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तमिल जैनों की एक विरासत–तिरुमलई

जुलाई 21, 2013

मेरे भाई को चेन्नई से 187 किलोमीटर दूर  तिरुवन्नामलई  जाना था, एक बैठक में भाग लेने. उसने मेरे समक्ष साथ चले चलने का प्रस्ताव रखा.  मैं भी कई महीनों से बाहर नहीं जा पाया था सो इस कठिन शर्त के बावजूद कि  सुबह साढे पांच बजे निकलना होगा, हमने अपनी  स्वीकृति  दे दी. इस बीच हमने विकिपीडिया से कुछ जानकारियाँ एकत्र कर लीं. संयोग से यह भी मालूम पड़ा कि तिरुमलई नामक कोई एक जगह वहीँ कहीं नजदीक ही है जहाँ जैनियों के प्राचीन गुफा मंदिर हैं.  हमने भाई को अपनी  भी शर्त रख दी कि  तिरुमलई के जैन मंदिरों को देखने चलना होगा.  दुसरे दिन सुबह तडके हम उठ बैठे और तैय्यार  भी हो लिए. पांच बजे के पहले ही मुझे तैय्यार देख भाई को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह खुद देर से उठा  था. दाद देते हुए यह भी बताया कि घर पर मेहमान बन कर ठैरे एक दंपति भी साथ चलेगी.  खैर इसमें कोई परेशानी तो नहीं थी परन्तु परिणाम स्वरुप हम लोगों की रवानगी 6 बजे ही हो पाई.

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तिरुवन्नामलई के मंदिर आदि के दर्शन कर तीन बजे वापसी यात्रा प्रारंभ हुई इस बीच  तिरुमलई के जैन मंदिरों के बारे में रास्ते आदि की जानकारी स्थानीय लोगों से ले ली. पता चला कि वह रास्ते में ही पड़ेगा.  15/20  किलोमीटर चलने पर सड़क के बायीं तरफ एक रास्ता जा रहा था और एक पट्टिका पर दिगंबर जैन मंदिर ३ किलोमीटर दूर होने की सूचना थी. बडे धर्म संकट की स्थिति थी. आस पास कोई पहाड़ या टीला भी नहीं था. यह सोच कर कि देख आने में हर्ज क्या है, उस रास्ते बढ गए. एक गाँव आया नाम था “कापलूर” और जैन मंदिर भी दिखा जो आधुनिक था. दरवाजे पर तो ताला  पडा था लेकिन मालूम हुआ कि वहां 10 जैन परिवार हैं जो खेती किसानी करते हैं.

Kapalur Jain Temple

सतही तौर  पर देख कर आगे बढ गए. हमारे ड्राइवर ने अपने किसी मित्र से जानकारी मोबाइल पर प्राप्त करी और आगे बढ़ते चले गए.  आसमान पर बादल छा  गए थे.  “पोलूर” (जिसके पास मंदिर होने की सूचना थी) भी निकल गया और हमने जैन मंदिर दर्शन से वंचित हो जाने की कल्पना कर अपने आप को समझा भी लिया था.  ड्राइवर मुख्य मार्ग को छोड सकरे ग्रामीण मार्गों में चल रहा था और अचानक एक जगह “तिरुमलई”  के लिए दिशा निर्देश दिखे.  हम सब प्रसन्न हुए. लगता है हमलोग 40 किलोमीटर का सफ़र तय कर चुके थे.  देर आये दुरुस्त आये.

