये थे.  गोवा के सभी सारस्वतों  को “गौड सारस्वत” की संज्ञा दी गई क्योंकि ये गौड़ देश या उत्तर से आये थे. इनके देवी देवताओं में शिव का स्थान महत्वपूर्ण था अतः जब ये लोग अपने मूल स्थान को छोड कर जब आगे बढ़ते गए तो अपने काफिले में अपने शिव लिंग को भी साथ  ले जाते.

पर्यटन के लिए गोवा जाने वाले लगभग सभी पंजिम (पाणाजी) से 23 किलोमीटर दूर और मडगांव से भी करीब उतनी ही दूर स्थित  मंगेशी मंदिर के दर्शन जरूर कर आते हैं. यह मंदिर पहले कभी कोर्टालिम (कुशस्थली) में हुआ करती थी. पुर्तगालियों के द्वारा प्रारंभ में   स्थानीय हिन्दुओं और मुसलमानों को धर्मान्तरण के लिए अपनी  क्रूर नीतियों के द्वारा  हद से ज्यादा प्रताड़ित किया गया. सन 1560 से शुरू किये गए गोवा इन्कुईसिशन के तहत उनकी बर्बरता अपने चरम पे रही.

Atrocities

स्थानीय  लोगों को आतंकित करने के लिए यातनाएं दी जाती थीं. सभी मंदिर/मस्जिद तोड डाले गए और लोगों को अपने धर्म के पालन पर पाबन्दी लगा दी गई. परिणामस्वरूप स्थानीय लोग ईसाई बनने  के लिए वाध्य कर दिए गये. कुछ ब्राह्मणों ने  जो अधिक संपन्न थे, अपनी  अकूत संपत्ति को बनाए रखने की गरज से ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था. दूसरों ने वहां से पलायन करना ही श्रेयस्कर माना.04062013725 

Mangeshi Temple

04062013726

बात चल रही थी मंगेशी मंदिर की जो उपरोक्त कारणों से विस्थापित होकर पोंडा के हिन्दू राज्य में पहुँच गई.  कहते हैं पूर्व में एक  छोटा सा मंदिर बनाकर लाये गए शिव लिंग को स्थापित किया गया. मराठों  के काल में मंदिर का विस्तार किया गया.  इस मंदिर की वास्तुकला   दूसरे  सभी मंदिरों से भिन्न है और अपनी एक अलग पहचान रखती है.     यह गोवा का सबसे बड़ा मंदिर भी है.  गर्भ गृह के सामने कलात्मक खम्बों से युक्त  एक विशाल मंडप बना है. मंदिर के सामने सात मंजिला द्वीप स्तम्भ विलक्षण है.

04062013733

04062013735

04062013738

04062013740

04062013744

गोवा का  दूसरा सबसे  महत्वपूर्ण मंदिर शांता दुर्गा का है जो वर्तमान पोंडा  तहसील के कवालेम में पहाड़ियों की ढ़लान पर  बनी है.  यह  जगह पंजिम से 33 किलोमीटर दूर पड़ती है. मंगेशी  मंदिर की तरह यह मंदिर भी मूलतः केल्शिम नामक जगह में थी जिसे पुर्तगालियों ने सन 1564 में बेरहमी से तुडवा दिया था. भक्तों ने देवी को कवालेम स्थानांतरित कर एक छोटा  मंदिर बनवा लिया.  सन  1738 में मराठों के शासनकाल में इस मंदिर का नवनिर्माण हुआ. इस सुन्दर मंदिर का निर्माण भी एक विशिष्ठ शैली की  है और पुर्तगाली वास्तुकला से प्रभावित भी है.  गर्भ गृह के ऊपर बने गोलाई लिए हुए शिखर को देख कर  चर्च का भी आभास हो सकता है. इस मंदिर के सामने भी मंगेशी मंदिर की तरह का दीप स्तम्भ बना है. मंदिर के बाहर  बनी बावड़ी  भी सुन्दर है और दक्षिण भारत के मंदिरों की याद दिलाती  है.

04062013734 

04062013745

वैसे तो यहाँ की देवी के बारे में बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं परन्तु जो अधिक प्रचलन में है वह ये कि शिव और विष्णु के बीच कभी युद्ध हो चला था.  ब्रह्मा के आग्रह पर दोनों को समझाने और सुलह कराने के लिए देवी ने यह रूप धरा और दोनों को अपने हाथों से (कान पकड़ कर ?) उठा  लिया और शांति स्थापित की. यही कारण  है कि यहाँ की देवी दुर्गा को शांता दुर्गा कहा गया है.

