चेन्नई से माताराम को साथ ले सड़क मार्ग से केरल में त्रिश्शूर के पास अपने गाँव सकुशल पहुँच गए थे. वहां पाया कि बारिश ने हलाकान मचा रखा है. अपनी भांजी के लेपटोप को लिए घर के बरामदे में बैठ मूसलादार बारिश को करीब से महसूस करने का यह पहला अवसर था, बल्कि कोई दूसरा चारा भी नहीं था. पिछले तीन सप्ताह से सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए हैं परन्तु आज सुबह से आसमान में काली घटाओं की आवाजाही कुछ सुस्त हो चली है. इससे आशान्वित हो कोच्ची में रह रहे छोटे भाई संपत को तत्काल अपनी कार लेकर गाँव वाले घर पहुँचने का आदेश दे दिया साथ ही यह भी कह दिया कि पेट्रोल की भरपाई कर दी जाएगी . यह तो कहने की ही बात थी. स्वार्थ उसका भी था क्योंकि उसे अपने मलेशिया, केबोडिया, बाली आदि के भ्रमण की कहानी भी तो सुनानी थी. कोच्ची से उत्तर की ओर हमारे गाँव के घर की दूरी महज 65 किलोमीटर है और 6 पंक्तियों की मखमली सडक से जुडी भी है. इसलिए आश्चर्य नहीं हुआ जब संपत 11 बजे घर पर हाज़िर हो गया. आते ही अपनी जेब से 3/4 कम्पूटर खोंचिनी (पेन ड्राइव) निकाल कर हमें पकड़ा दिया और माताजी से मिलने उनके कमरे में चला गया. अपनी औपचारिकताएं निभाकर भाई मेरे पास आ बैठा. गपशप में समय बीतता गया. दुपहर खाने के बाद कुछ विश्राम किया गया. लगभग साढ़े तीन बजे यह देख कि आसमान कुछ साफ़ सा है हम लोग शहर की तरफ निकल पड़े.
मुख्य द्वार : अंदर की तरफ से
त्रिश्शूर (प्राचीन नाम तिरु शिव पेरुर) एक खूबसूरत प्राचीन शहर और केरल की सांस्कृतिक राजधानि है. भूतपूर्व कोचिन रियासत के महाराजा राम वर्मा (९ वां) (शक्तन तम्बुरान) (1790 – 1805) के समय त्रिश्शूर ही रियासत की राजधानि भी रही. नगर के मध्य में ही 9 एकड में फैला ऊंचे परकोटे वाला एक विशाल शिव मंदिर है जिसे वडकुनाथन कहते हैं. वडकुनाथन से तात्पर्य “उत्तर के नाथ” से है जो केदारनाथ ही हो सकता है. ऐसा कहने के लिए इसलिए प्रेरित हुआ क्योंकि प्राचीन साहित्य में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस मन्दिर में आदि शंकराचार्य के माता पिता ने संतान प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किये थे. एक और सबंध भी है. यहाँ आदि शंकराचार्य की तथाकथित समाधि भी बनी है और उसके साथ एक छोटा सा मंदिर जिसमे उनकी मूर्ति भी स्थापित है. उल्लेखनीय है कि आदि शंकराचार्य की एक समाधि केदारनाथ मंदिर के पीछे भी है. वडकुनाथन के इस मंदिर के चारों तरफ 60 एकड में फैला घना सागौन का जंगल था जिसे शक्तन तम्बुरान ने कटवा कर लगभग ३ किलोमीटर गोल सडक का निर्माण करवाया था. यही आज का स्वराज राउंड है. किसी विलिचपाड (बैगा) के यह कह कर प्रतिरोध किये जाने पर कि ये जंगल तो शिव जी की जटाएं हैं, उस राजा ने अपने ही हाथ से उस बैगे का सर काट दिया था. इसी मंदिर के बाहर अप्रेल/मई में पूरम नामका उत्सव होता है जिसे देखने विदेशियों सहित लाखों लोग आते हैं.