तमिल विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से भले एक हो परन्तु प्रारंभिक लेखन के लिए मौलिक रूप से ब्राह्मी लिपि का ही प्रयोग हुआ था जैसा कि अनेकों प्राचीन शिलालेखों से ज्ञात होता है. सुविधा के लिए यहाँ दृष्टिगोचर होने वाले उस प्राचीन लिपि को तमिल ब्राह्मी कहा गया है.  जैन धर्म का आगमन ईसापूर्व ही हो चुका  था और प्रतीत होता है कि जैन मुनियों के द्वारा  ही उत्तर पूर्व से अपने साथ अपनी  लिपि भी लाई गई. तमिलनाडु के प्राचीन समृद्ध साहित्य में जैन मुनियों का  योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है.  विश्व प्रसिद्द  “शिल्पधिकारम” के रचयिता “इलांगो अडिगल”  एक जैन भिक्षु थे.  शिल्पधिकारम प्रबुद्ध लोगों में जाना पहचाना नाम है इसलिए इस का नाम ले लिया. वैसे कई अन्य रचनाएं भी हैं

७ वीं/८ वीं सदी तक जैन धर्म को इस क्षेत्र में राजाश्रय प्राप्त हुआ और वे फलते फूलते रहे लेकिन बाद की घटनाओं जैसे शैव भक्ति आन्दोलन,  शंकराचार्य के प्रभाव आदि का जैन धर्म पर प्रतिकूल प्रभाव पडा और जैन धर्म के प्रति लोगों का मोह भंग होने लगा. इतिहास साक्षी है कि राजा के धार्मिक आसक्ति का प्रभाव प्रजा पर पड़ता ही है.  शनै शनै जैन धर्म दक्षिण में तो लुप्त प्रायः हो गया. उनकी धार्मिक विरासत अनेकों  गिरि  कंदराओं में दुबकी पडी है.

Local Jains at Thirumalai Math

लुंगीधारी स्थानीय जैनी – मठ के सामने 

Thirumalai temple Gopuram

Thirumalai Lower temple

Thirumalai - Side view of lower temple

Thirumalai - Mahaveer

उन्हीं में से एक है तिरुमलई  अतिशय क्षेत्र (अनुवाद = श्रीगिरि)   जिसके बहुत करीब पहुँच चुके थे. रास्ते में पहले एक जैन न्यास के द्वारा संचालित शाला  भवन दिखा और कुछ ही आगे बाएं अरहंतगिरि मंदिर और  “मठ” जो आधुनिक हैं . उसी रस्ते आगे गाँव है जिसकी  गलियों से गुजरते उस पवित्र पहाडी के तलहटी में पहुंचे. वहीँ दक्षिण भारतीय शैली में बना प्रवेश द्वार दिखा और अन्दर पहला मंदिर.  इस मंदिर के सामने एक मंडप है फिर गर्भगृह.  गर्भगृह तीन खण्डों में है. पहले कक्ष में कुछ भी नहीं है. गर्भगृह के बाहर के कक्ष के बायीं तरफ एक तीर्थंकर की काले पत्थर से बनी मूर्ति रखी थी और अन्दर संभवतः गौर वर्ण के महावीर  जी (वर्धमान)  विराजे थे. मूर्ति के पीछे की दीवार में भित्ति चित्र बने थे जिनका क्षरण   हो चला है.  मंदिर उजाड सा है और रख रखाव के आभाव में क्षति ग्रस्त हुआ जा रहा है.  इस मंदिर के  अलंकरण विहीन  मंडप  से ऐसा लगता है मानो  संन्यास ले रखा हो.  मंदिर का निर्माण विजयनगर काल का समझा जाता है.

Thirumalai upper temple

Upper_Temple_Complex_Wiki

Thirumalai Inscription of Kundavai

इस मंदिर के दाहिनी तरफ से ऊपर पत्थर को तराश कर बना मार्ग है जो ऊपर एक समतल भूमि पर ले जाता है . यहाँ एक और मंदिर है यह मंदिर नेमिनाथ  की होनी चाहिए क्योंकि राजा राजा चोल की बडी बहन “कुण्डवाइ”  के 10 वीं सदी के, यहीं जमीन में धंसे, एक शिलालेख में उसके द्वारा  एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है.  यही कारण है कि यहाँ के  मंदिर को स्थानीय लोग  कुण्डवाइ जीनालायम कहते हैं.  इस मंदिर का मण्डप कुछ बड़ा  सा है परन्तु शिखर गायब हो चुकी है. गर्भगृह बंद था और पुजारी के लिए बुलावा भेजा  गया परन्तु नहीं मिल सका. मंदिर के सामने कतार से एक मनस्थम्भ और फिर एक बलिपीठ बना है.  बलिपीठ अधिक पुराना जान पड़ता है. साधारणतया बलिपीठ यहाँ के हिन्दू मंदिरों में ही पाया जाता है.