इस  से  एक बात याद आ रही है. साधारणतया ऐसे आख्यान प्रतीकात्मक होते हैं. गौड़ सारस्वत लोग शैव थे परन्तु 12 वीं सदी में माधवाचार्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया था और इनमें से कई लोगों को शिव से विमुक्त करने में सफल रहे. कहीं शांता दुर्गा वाली कहानी इसी परिपेक्ष में तो नहीं गढी गई. कर्णाटक और केरल की तरफ पलायन कर गए सारस्वत आज अधिकतर विष्णु की आराधना करते हैं.

गोवा से विस्थापित हुए गौड़  सारस्वतों में प्रभु, पाई, किनी, कामथ आदि उपनाम पाए जाते हैं. भारत के भूतपूर्व क्रिकेट कप्तान श्री सुनील गावस्कर एवं सचिन तेंदुलकर के  अतिरिक्त महान गायिका लता मंगेशकर तथा मशहूर फिल्म अभिनेत्री दीपिका पदुकोने  भी इसी समाज से हैं. 

  

तमिल जैनों की एक विरासत–तिरुमलई

जुलाई 21, 2013

मेरे भाई को चेन्नई से 187 किलोमीटर दूर  तिरुवन्नामलई  जाना था, एक बैठक में भाग लेने. उसने मेरे समक्ष साथ चले चलने का प्रस्ताव रखा.  मैं भी कई महीनों से बाहर नहीं जा पाया था सो इस कठिन शर्त के बावजूद कि  सुबह साढे पांच बजे निकलना होगा, हमने अपनी  स्वीकृति  दे दी. इस बीच हमने विकिपीडिया से कुछ जानकारियाँ एकत्र कर लीं. संयोग से यह भी मालूम पड़ा कि तिरुमलई नामक कोई एक जगह वहीँ कहीं नजदीक ही है जहाँ जैनियों के प्राचीन गुफा मंदिर हैं.  हमने भाई को अपनी  भी शर्त रख दी कि  तिरुमलई के जैन मंदिरों को देखने चलना होगा.  दुसरे दिन सुबह तडके हम उठ बैठे और तैय्यार  भी हो लिए. पांच बजे के पहले ही मुझे तैय्यार देख भाई को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह खुद देर से उठा  था. दाद देते हुए यह भी बताया कि घर पर मेहमान बन कर ठैरे एक दंपति भी साथ चलेगी.  खैर इसमें कोई परेशानी तो नहीं थी परन्तु परिणाम स्वरुप हम लोगों की रवानगी 6 बजे ही हो पाई.

IMG_4185

तिरुवन्नामलई के मंदिर आदि के दर्शन कर तीन बजे वापसी यात्रा प्रारंभ हुई इस बीच  तिरुमलई के जैन मंदिरों के बारे में रास्ते आदि की जानकारी स्थानीय लोगों से ले ली. पता चला कि वह रास्ते में ही पड़ेगा.  15/20  किलोमीटर चलने पर सड़क के बायीं तरफ एक रास्ता जा रहा था और एक पट्टिका पर दिगंबर जैन मंदिर ३ किलोमीटर दूर होने की सूचना थी. बडे धर्म संकट की स्थिति थी. आस पास कोई पहाड़ या टीला भी नहीं था. यह सोच कर कि देख आने में हर्ज क्या है, उस रास्ते बढ गए. एक गाँव आया नाम था “कापलूर” और जैन मंदिर भी दिखा जो आधुनिक था. दरवाजे पर तो ताला  पडा था लेकिन मालूम हुआ कि वहां 10 जैन परिवार हैं जो खेती किसानी करते हैं.

Kapalur Jain Temple

सतही तौर  पर देख कर आगे बढ गए. हमारे ड्राइवर ने अपने किसी मित्र से जानकारी मोबाइल पर प्राप्त करी और आगे बढ़ते चले गए.  आसमान पर बादल छा  गए थे.  “पोलूर” (जिसके पास मंदिर होने की सूचना थी) भी निकल गया और हमने जैन मंदिर दर्शन से वंचित हो जाने की कल्पना कर अपने आप को समझा भी लिया था.  ड्राइवर मुख्य मार्ग को छोड सकरे ग्रामीण मार्गों में चल रहा था और अचानक एक जगह “तिरुमलई”  के लिए दिशा निर्देश दिखे.  हम सब प्रसन्न हुए. लगता है हमलोग 40 किलोमीटर का सफ़र तय कर चुके थे.  देर आये दुरुस्त आये.

