महान आत्माएं या जितने भी महान लोग धरती पर अवतरित हुए है, वे धर्म, जाति आदि, मानव द्वारा बनाये गए बंधनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं. कोई ठोस प्रमाण तो नहीं हैं परन्तु भाषाई आधार पर एक महान कवि तिरुवल्लुवर, के काल का अनुमान ईसापूर्व ३० से २०० वर्षों के बीच माना जाता है. उनकी रचना “तिरुकुरल” के नाम से जानी जाती है. यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो नैतिकता का पाठ पढाता है. किसी धर्म विशेष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. गीता के बाद विश्व के सभी प्रमुख भाषाओँ में सबसे अधिक अनूदित ग्रन्थ है. तिरुकुरल तीन खण्डों में बंटा है. “अरम” (आचरण/सदाचार), “परुल” (संसारिकता/संवृद्धि) तथा “इन्बम”(प्रेम/आनंद). कुल १३३ अध्याय हैं और हर अध्याय में १० दोहे हैं. संयोग की बात है कि वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार में ही हुआ था. मान्यता है कि वे चेन्नई के मयिलापुर से थे परन्तु उनका अधिकाँश जीवन मदुरै में बीता क्योंकि वहां पांड्य राजाओं के द्वारा तामिल साहित्य को पोषित किया जाता रहा है और उनके दरबार में सभी जाने माने विद्वानों को प्राश्रय दिया जाता था. वहीँ के दरबार में तिरुकुरल को एक महान ग्रन्थ के रूप में मान्यता मिली.
प्रस्तुत हैं इसीके दो छंद.
” जैसे पानी जिस मिटटी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है , इसी प्रकार व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है.” ” यहाँ तक कि उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखता है वह भी पवित्र संग से और मजबूत होता है.”
शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन सभी तिरुवल्लुवर को अपना मतावलंबी मानते हैं, जबकि उनकी रचनाओं से ऐसा कोई आभास नहीं मिलता. यह अवश्य है कि वे उस परम पिता में विश्वास रखते थे. उनका विचार था कि मनुष्य गृहस्थ रहते हुए भी परमेश्वर में आस्था के साथ एक पवित्र जीवन व्यतीत कर सकता है. सन्यास उन्हें निरर्थक लगा था.
तिरुकुरल के १३३ अध्यायों को ध्यान में रखते हुए कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक के पास के एक छोटे चट्टानी द्वीप पर इस महान कवि की १३३ फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गयी है. यह आजकल वहां का प्रमुख आकर्षण बन गया है. प्रतिमा की वास्तविक ऊँचाई तो केवल ९५ फीट है परन्तु वह एक ३८ फीट ऊंचे मंच पर खड़ा है. यह आधार उनके कृति तिरुकुरल के प्रथम खंड सदाचार का बोधक है. यही आधार मनुष्य के लिए संवृद्धि तथा आनंद प्राप्त करने के लिए आवश्यक है. १९७९ में इस स्मारक के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई द्वारा आधारशिला रखी गयी थी परन्तु कार्य प्रारंभ न हो सका. सन २००० में जाकर यह स्मारक जनता के लिए खोला गया था.
कहा जाता है कि इस प्रतिमा के कमर में जो झुकाव (नटराज जैसा) दर्शाया गया है, उसके लिए मूर्तिकार को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी. प्रतिमा की भव्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल चेहरा ही १९ फीट ऊंचा है. इस प्रतिमा के निर्माण से सम्बंधित अधिक जानकारी यहाँ उपलब्ध है.