Thirumalai cave temple

Thirumalai - Ambika?

IMG_4157 Kundavai Jeenalayam

IMG_4154 Bahubali (Gomateshwara)

दाहिनी तरफ भीमकाय  चट्टानें हैं  भूतल पर चट्टानों में ही कुछ छोटे कक्ष बने हैं जिनमें मूर्तियाँ रखी है. उनमें कुछ खाली भी पडे  हैं. पहाडी का ऊपरी चट्टान आगे की तरफ निकला हुआ है और बीच वाले हिस्से का प्रयोग करते हुए तीन स्तरों  पर निर्माण हुआ है. ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ी है. ऊपर बड़ा सकरीला  है और यहाँ भी मूर्तियाँ हैं. कुछ कक्षों में मैंने पाया कि एक डेढ़ फीट ऊंची पीठिका तो दिख रही है परन्तु कोई मूर्ति नहीं है. गुफा की दीवार पर मूर्ती के अंशों का होना पाया गया और जब हमने ए एस आई के कर्मी से पूछा  तो उसने बताया, साबजी मूर्ती  गल गई. यह जरूर है कि ऊपर की छत में पानी के कण दिखाई दे रहे थे. तो क्या मूर्ति पत्थर की नहीं बनी थी. इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मूर्तियों का, जो दिखने में सफ़ेद थीं, निर्माण स्टुको (गचकारी) तकनीक से किया गया रहा होगा.परन्तु उसके लिए बेस या आधार तो चाहिए होता है.

सबसे ऊपर छत और दीवारों पर बहुत ही खूबसूरत भित्ति चित्र बने हैं. नमी के कारण उनका भी क्षरण हो गया है. वैसे भित्ति चित्र नीचे के कक्षों में भी हैं परन्तु अन्दर घुसना और फोटो लेना बेहद कष्टदायक है.

Thirumalai Frescoes

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Thirumalai Fresco

हम लोग  अपनी  खोपड़ी बचाते हुए सकुशल नीचे आ गए हमें बताया गया कि पहाडी के शीर्ष तक जाने के लिए रेलिंग युक्त सीढ़ी कुछ दूरी पर बायीं ओर बनी है.  तीन चौथाई ऊपर एक छोटा सा मैदान जैसा है. यहीं पर नेमिनाथ (श्री कृष्ण के चचेरे भाई)  जी की 16 फीट ऊंची खडी मूर्ति एक शिखर युक्त कक्ष में रखी है. पूरी प्रतिमा का फोटो ले पाना कठिन है क्योंकि वह सलाखों के पीछे है.  यहाँ से और ऊपर जाएँ तो पार्श्वनाथ जी का एक छोटा मंदिर बना है. यहीं भावनगर के एक गुजराती परिवार से भेंट हो गई. पूछने पर उन्होंने बताया कि इस जगह का उल्लेख उनकी ग्रंथों  में है और वे यात्रा पर आये हैं. सबसे ऊपर की चट्टानों में तराशे गए तीन पद चिन्ह भी मिले जो उन जैन मुनियों के हैं जिन्होंने सल्लेखन द्वारा अपने प्राण त्यागे थे. वे  अभिलिखित हैं परन्तु वह लिपि पल्ले नहीं पडी.