मंदिर के चारों दिशाओं से प्रवेश द्वार बने हैं परन्तु विशेष अवसरों पर ही खुलते हैं. जब हम लोग मंदिर के मुख्य द्वार (पश्चिमी) पर पहुंचे तो पता चला कि दरवाज़ा ५ बजे ही खुलेगा. मलयालम माह “कर्कडगम” की पहली तारीख के उपलक्ष में संध्या पारंपरिक “मेलम” का आयोजन था. दुपहर हाथियों के लिए एक बडी दावत थी जिसे तो हम चूक ही गए थे. अब हमारे पास पूरे एक घंटे का समय था इसलिए बाहर के मैदान में ही मटरगस्ती करते रहे. पेड़ों के नीचे इधर उधर कुछ हाथी आराम कर रहे थे और उन्हें देखने के लिए लोग भी जुटे थे. मेरी समझ में नहीं आया कि हाथी यहाँ केरल में अजूबा कैसे हो गया. कुछ देर में बात समझ में आई. दर असल ट्रकों पे लदकर उनकी वापसी हो रही थी. ट्रकों पर उनका चढ़ाया जाना विस्मयकारी तो था ही. जब हम यह सब कुछ देख ही रहे थे, अचानक भारी बारिश का एक झोंका आया और हम भागे एक पेड के तले, पनाह लेने.
पंद्रह मिनटों में बारिश जाती रही और हम लोग मंदिर के अहाते में प्रवेश कर गए. सामने ही विशाल कूतम्बलम (नाट्यशाला) थी जिसके चबूतरे में काफ़ी लोग बैठे थे इस इंतज़ार में कि सामने के पंडाल में कब मेलम वाद्यवृन्द का कार्यक्रम प्रारंभ हो. हम लोग अपनी शर्ट और बनियान उतार कर देव दर्शन के लिए बढ गए. इस अन्दिर में पेंट पहनने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है. कोई ख़ास भीड़ भाड नहीं थी सो दर्शन लाभ प्राप्त हुआ. बगल में खडी एक बुजुर्ग महिला ने ध्यान से देखने की हिदायत दी. यहाँ शिव लिंग पर घी से प्रातः अभिषेक होता है. कालांतर में जमते जमते शिव लिंग की ऊँचाई लगभग 16 फीट हो चली है. खूबी यह कि घी जमी ही रह्ती है. समय समय पर कुछ नीचे गिर भी आती हैं जिन्हें प्रसाद स्वरुप वितरित किया जाता है. कहा जाता है कि उस घी में औषधीय गुण हैं इसलिए उसकी बिक्री भी होती है. शिव जी का गर्भ गृह वाह्य रूप से तो वृत्ताकार है परन्तु अन्दर आयताकार कक्ष में ही वे विराजते हैं. ठीक पीछे पार्वती जी विराजमान हैं. शिव मंदिरों में साधारणतया दरवाजे के बाहर नंदी बैठे हुए पाए जाते हैं परन्तु यहाँ तो ढूँढना पडा. परिसर के अन्दर बरामदे में एक सफ़ेद पेंट किया हुआ नंदी है जरूर परन्तु वह तिरछा बैठा है और लगता है उसे शिव से विरक्ति हो गई है और अब श्री राम के प्रति आसक्त हुआ जा रहा है. इस मुख्य मंदिर के बगल में शंकरनारायण (हरिहर) का गजप्रिष्ठ (अंग्रेजी अक्षर का उल्टा यू) वाला एक अन्दिर है और उसके सामने ही गणेशजी का भी कक्ष है. एक तीसरा मंदिर भी है जो लगभग चौकोर ही है, जहाँ श्री राम प्रतिष्ठित हैं. इस तरह यहाँ आपको तीन प्रकार के मंदिर एक ही जगह मिलते हैं. इस मंदिर समूह की वाह्य दीवारों पर नयनाभिराम भित्तिचित्र बने हैं और इनमें से दो “वासुकी शयनम” तथा “नृत्य नाथ” की नित्य पूजा भी होती है. गणेश जी के कक्ष के सामने कुछ कुछ काबा जैसा रहस्यमई निर्माण है जो मेरे लिए कौतूहल का विषय है. इसके बारे में कोई जानकारी हासिल नहीं हो पायी. ऐसा ही निर्माण जिले के पेरुवनम नामके मंदिर में भी मिलता है. लोगों का कहना है कि वह भण्डार गृह है. लेकिन यह बात जच नहीं रही है क्योंकि उसमें कोई दरवाज़ा नहीं बना है. हम तो केवल अटकलें ही लगा सकते हैं.
