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शासकीय संग्रहालय, चेन्नै
जून 1, 2013Archaeology, Architecture, Heritage, Iconography, Museum, Tamilnadu, Travel में प्रकाशित किया गया | 19 Comments »
यह उपासक कौन है
मई 19, 2013संग्रहालय में घूमते समय एक शिल्प दिखा, शिव और पार्वती अगल बगल बैठे हुए हैं और किसी साधू या ऋषि को उनके सामने उलटे पाँव हाथ के बल खडे दर्शाया गया था. उपासना की इस विधि को देख मुझे हट योगियों का ख़याल आया. कोई सूचना फलक भी नहीं था जिससे पता चले कि वह ऋषि जैसा दिखने वाला आखिर कौन है. तस्वीर खींच कर घर आ गए. कुछ मित्रों से भी जानकारी चाही परन्तु वे भी कुछ बता सकने में असमर्थ रहे. इतना ही पता चला था कि शिव पुराण में उपासना की ऐसी किसी पद्धति का उल्लेख नहीं दिखा. बात आयी गयी हो गई.
कुछ पुरानी तस्वीरों के लिए कंप्यूटर के भेजे को खंगाल रहा था और पुनः एक बार वही तस्वीर प्रकट हो गयी. मंथन फिर शुरू हुआ और अंत में थक हार कर एक अमरीकी महिला मित्र को भी मेल द्वारा तस्वीर भेज दी. एक घंटे में ही जवाब आ गया कि शिव के परम भक्तों (६३ नायनार) में एक महिला थी जिसने हिमालय में कैलाश तक ऐसा करतब किया था. यह जानकारी पर्याप्त थी और गुत्थी सुलझ ही गयी . खेद है कि अब आप सब को भी झेलना पड़ेगा.
चेन्नई से ३०० किलोमीटर दक्षिण में पूर्वी समुद्र तट पर एक प्रमुख बंदरगाह है “कारैकल” जो कभी फ्रांसीसियों का उपनिवेश हुआ करता था। आज यह केंद्र शासित पुदुस्सेरी (पोंडिचेरी) के अंतर्गत आता है. यहाँ अब भी फ्रांसीसी संस्कृति का एहसास किया जा सकता है. यहाँ ९९ मंदिर हैं परन्तु इस नगर की प्रसिद्धि दक्षिण के एक मात्र शनि के देवालय के लिए है जहाँ शनि देव की प्रतिमा अभय मुद्रा में है. यह एक महत्वपूर्ण पहलू है. इस नगर में संत मस्तान सय्यद दावूद का दरगाह भी है जिसकी बड़ी ख्याति है. सन १८२८ में पुनः निर्मित अवर लेडी ऑफ़ एंजिल्स का चर्च भी सुकून देता है.
संगम काल में भी कारैकल एक फलता फूलता बंदरगाह एवं व्यापारिक केंद्र रहा है. इसी नगर में ६ वीं सदी में एक धनी परन्तु धर्मं परायण व्यापारी हुआ करता था “दनादत्त”. उसकी पत्नी धनलक्ष्मी बडी आज्ञाकारी थी। उनकी कोई संतान नहीं थी। दोनों ने मिलकर ईश्वर से संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थनाएं की और ईश्वरीय कृपा से संतान के रूप में एक कन्या ने जन्म लिया जिसका नाम था “पुनीतवती”. बालकाल से ही पुनीतवती में भगवान् शिव के प्रति अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गयी थी जो शनै शनै प्रगाढ आसक्ति में परिणित हुई. वह शिव भक्तों की भी सेवा करना अपना कर्तव्य मानती थी. सदैव ही उसकी ओंठों से “ॐ नमः शिवाय” निकलता रहता था. जब वह बडी हुई तो उसका विवाह एक धनी वैश्य (संभवतः चेट्टियार) “परमदत्त” से हो गई. पति पत्नी दोनों सुखी थे और एक आदर्श गृहस्थ जीवन जी रहे थे.