IMG_4181                                                                                                                           आ रहे हैं भैय्या थोड़ा  सुस्ता तो  लेने दो 

Thirumalai Neminath

चट्टानों के पीछे है नेमिनाथ जी का शिखर युक्त कक्ष 

IMG_4186 (Gujrati family from Bhavnagar)

Thirumalai Foot prints of Monks

Overview

मंदिर का एक विहंगम दृश्य – पुरानी तस्वीर 

आधे घंटे वहां तेज ठंडी हवाओं का आनंद लेकर लौटना हुआ.  जैनियों के ऐसे प्राचीन  गुफा मंदिर सित्तनवासल, समनमलई आदि जगहों में भी हैं.

वरदराज पेरुमाल मन्दिर, काँचीपुरम

मई 3, 2013

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काँचीपुरम में एकाम्बरनाथ के शिव मन्दिर के बाद जो दूसरा सबसे बड़ा मन्दिर है वह् है विष्णु का जिसे वरदराज पेरुमाल कहते हैं.  एकाम्बरनाथ के मन्दिर के अन्दर ही एक और छोटा सा मन्दिर विष्णु के लिए बनाया गया था लेकिन यह तो नाइंसाफी थी इसलिए लाज़मी था कि विष्णु के लिए भी एक भव्य मन्दिर बने.  द्वैत और अद्वैत  का चक्कर कोई नया थोड़े ही है.  यह मन्दिर एकबारगी नहीं बनाया गया था वरन्‌ इसका विकास कई सदियों में हुआ है.  मूलतः यह मन्दिर चोल राजाओं द्वारा सन् 1053 में बनवाया गया था.  सन् 1316 से कुछ समय के लिए काँचीपुरम काकतीय वंश के प्रताप रुद्र देव (वारंगल) के आधीन भी रहा. तथाकथित 1000  खम्बे से युक्त मंडप (दोमंजिला) उनकी दैन है.  (इसी के भाई अन्नम देव ने बस्तर राजवंश की स्थापना की थी).  कुलोतुंगा चोला और विक्रम चोला के शासनकाल में मन्दिर का विस्तार हुआ.  14 वीं शताब्दी में एक दीवार और गोपुरम का निर्माण हुआ.  विजयनगर राजाओं का भी मन्दिर के विस्तार में बड़ा योगदान रहा है. परन्तु लोगों का मानना है कि इस मन्दिर को सर्वप्रथम पल्लव नरेश नंदिवर्मन (द्वितीय) ने बनवाया था. एक बात रोचक लगती है. एकाम्बरेश्वर (शिव) तथा वरदराज पेरूमल (विष्णु) मन्दिर दोनों ही 23 एकड़ की जगह घेरे हुए हैं. लगता है बँटवारा बराबरी का हुआ था. सन् 1532 (अच्युतराय, विजयनगर) का एक शिलालेख इन दोनों ही मंदिरों में पाया जाता है.  अच्युतराय ने दोनों मंदिरों को अतिरिक्त भूमि प्रदान करने का आदेश दिया था. वीर नरसिंह राय जिसके संरक्षण में काँचीपुरम को रखा गया था, ने एकाम्बरेश्वर (शिव) मन्दिर को अधिक भूमि प्रदान कर दी थी.  शिकायत मिलने पर अच्युतराय ने भूमि के बँटवारे को संतुलित किया था. यह मन्दिर भी वैष्णवों के 108 दिव्य स्थलों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.

(संदर्भवश वरदराजा पेरुमाल नामका एक प्रभावशाली व्यक्ति श्रीलंका के उत्तर पूर्वी राज्य का मुख्य मंत्री भी हुआ करता था. लिट्टे उसके जान की दुश्मन बन गयी थी अतः 1990 में भारतीय शान्ति सेना के वापसी के समय वह् भी  स्वनिर्वासित  हो सपरिवार भारत चला आया . भारत सरकार ने उसे सुरक्षा मुहय्या करायी थी तथा वह् चंदेरी (मध्य प्रदेश) के किले में रहने लगा था. यहाँ से उसे अजमेर ले जाया गया था जहाँ वह् लगभग एक दशक तक रहा.)

