Archive for the ‘Paliakara’ Category

मेरे गाँव के मंदिर का वार्षिकोत्सव

मार्च 14, 2014

मंदिरों में अलग अलग समय कुछ कुछ आयोजन होते ही रहते हैं परन्तु हर वर्ष एक प्रमुख पर्व भी होता है जिसे बड़े धूम धाम से मनाया जाता है. त्रिस्सूर (त्रिचूर) के निकट पालियाकरा मेरा पुश्तैनी गाँव है और यहाँ का प्रमुख मंदिर “चेन्नम कुलंकरा” कहलाता है जहाँ माँ काली विराजमान हैं. इस मंदिर का प्रमुख उत्सव  कुम्भ (माघ/फाल्गुन) माह के भरणी नक्षत्र के दिन पड़ता है. पिछले 6 मार्च को वह शुभ दिन था. इसे ही चेन्नम कुलंकरा भरणी कहते हैं.

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गाँव का मामला है इसलिए हमारे घर वालों के लिए भी यह एक खास दिन होता है. आस पास रहने वाले मेरे भाई तथा उनका परिवार इस आयोजन के लिए विशेष रूप से घर पहुँच ही जाते हैं. उस दिन सुबह ही कोच्ची से एक और कोयम्बतूर से एक भाई का यहाँ आना हुआ.

Vilichapadफसल के काटने के बाद लगान के रूप में एक हिस्सा  जमींदार को दिया जाता रहा और मन्नत के आधीन मंदिर को भी. उन दिनों धान मापने के लिए जो पैमाना हुआ करता था वह “परा” कहलाता था जो लगभग 10 किलो का होता है. “परा” एक पीतल का गोल बर्तन होता है जिसको धान से भरा जाता है. इसके लिए भी एक अनुष्ठान होता है जिसे परा भरना कहते हैं.एक और बात जो मैंने पूर्व में भी बताया है, यहाँ के जमींदार नम्बूतिरी ब्राह्मण हुआ करते थे जिनके बड़े बड़े फैले  हुए आवास होते हैं जिन्हें “मना” या “इल्लम” कहा जाता है. एक “मना” यहाँ के मंदिर के पीछे भी है और  उत्सव का प्रारम्भ “मना” से ही होता है. वहीँ हाथियों, वाद्यों आदि के बीच “मना” के नम्बूतिरियों द्वारा “परा” भराई होती है. उस समय एक “विलिचपाड़” वहाँ उसके लिए रखे लाल धोती आदि पहन लेता है और देवी के तलवार को हाथ में ले जोर जोर से थिरकने लगता है. मान्यता है कि देवी उस व्यक्ति पर आ जाती है.

यहाँ के “मना” का वरिष्ठ नम्बूतिरी ब्राह्मण भोज में शामिल होने किसी दूरस्थ गाँव गया था. जब वह वापस पहुँच ही रहा था, वह एक  पीपल के  नीचे बैठ गया और अपने ताड़ के पत्ते से बने छतरी को वहीँ नजदीक रख दिया। जब वह उठ गया और अपने छाते को लेनी चाही  तो उसे उठाते नहीं बना. उसी समय एक देवी की आवाज आई कि वह भी साथ है. देवी ने नम्बूतिरी के साथ “मना” के अंदर जाने की इच्छा व्यक्त की. नम्बूतिरी के पास कोई विकल्प नहीं था. उसने छतरी को ले जाकर एक कमरे में रख दिया। ऐसा कहते हैं कि देवी अब भी वहीँ है परन्तु अपने लिए पूर्व  मुखी मंदिर बनाये जाने की मांग रखी जिसका पालन हुआ.

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हम तीनों भाई भतीजों को ले सीधे “मना” में पहुंचे और उसी समय वहाँ का कार्यक्रम प्रारम्भ भी हुआ. सामने पांच हाथी बन ठन  के खड़े थे. पारम्परिक वाद्यों (मेलम) का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ.  धीरे धीरे उनकी गति बढ़ती गई और उच्चतम तक पहुँचते पहुँचते जनता भी थिरकने लगी. आरोहण और अवरोहण का सिलसिला कुछ देर तक चलता रहा. वाद्य वृंद के पांचवें पायदान में पहुँचने पर “विलिचपाड़” प्रकट हुआ. अपने वस्त्र, अस्त्र शस्त्रों को धारण कर तीव्र गति से थिरकने लगा. बीच बीच में कुछ आवाजें भी निकालता. इसी समय “परा” भराई का कार्यक्रम भी संपन्न हुआ. सर्वसाधारण के लिए परा भराई मंदिर के सम्मुख  ही होती है.

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जब वहाँ कार्यक्रम चल ही रहा था तब बगल के मुख्य मार्ग में कुछ चल समारोह का भान हुआ. अभी अभी सेवा निवृत्त हुए भाई को संग ले हम सड़क पर पहुँच गए. एकदम सामने दुर्गा जी के वेश धरे बेहतरीन तरीके से सजा एक युवक था. पीछे पीछे गाजे बाजे वाले करतब दिखाते चल रहे थे और भी बहुत कुछ. काश घर में छोटे बच्चे होते तो बहुत ही आनंदित हुए होते.