एक दिन पुनीतवती के पति ने दो आम भिजवाये जिन्हें उसने संभाल कर रख दिया ताकि दुपहर भोजन के साथ अपने पति को खिला सके. थोडी देर में एक भूका शिव योगी आ टपका जिसकी पुनीतवती ने यथोचित आवभगत की और भिक्षा भी दिया. भोजन करवाने में वह असमर्थ थी क्योंकि तब तक तैय्यार नहीं हो पाया था इसलिए पति द्वारा भिजवाये गए आमों में एक योगी महाराज को देकर विदा कर दिया. दुपहर पति के आने पर भोजन के साथ बचे हुए आम को भी काट कर परोस दिया. परमदत्त को आम अच्छी लगी तो उसने दूसरे आम की भी मांग की. पुनीतवती दुविधा में पड गई और चौके में जाकर ईश्वर की मदद मांगी. प्रार्थना के पूरे होते ही उसकी हथेली में आश्चर्यजनक रूप से एक आम आ गिरा. वह चकित रह गयी और ईश्वर का आभार मानते हुए उस आम को ले जाकर अपने पति को दे दिया. परमदत्त आम चख कर विस्मित था बडी लज्ज़त दार थी और ऐसा आम उस ने कभी नहीं खाया था उसे पक्का विश्वास था कि वह आम उसके द्वारा भेजी हुई तो कतई नहीं थी वह पत्नी से पूछ बैठा कि वो आम कहाँ की है. पुनीतवती के पास सत्य को जाहिर करने के अलावा कोई चारा नहीं था सो उसने पूरी घटना बता दी. परमदत्त को विश्वास नहीं हुआ और उसने इसी प्रकार एक और आम प्राप्त करने की चुनौती दे दी. पुनीतवती दुखी मन से अन्दर गई और एक बार फिर प्रार्थना की. परिणाम स्वरुप आम उसके हथेली में आ पहुंचा जिसे उसने अपने पति को दे दिया. उसके पति ने आम को हथेली पर रख निरीक्षण किया ही था कि अचानक वह आम गायब हो गयी. परमदत्त हक्का बक्का रह गया. उसे अपने पत्नी की महानता समझ में आ गई. असाधारण दैवीय गुणों से संपन्न पुनीतवती के साथ पति के रूप में रहना महापाप होगा ऐसा मानते हुए जल्द ही परमदत्त व्यापार के बहाने एक बडे नाव में माल भर कर किसी अज्ञात देश के लिए समुद्री यात्रा पर निकल पड़ा . कुछ वर्षों बाद वापसी पर पांड्य राज्य के किसी नगर में जा बसा और व्यवसाय में लग गया. एक वैश्य कन्या से विवाह भी कर ली . उसके घर एक कन्या जन्म लेती है। अपने पूर्व पत्नी की याद में अपनी पुत्री का नाम “पुनीतवती” रखता है. पुनीतवती के घर वालों को जब दूसरे नगर में परमदत्त के उपस्थिति की जानकारी मिलती है तो वे पुनीतवती को डोली में बिठा कर ले चलते हैं. भनक लगते ही परमदत्त स्वयं अपनी दूसरी पत्नी और बच्चे सहित अगुवानी करने निकल पड़ता है और जाकर पैरों पर गिर पड़ता है. लोगों द्वारा स्पष्टीकरण मांगे जाने पर बताता है कि वह पुनीतवती को एक पत्नी नहीं अपितु देवी मानता है.
पुनीतवती अपने पती की मनोदशा को समझते हुये भगवान् शिव से निवेदन करती है कि एक आकर्षक शरीर की जगह उसे राक्षसी जैसा कुरूप बना दिया जाए. तथास्तु तो होना ही था और उसका शरीर एक हड्डी का ढांचा बन कर रह गया, कुछ चामुंडा की तरह, निर्बल देह वाली.
कुछ समय पश्चात वह कैलाश की यात्रा पर निकल पडी. यह सोच कर कि उस पवित्र भूमि में पैर रखना गुनाह होगा, उसने अपनी यात्रा सर के बल पूरी की और शिव जी के समक्ष उपासनारत रही. शिवजी ने स्नेह और सम्मान के साथ पुनीतवती का स्वागत किया और वर देने के लिए तत्पर हो गए. पार्वती जी भी पुनीतवती को देख चकित थीं. तब शिवजी ने अपने उस भक्त को माता के रूप मे परिचय कराया. पुनीतवती ने कुछ भी नहीं माँगा. केवल इतना कि वह सदैव शिवजी का ही गुणगान करती रहे और शिवजी द्वारा जब भी नृत्य किया जाता हो तो वह भी चरणों में बैठकर असक्त हो सके. इस वजह से अक्सर नृत्य करते नटराज के पास भी पुनीतवती दृष्टिगोचर होती है.
इसी पुनीतवती को “कारैकल अम्मयार” (शब्दार्थ कारैकल की माता) कहते हैं। उन्हें “पुनीतवाद्यार” भी संबोधित किया जाता है. प्राचीन तामिल साहित्य में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनके दोहों के अंत में अपने लिए “कारैकल की पिशाच” शब्दों का प्रयोग देखा गया है. इसलिए कदाचित कई शिल्पियों/कलाकारों ने उन्हें पिशाच जैसा भी चित्रित किया है.
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