जैसे हम शिव के विभिन्न नामों के साथ “ईश्वर” (पातालेश्वर, महाकालेश्वर) का प्रयोग करते हैं लगभग वही “पेरुमाल” का भी आशय है परन्तु ऐसा प्रयोग दक्षिण में वैष्णव पंथ से जुड़ा है.  इसी प्रकार शैव, देवी माता के लिए “अम्मान” का प्रयोग करते हैं और वैष्णव “थायार” का.

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???????????????????????????????यह दूसरा गोपुरम है. सामने है ध्वज स्थम्भ और ऊँचा मंडप

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पश्चिम की तरफ़ से (मुख्य द्वार) मन्दिर के अन्दर जाने पर एक विशाल क्षेत्र में 100 खम्बे वाला मंडप है जिसमें एक से एक कलात्मक प्रतिमाओं की भरमार है. इसके छत के चारों कोने पर एक ही शिला को तराश कर बनायी गयीं जंजीरें लटकी हुई है. ऐसी ही जंजीरें कुछ छोटे परन्तु ऊँचे मंडपों में भी kanchiलगी हैं. यह भी अपने आपमें अद्भुत है. इस मंडप के पीछे एक तालाब है. विष्णु की मूल प्रतिमा गूलर की लकड़ी से बनी थी जो इस तालाब में दबाकर रखी गयी है.  40 वर्ष में एक बार उसे बाहर निकाला जाता है. मुख्य मन्दिर/गर्भगृह एक टीले पर बना है जिसे हस्तगिरि कहा जाता है.  गर्भ गृह के दो तल हैं.  भूतल  में नरसिंह हैं और ऊपर प्रथम तल में विष्णु की खड़ी प्रतिमा है. उनके चेहरे की मुस्कुराहट देख् भक्त गण अभिभूत हो उठते है. एक अलग खंड के छत पर दो छिपकलियाँ बनी हैं. एक रजत की और दूसरी स्वर्ण की.  लोग इन्हें छूते हैं और मान्यता है कि ऐसा करने पर उनके दुखों का निवारण होता है. इनके पीछे भी कई मिथक हैं.  नजदीक ही लक्ष्मी जी (जिन्हें “पेरुन देवी थायार” संबोधित किया जाता है) एक अलग प्रकोष्ठ में विराजमान हैं.  अँगरेजों के शासनकाल में मेजर जनरल लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव के द्वारा इस मन्दिर के लिए बहुमूल्य आभूषण भेंट किए गए थे जिनका प्रयोग विशेष अवसरों पर किया जाता है.

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हमने इस मन्दिर का अवलोकन पूर्व  में भी किया था तब बहुत भीड़ थी. इस बार भरी दुपहरी में जाना हुआ था यह सोच कर कि आराम से घूम फिर सकेंगे परन्तु मन्दिर के पट तो बंद थे इसलिए इधर उधर देख् दाख  कर संतुष्ट हो लिए. इस्कान के द्वारा अपने कुछ अनुयायियों को यहाँ लाया गया था. अधिकांश भारतीय वेश भूषा में विदेशी थे. एक मंडप में बैठकर उनके खाने का कार्यक्रम चल रहा था. उनसे बातचीत तो नहीं हो पायी परन्तु उनके चित्र ले लिए थे और लौट पड़े.

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शाम हमारे ड्राइवर की कुछ आवश्यकता के कारण उस मन्दिर की तरफ़ दुबारा जाना हुआ और देखा कि भगवान गाजे बाजे के साथ अपने सायंकालीन हवाखोरी के लिए निकले थे.  उनकी सवारी के पीछे पीछे मन्दिर के पंडितों का एक समूह मंत्रोच्चार करते हुए चल रहा था.  हमारा ड्राइवर डेनियल उनका रास्ता काटते हुए सड़क को पार कर रहा था  और मैंने देखा कि उनमें से एक दो पंडित बौरा गए थे लेकिन कोई हंगामा नहीं हुआ.