Archive for the ‘Tamilnadu’ Category

ग्राम देवता – अय्यनार

फ़रवरी 28, 2014

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वैदिक सभ्यता के भारत पहुँचने के काफी पहले से  ही अमूमन पूरे भारत में ग्राम देवी देवताओं/वन ेवताओं को स्थापित कर उनकी आराधना किये जाने की  परंपरा रही है. मान्यता है कि वे किसी भी विपत्ति में गाँव  वालों कि सुरक्षा करते है.  तामिलनाडु के गावों की सरहद पर पेड़ों की  झुरमुट के बीच ऐसे ही ग्राम देवता निवास करते हैं और उन्हें “अय्यनार” कहते हैं. उनके कई सहायक भी होते हैं. चारों  तरफ मिटटी से बने (टेराकोटा) बड़े बड़े घोड़े हाथी आदि बिखरे पड़े होते हैं. इन्हें देखने से ऐसा लगता है मानो ये उपेक्षित हैं. खँडहर जैसा लगता है. अलबत्ता कभी कभार कोई श्रद्धालु अगरबत्ती जला जाता है.  मुझे लगा था कि यह परंपरा अब मृतप्रायः हो चली है  परन्तु यह मेरी भूल थी.

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अभी कुछ महीनों पूर्व चेन्नई से केरल तक सड़क मार्ग से जाने का अवसर मिला था. रास्ते में सेलम के पास राजमार्ग से कुछ दूरी पर अय्यनार का डेरा दिखा और  जब तक हैम गाडी रोकने को कहते तब तक काफी आगे निकल चुके थे. हमने चालक महोदय से आग्रह किया कि अब जब भी कहीं अय्यनार दिखे तो गाडी रोक लेना. कुछ दूर जाने पे ही एकदम सड़क के किनारे ही  नई  नई  रंगाई की  हुई भीमकाय अय्यनार के दर्शन हुए. यहाँ कई आदमी और  औरतें पूजा पाठ में लगे थे. जैसे निर्देशित किया गया था, चालक ने गाडी रोक दी. केमरा हाथ में लिए हम  उतर पड़े और वहीँ खड़े खड़े  तस्वीरें लेने लगे. इतने में अय्यनार के पास खड़े एक सज्जन ने हम  सब को आमंत्रित किया.  पता चला कि यह नया नया बना है तब मेरा माथा ठनका. समझ में आ गया कि अय्यनार के आदिम परंपरता को पुनर्जीवित किया जा रहा है. अय्यनार के मंदिरों में साधारणतया कोई छत नहीं होता.  मूर्तियाँ आदमकद तो होती ही हैं. मध्य में अय्यनार तलवार लिए होता है जो कभी कभी सफेद घोड़े पर बैठा  होता है. अगल बगल उसके सहयोगी रहते है.  अय्यनार स्वयं शाकाहारी माना गया है जब कि उसके बाकी सहयोगी जिनकी एक बड़ी संख्या है, मांसाहारी होते हैं.  वर्ष में केवल जनवरी में पड़ने वाले उत्सव के समय ही बकरों, मुर्गियों आदि की बलि दी जाती है. शराब पीकर वहाँ जाना प्रतिबंधित है.  अय्यनार के पौरुष और पराक्रम से जुडी ढेर सारे  किस्से कहानियां हैं जो उत्सव के समय समूह गान के रूप में गाया जाता है.

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वहाँ हम सब को खीर और कुछ प्रसाद दिए गए. भरी दुपहरी थी, भूक भी लगी थी सो सब ने पूरे प्रसाद को बड़ी तन्मयता से खा लिया. मेरी माताजी ने भी खाया जब कि मैंने उन्हें बता दिया था कि यह अय्यनार का प्रसाद है जो गाँव के छोटे तबके (शूद्रों) के देवता हैं. माताजी कुछ हद तक     रूढ़िवादी हैं परन्तु जब भूक लगती है तो सब कुछ शिव/विष्णु का प्रसाद बन जाता है. सड़क के  किनारे होने से कम से कम वहाँ के निम्न वर्ग के गाड़ीवाले तो रूककर कुछ चढ़ावा भी दे जायेंगे। वहाँ दलित वर्ग अपने आपको “आदि द्रविड़” मानता है और अय्यनार के मंदिरों में अधिकतर पुजारी के रूप में गाँव का कोई  कुम्हार ही होता है. वहाँ हमें कोई प्रज्वलित दीप नहीं दिखा. पूजा पद्धतियां भी जनजातीय ही हैं.IMG_4274

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IMG_4277प्रसाद से निपट कर वहाँ केलोगों से विदा ली और आगे बढ़ गए  कोई २०/२५ किलोमीटर चलने पर एक और अय्यनार दिखा. यहाँ भी गाडी रोकी गई. यहाँ अय्यनार अकेले था परन्तु साथ देने के लिए दो घोड़े बने थे. बगल में एक कमरा बना था जो बंद था. उसी के सामने एक सूचना फलक था जो बता रहा था कि बकरे आदि कि बलि केवल जनवरी में ही होगी और दारु प्रतिबंधित है.  कुछ तस्वीरें खींच कर हैम लोग आगे बढ़ गए.