दर्शनोपरान्त एक परिक्रमा कर लेने की परंपरा है और हमें तो करना ही था. मंदिर के बाहर का परकोटा काफ़ी विशाल है. कूतम्बलम (नाट्यशाला) के बगल से होते हुए पूरा एक चक्कर लगाया गया. कचनारों के पेड कतार से लगे थे और उसके आगे ही कुछ दिखा जिसे हमने फांसी देने की पुरानी व्यवस्था के रूप में पहचाना. समझ में यह नहीं आया कि मंदिर के पास फांसी का तख्ता क्यों है. बाद में पता चला कि मंदिर परिसर पहले छोटा था जिसका विस्तार बाद में हुआ है. नाट्यशाला के पास ही श्री कृष्ण (गौशाला कृष्ण) का मंदिर है मंदिर के पीछे कुछ निर्माण सामग्री (बल्लियाँ आदि) पडी थीं. फिर एक अय्यप्पा का मंदिर दिखा. उसके आगे एक टंकी जैसा निर्माण था जिसे आदि शंकराचार्य की समाधि स्थली बतायी गई थी. उससे लगा हुआ एक अन्दिर भी था जिसमें आदि शंकराचार्य की मूर्ति स्थापित थी. इन सब को देख लेने के बाद हमने नाट्यशाला में प्रवेश किया. अन्दर दुर्गा जी के लिए कोई अनुष्ठान था जहाँ तांत्रिक विधि से पूजा हो रही थी. यह नाट्यशाला कुछ विशिष्ट है. बीच में मंच बना है और खम्बों पर बहुत ही सुन्दर नक्काशी की गई है. ऊपर का छत तांबे के पत्तरों से छाया गया है. जब बाहर निकल ही रहे थे, एक सज्जन ने हिदायत दी कि पेंट पहनकर अन्दर आना मना है. हमने पलट कर कहा “बाहर तो जा सकते हैं”. बड़ा अजीब लगा. मंदिर के अन्दर पेंट पहना जा सकता है लेकिन नाट्यशाला में वर्जित है.
सामने ही पंडाल के अन्दर मेलम वाद्य वृन्द का कार्यक्रम प्रारंभ हो चला था जिसका रसास्वादन कर संध्या लौटना हुआ.
जैन समुदाय का दावा रहा है कि जिस टीले पर वडकुनाथन का मंदिर खड़ा है वहाँ पूर्व में वृषभ देव का मंदिर था हालाकि वर्तमान में वहाँ किसी भी प्रकार का प्रमाण उपलब्ध नहीं है .सम्भव है कि जमीन में दबी पड़ी हों.
जनवरी 24, 2014 को 9:20 पूर्वाह्न
अपनी संस्कृति और विरासत पर गर्व करने के लिए ठोस हकीकत.
जनवरी 24, 2014 को 12:12 अपराह्न
वाह, जितना ज्ञान अपनी परम्पराओं की व्यापकता का होता है, मन गर्व से फूल जाता है
जनवरी 24, 2014 को 6:28 अपराह्न
सुब्रमनियन सर! त्रिशूर में यह जगह मुझसे छूट गई लगती है या फिर हमारे मार्गदर्शक ने हमें बताया नहीं. गुरुवायूर और कोडुंगल्लूर के मन्दिरों में हमने शीश झुकाया.
यह परिचय मेरे लिये सचमुच वहाँ उपस्थित होने जैसा है!! आपका आभार!
जनवरी 24, 2014 को 10:29 अपराह्न
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन राष्ट्रीय बालिका दिवस और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
जनवरी 24, 2014 को 10:30 अपराह्न
सुन्दर वर्णनम्। मैं भी कोचीन पहुंचने का कार्यक्रम बना रहा हूँ -हो सकता है त्रिशूर का भी बन जाय!
जनवरी 25, 2014 को 9:18 पूर्वाह्न
Been here once. I loved he huge temple with so many sub shrines and one has to follow a method of circumambulation. This temple has no festival though all other temples converge here for the pooram.
जनवरी 25, 2014 को 8:26 अपराह्न
आपके वृत्तांत को पढ़कर त्रिश्शूर के प्राचीन शिवमंदिर के भ्रमण जैसा आनंद ही आया। लेकिन एक शिकायत रह गयी। दोनो भाई अपने गांव हो आए, हमें वहां का एक फोटो भी नहीं दिखाया 🙂
जनवरी 25, 2014 को 9:29 अपराह्न
जीवंत चित्रों संग सुक्ष्म वर्णन सुन्दर जानकारी के लिये सादर नमन
जनवरी 26, 2014 को 1:57 अपराह्न
आपके माध्यम से संस्कृति को जानना बहुत अच्छा लगता है।
जनवरी 26, 2014 को 2:07 अपराह्न
Most educative