तमिल विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से भले एक हो परन्तु प्रारंभिक लेखन के लिए मौलिक रूप से ब्राह्मी लिपि का ही प्रयोग हुआ था जैसा कि अनेकों प्राचीन शिलालेखों से ज्ञात होता है. सुविधा के लिए यहाँ दृष्टिगोचर होने वाले उस प्राचीन लिपि को तमिल ब्राह्मी कहा गया है.  जैन धर्म का आगमन ईसापूर्व ही हो चुका  था और प्रतीत होता है कि जैन मुनियों के द्वारा  ही उत्तर पूर्व से अपने साथ अपनी  लिपि भी लाई गई. तमिलनाडु के प्राचीन समृद्ध साहित्य में जैन मुनियों का  योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है.  विश्व प्रसिद्द  “शिल्पधिकारम” के रचयिता “इलांगो अडिगल”  एक जैन भिक्षु थे.  शिल्पधिकारम प्रबुद्ध लोगों में जाना पहचाना नाम है इसलिए इस का नाम ले लिया. वैसे कई अन्य रचनाएं भी हैं

७ वीं/८ वीं सदी तक जैन धर्म को इस क्षेत्र में राजाश्रय प्राप्त हुआ और वे फलते फूलते रहे लेकिन बाद की घटनाओं जैसे शैव भक्ति आन्दोलन,  शंकराचार्य के प्रभाव आदि का जैन धर्म पर प्रतिकूल प्रभाव पडा और जैन धर्म के प्रति लोगों का मोह भंग होने लगा. इतिहास साक्षी है कि राजा के धार्मिक आसक्ति का प्रभाव प्रजा पर पड़ता ही है.  शनै शनै जैन धर्म दक्षिण में तो लुप्त प्रायः हो गया. उनकी धार्मिक विरासत अनेकों  गिरि  कंदराओं में दुबकी पडी है.

Local Jains at Thirumalai Math

लुंगीधारी स्थानीय जैनी – मठ के सामने 

Thirumalai temple Gopuram

Thirumalai Lower temple

Thirumalai - Side view of lower temple

Thirumalai - Mahaveer

उन्हीं में से एक है तिरुमलई  अतिशय क्षेत्र (अनुवाद = श्रीगिरि)   जिसके बहुत करीब पहुँच चुके थे. रास्ते में पहले एक जैन न्यास के द्वारा संचालित शाला  भवन दिखा और कुछ ही आगे बाएं अरहंतगिरि मंदिर और  “मठ” जो आधुनिक हैं . उसी रस्ते आगे गाँव है जिसकी  गलियों से गुजरते उस पवित्र पहाडी के तलहटी में पहुंचे. वहीँ दक्षिण भारतीय शैली में बना प्रवेश द्वार दिखा और अन्दर पहला मंदिर.  इस मंदिर के सामने एक मंडप है फिर गर्भगृह.  गर्भगृह तीन खण्डों में है. पहले कक्ष में कुछ भी नहीं है. गर्भगृह के बाहर के कक्ष के बायीं तरफ एक तीर्थंकर की काले पत्थर से बनी मूर्ति रखी थी और अन्दर संभवतः गौर वर्ण के महावीर  जी (वर्धमान)  विराजे थे. मूर्ति के पीछे की दीवार में भित्ति चित्र बने थे जिनका क्षरण   हो चला है.  मंदिर उजाड सा है और रख रखाव के आभाव में क्षति ग्रस्त हुआ जा रहा है.  इस मंदिर के  अलंकरण विहीन  मंडप  से ऐसा लगता है मानो  संन्यास ले रखा हो.  मंदिर का निर्माण विजयनगर काल का समझा जाता है.

Thirumalai upper temple

Upper_Temple_Complex_Wiki

Thirumalai Inscription of Kundavai

इस मंदिर के दाहिनी तरफ से ऊपर पत्थर को तराश कर बना मार्ग है जो ऊपर एक समतल भूमि पर ले जाता है . यहाँ एक और मंदिर है यह मंदिर नेमिनाथ  की होनी चाहिए क्योंकि राजा राजा चोल की बडी बहन “कुण्डवाइ”  के 10 वीं सदी के, यहीं जमीन में धंसे, एक शिलालेख में उसके द्वारा  एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है.  यही कारण है कि यहाँ के  मंदिर को स्थानीय लोग  कुण्डवाइ जीनालायम कहते हैं.  इस मंदिर का मण्डप कुछ बड़ा  सा है परन्तु शिखर गायब हो चुकी है. गर्भगृह बंद था और पुजारी के लिए बुलावा भेजा  गया परन्तु नहीं मिल सका. मंदिर के सामने कतार से एक मनस्थम्भ और फिर एक बलिपीठ बना है.  बलिपीठ अधिक पुराना जान पड़ता है. साधारणतया बलिपीठ यहाँ के हिन्दू मंदिरों में ही पाया जाता है.