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इन्हें देखने के बाद मंदिर के भी दर्शन कर लिए और घर लौट आये. शाम 7 बजे मंदिर में “तायम्बका” जिसमें 2 या दो से अधिक लोग “चेंडा” नमक वाद्य बजाते हैं वह भी जुगलबंदी के साथ. इस कार्यक्रम में हम  नहीं जा पाये. माँजी का साथ देते हुए दूसरों को भिजवा दिया. कोच्ची से आया हुआ भाई रात 1 बजे “मेलम” सुनने गया और फिर ४ बजे सुबह की आतिश बाजी देख वापस चलता बना.

ब्रेड फ्रुट ट्री – हमारा कल्प वृक्ष

अक्टूबर 6, 2013

बचपन में अपने गाँव से वापस आने पर कटहल के बारे में जब भी बात निकलती तो हम अपने दोस्तों से कहते “हमारे गाँव के घर में जो कटहल का पेड़ है उसमें “ये” बड़े बड़े पत्ते होते हैं, बिलकुल पपीते के पत्तों की तरह, लेकिन फल छोटे छोटे”.  मुझे याद है, पूछने पर पिताजी ने बताया था कि यह कटहल नहीं है. हालाकि  मलयालम में इसे कडचक्का ही कहते है और चक्का का अर्थ कटहल होता है. उन्होंने समझाते हुए कहा था कि इन्हें पुर्तगाली लेकर आये थे, शायद मलक्का से और भारत में पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में जहाँ उनका अधिपत्य था लगवा दिया.  इन्हें ब्रेड फ्रुट कहते हैं और उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों के मूल निवासियों का प्रमुख भोजन रहा है. वे उन्हें उबाल कर या भून कर खाया करते हैं.

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घर के सामने ही और घर से सटा बरगद की तरह एक बड़ा ब्रेड फ्रुट पेड हुआ करता था और खूब फल लगा करते थे. वैसे हम लोगों के लिए यह फल निषिद्ध रहा. फिरंगी था ना.  हमारे दादाजी बरामदे में आराम कुर्सी पे बैठ पान चबाते रहते थे और उनकी निगाह दूर बने गेट पर होती.

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स्थानीय ईसाई समाज  के लिए यह फल परम प्रिय थी. कोई न कोई तो रोज ही आता और दादाजी उसी को पेड़ पर चढ कर तोड लेने कहते. 1950 के दशक में प्रति नग चार आने मिलते. लगभग प्रति दिन दस रुपये की कमायी हो जाती.  उस पेड से घर को नुक्सान भी पहुँच रहा था.  उसकी जड़ें घर के अन्दर घुस आतीं और दीवार के कोनों में पौधे  उग आते.  दूसरी समस्या रोशनी की भी थी. घर के सामने  अँधेरा छाया रहता और खोकला भी हो चुका था.   परन्तु हम लोगों के लिए वह कल्प वृक्ष जैसा था. 1960 के लगभग वहां अकाल की स्थिति बन गई. घर में लगे बांस के वृक्ष सूख गए परन्तु गेहूं जैसे बीज भी लगे. उस अकाल में हम लोगों ने बांस के बीज का प्रयोग गेहूं जैसा किया और ब्रेड फ्रूट की सब्जी बनने लगी. ब्रेड फ्रूट को आलू के जैसे प्रयोग करते. साम्बार के लिए बड़ी उपयुक्त पाई गई थी.  आलू की चिप्स की तरह हमारे यहाँ उससे भी चिप्स बनते. दादाजी के गुजर जाने पर ही पिताजी ने अपने विवेक का प्रयोग करते हुए उसे कटवा दिया. परन्तु उसकी जड से पनपे एक पौधे को दूर लगा दिया जो अब बड़ा हो चुका है और फल भी लग रहे हैं.

अबकी बार जब घर जाना हुआ था तो हम अपने कल्प वृख से मिले. अक्सर ही ऐसा होता कि जिस मौसम में हम गाँव जाते उस समय कभी कभार ही फल देख पाते. इस बार एक फल मिला और पूरे पेड़ पर फल लगने की पूर्व की स्थिति ही बनी थी.

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कटहल की शैशव अवस्था 

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कटहल के कोमल पत्ते 

???????????????????????????????ब्रेड फ्रुट की अपेक्षाकृत कोमल सतह 

IMG_4557कटहल की कठोर सतह (छिलका)

घर में कटहलों   के भी कुछ पेड हैं और जैसा सब जानते हैं कि  कटहल अधिकतर  तने पर ही लगते हैं जबकि ब्रेड फ्रूट शाखाओं पे लगते हैं  नीचे नीचे के कटहल तोडे जा चुके थे और उनका जाम बनवा कर सब भाई बहन ले गए. अब जो बचे हैं इतने ऊपर हैं कि उन्हें तोडे कौन.  वे पक पक  कर  धडाम से धराशाई हो रहे हैं और कोई नज़दीक भी नहीं जाता.

इस पोस्ट के माध्यम से दोनों प्रकार के कटहलों पर एक तुलनात्मक संक्षिप्त समझ ही बन सकेगी.  ब्रेड फ्रूट के पेड़ के बारे में अधिक और विस्तृत जानकारी यहाँ उपलब्ध है.

चित्र ३ और ४ विकिपीडिया से