मुझे इस बात का खेद है कि अंदरूनी गाओं में जाकर खँडहर बन चुके पुराने अय्यनारों की  तस्वीर नहीं ले सका.

हुक्कुम का पेड़ – कच्छपेश्वर मंदिर चेन्नई

नवम्बर 23, 2013

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चेन्नई के आर्मीनियाई सड़क से गुजरते हुए एक मंदिर के सामने रुक गया. पता चला कि यह यहाँ का कच्छपेश्वर  मंदिर है.  वैसे मेरी जानकारी में कच्छपेश्वर का भव्य एवं विशाल मंदिर कांचीपुरम में है. समुद्र मंथन के समय जब मेरु पर्वत पानी में धंसता चला जा रहा था तो विष्णु ने कूर्म (कछुआ) रूप धारण कर नीचे से पर्वत को उठा लिया था और मंथन सुचारू रूप से चल पाया.   परन्तु  इस    प्रक्रिया में सागर का  जल  स्तर  बढ्ने  लगा.   कहते हैं विष्णु कुछ  अहंकारी हो गया था तब शिव ने उस कछुए का  मान मर्दन किया  और उसके खोल को अपने गले में लटका लिया था. कई जगह शिव लिंग पर कछुआ हार में लटका मिलता है और यही परंपरा आगे भी चली तथा लोग गले की माला में एक छोटे कछुए का पेंडेंट बना कर पहनने लगे. विष्णु को जब अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने शिव की अराधना की, वह भी कांचीपुरम में जाकर. इस लिए इस मंदिर का शिव कच्छपेश्वर कहलाया.

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चेन्नई के एक श्रेष्टि तलवै चेट्टियार नित्य ही शिव की आराधना के लिए कांचीपुरम जाया करते थे. एक बार भारी बारिश के कारण वे नहीं जा सके. उन्होंने ही लगभग सन 1720 में चेन्नई में ही कच्छपेश्वर  मंदिर का निर्माण करवाया था. मंदिर  वैसे विशाल तो नहीं है परन्तु चेन्नई जैसे शहर में उस मंदिर की एक अलग पहचान है.  इस मंदिर में शिव लिंग का आधार पांच खण्डों का है और सबसे नीचे कछुआ बना हुआ है. शिव लिंग के पीछे पांच सर वाले सदाशिव की मूर्ति है जो साधारणतया दिखाई नहीं देती. पुजारी से कह कर आरती करवाएं तो दिख जाती है. एक कक्ष में सभी तमिल शैव संतों (नायनार) की मूर्तियाँ करीने से रखी हुई हैं और उनका विवरण भी नीचे दिया हुआ है. IMG_4052

दर्शन कर बाहर आ गये. अहाते में ही और छोटे छोटे मंदिर विभिन्न देवी देवताओं के हैं परन्तु न मालूम क्यों मुझमें  उन सबको देखने की रुचि  नहीं थी. शायद  इसलिए कि वे सब बहुत ज्यादा पुराने नहीं थे.  परिक्रमा कर लेने की सोची और एक चक्कर लगा रहे थे तब मंदिर के वाह्य दीवार से लगे कुछ पेड़ों ने आकर्षित किया. एक पेड़ के तने में ही छोटे कटहल के आकार के दो फल लगे थे. एक दो तो डगाल पर भी थे. साथ में भांजी थी जो आकाशवाणी में अनुवादक है.  उसने उस फल का तामिल नाम बताया “तिरु वोट्टू काई” मैंने कहा अब हिंदी में अनुवाद करो.  खीसें निपोरते रह गई.  हाँ इतना जरूर बताया कि इस फल के सूखने पर दो भागों में बाँट कर भिक्षा पात्र बनाया जाता है.Calabash tree

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घर वापसी के बाद उस फल के बारे में अधिक जनकारी प्राप्त करने की कोशिश की.  इसे अंग्रेजी में Calabash Tree (Crescentia Cujete) के नाम से जाना जाता है तथा मूलतः मध्य अमरीका का है. अब तो यह हर उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में पाया जाता है. एक जगह तो लिखा मिला कि इसका गूदा कुछ कुछ जहरीला भी है. शायद इसलिए कि उसमें हाइड्रो सायानिक अम्ल होता है. परन्तु इसमें कई औषधीय गुण भी हैं. इसके गूदे से सिरप बनती है जो विभिन्न स्वांस रोगों यथा अस्थमा, खांसी आदि में कारगर मानी गई है. इसके अतिरिक्त पेट दर्द में भी फायदेमंद है. इसके पत्तियों का रस रक्त चाप को कम करता है.

इसके सूखे खोल से भिक्षा पात्र के अतिरिक्त अलंकरण हेतु  विभिन्न प्रकार की कलात्मक वस्तुएं बनती हैं. घरों में फल आदि  रखने के लिए भी उस पात्र का प्रयोग होता है. मुखौटे भी बनाये जाते हैं. वाद्य यंत्र भी बनाये जाते हैं. ऐसी  मान्यता है कि उससे बने पात्र में रखी खाद्य सामग्री ख़राब नहीं होती.