Thirumalai cave temple

Thirumalai - Ambika?

IMG_4157 Kundavai Jeenalayam

IMG_4154 Bahubali (Gomateshwara)

दाहिनी तरफ भीमकाय  चट्टानें हैं  भूतल पर चट्टानों में ही कुछ छोटे कक्ष बने हैं जिनमें मूर्तियाँ रखी है. उनमें कुछ खाली भी पडे  हैं. पहाडी का ऊपरी चट्टान आगे की तरफ निकला हुआ है और बीच वाले हिस्से का प्रयोग करते हुए तीन स्तरों  पर निर्माण हुआ है. ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ी है. ऊपर बड़ा सकरीला  है और यहाँ भी मूर्तियाँ हैं. कुछ कक्षों में मैंने पाया कि एक डेढ़ फीट ऊंची पीठिका तो दिख रही है परन्तु कोई मूर्ति नहीं है. गुफा की दीवार पर मूर्ती के अंशों का होना पाया गया और जब हमने ए एस आई के कर्मी से पूछा  तो उसने बताया, साबजी मूर्ती  गल गई. यह जरूर है कि ऊपर की छत में पानी के कण दिखाई दे रहे थे. तो क्या मूर्ति पत्थर की नहीं बनी थी. इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मूर्तियों का, जो दिखने में सफ़ेद थीं, निर्माण स्टुको (गचकारी) तकनीक से किया गया रहा होगा.परन्तु उसके लिए बेस या आधार तो चाहिए होता है.

सबसे ऊपर छत और दीवारों पर बहुत ही खूबसूरत भित्ति चित्र बने हैं. नमी के कारण उनका भी क्षरण हो गया है. वैसे भित्ति चित्र नीचे के कक्षों में भी हैं परन्तु अन्दर घुसना और फोटो लेना बेहद कष्टदायक है.

Thirumalai Frescoes

IMG_4168

Thirumalai Fresco

हम लोग  अपनी  खोपड़ी बचाते हुए सकुशल नीचे आ गए हमें बताया गया कि पहाडी के शीर्ष तक जाने के लिए रेलिंग युक्त सीढ़ी कुछ दूरी पर बायीं ओर बनी है.  तीन चौथाई ऊपर एक छोटा सा मैदान जैसा है. यहीं पर नेमिनाथ (श्री कृष्ण के चचेरे भाई)  जी की 16 फीट ऊंची खडी मूर्ति एक शिखर युक्त कक्ष में रखी है. पूरी प्रतिमा का फोटो ले पाना कठिन है क्योंकि वह सलाखों के पीछे है.  यहाँ से और ऊपर जाएँ तो पार्श्वनाथ जी का एक छोटा मंदिर बना है. यहीं भावनगर के एक गुजराती परिवार से भेंट हो गई. पूछने पर उन्होंने बताया कि इस जगह का उल्लेख उनकी ग्रंथों  में है और वे यात्रा पर आये हैं. सबसे ऊपर की चट्टानों में तराशे गए तीन पद चिन्ह भी मिले जो उन जैन मुनियों के हैं जिन्होंने सल्लेखन द्वारा अपने प्राण त्यागे थे. वे  अभिलिखित हैं परन्तु वह लिपि पल्ले नहीं पडी.

IMG_4181                                                                                                                           आ रहे हैं भैय्या थोड़ा  सुस्ता तो  लेने दो 

Thirumalai Neminath

चट्टानों के पीछे है नेमिनाथ जी का शिखर युक्त कक्ष 

IMG_4186 (Gujrati family from Bhavnagar)

Thirumalai Foot prints of Monks

Overview

मंदिर का एक विहंगम दृश्य – पुरानी तस्वीर 

आधे घंटे वहां तेज ठंडी हवाओं का आनंद लेकर लौटना हुआ.  जैनियों के ऐसे प्राचीन  गुफा मंदिर सित्तनवासल, समनमलई आदि जगहों में भी हैं.