यहाँ केरल में फसल की कटाई फ़रवरी में हो जाती है और शुरू होता है ग्राम्यांचलों में उत्सवों का दौर. साधारणतया यहाँ के मंदिरों के उत्सवों के लिए ‘बिन हाथी सब सून’ वाली बात सटीक रहेगी परन्तु अपवाद स्वरुप चार छै मंदिर ऐसे भी हैं जहां हाथी के बदले काठ के घोड़े मोर्चा सम्भालते हैं. मैंने “मंदिर” शब्द का प्रयोग किया जो थोडा सा भ्रामक है. मंदिर के लिए मलयालम में समानार्थी शब्द “अम्बलम” है. जहाँ समाज के तथाकथित सभ्य लोगों के देवी देवता का निवास होता है. जबकि सभ्यता से दूर आदिम परम्पराओं से जुड़े ग्रामवासी सांधारणतया शक्ति स्वरूपिणी माँ काली (भद्रकालि) सहित प्रकृति, प्राकृतिक शक्तियों, सर्पों, पूर्वजों की आराधना करते हैं और ऐसे आराध्य स्थलों को “कावु” कहते हैं जो खुली जगहों में पेड़ों के नीचे स्थापित हुआ करते थे परन्तु फिर कई जगहों में उनके लिए खपरैल वाला आश्रय स्थल निर्मित हुआ, बहरहाल यहाँ के देव स्थल दोनों प्रकार के मिलते हैं. कुछ कावु का स्थापत्य तो मंदिरों को भी मात दे रहा है. बहुतेरे कावु तो अब समाज के अभिजात्य वर्गके आधीन चले गए हैं.
पिछले18 फ़रवरी की सुबह कोच्ची से मेरा छोटा भाई अपनी गाडी ले यहाँ घर आ पहुंचा. उसने यहाँ से लगभग 30 किलोमीटर उत्तर पूर्व के ग्रामीण आँचल में आयोजित तिरुवानिकावु उत्सव की तारीफ़ करते हुए चले चलने का प्रस्ताव रखा. वैसे हम तो तैयार ही बैठे थे क्योंकि उसके आने की सूचना तो पहले से थी और यह भी मालूम था कि कहीं बाहर जाना है. अतः सुबह ही नाश्ता कर निकल पड़े. वडकांचेरी नामक शहर से मुख्य मार्ग से कटना पड़ा और घुमावदार रास्तों से पूछते पूछते अपने गंतव्य तक पहुँच गए. उस जगह का नाम था माच्चाड और आयोजन का नाम था माच्चाड मामांकम (उत्सव).
सड़क से लगा हुआ ही वह देव स्थल था जिसके सामने सुन्दर पेगोडा जैसा बांस का बना प्रवेश द्वार निर्मित किया गया था. हम लोगों ने मंदिर (खेद है यही सम्बोधन सर पर सवार है) की एक परिक्रमा की. एक तरफ उत्सव समिति का कार्यालय था जहाँ हम लोगों ने कार्यक्रम आदि की जानकारी प्राप्त की. हमें अतिथि मानते हुए उन लोगों ने मुफ्त में ही दुपहर के भोजन की कूपन पकड़ा दी. बाहर खाने कि अच्छी व्यवस्था थी. खाने के साथ खीर (भर पेट) भी उपलब्ध थी. भोजन ग्रहण कर हम फिर मंदिर प्रांगण में आ पहुंचे.
दुबारा जब परिक्रमा करने लगे तो दो व्यक्ति लकड़ी के टुकड़ों को बजाते हुए कुछ गा रहे थे. एक व्यक्ति नीचे बैठा हुआ था जिसके सामने एक लकड़ी का बुत रखा था. दूसरा खड़े खड़े ही लकड़ी का बत्ता बजा रहा था. ये “पानन” जाति के होते हैं जो पहले कभी ताड़ के पत्तों से छतरी बनाया करते थे (कुछ कुछ बसोड़ जैसा). पुराने जमाने में इन्हें जादू टोने में माहिर समझा जाता था.
कुछ देर उन्हें देख कर हम लोग आगे बढ़ गये. एक विशालकाय पीपल के चबूतरे के आस पास अच्छी भीड़ लगी थी. कावु का द्वार पश्चिम की तरफ था जिधर खेत थे और हम लोगों को बताया गया कि आस पड़ोस के दूसरे क़ावुओं से देविओं के घोड़े गाजे बाजे के साथ आयेंगे. खेतों का विस्तार दूर दूर तक था. हम लोग उसी दिशा की तरफ बढ़ते चले गए. जब लगा कि हम गाँव की सरहद तक पहुँच गए हैं तो वहीँ रुक भी गए. एक पीपल के नीचे किसी ग्राम देवता के लिए अनुष्ठान हो रहा था और वहीँ पास कुछ बालक/बालिकाओं के द्वारा कुछ करतब दिखाए जा रहे थे. कुछ ही देर में एक काठ के घोड़े को लादे और हल्ला करते लोग आते दिखे.
एक इसरायली पर्यटक (इनका एक समूह था)
घोड़े को लादे लोग हम लोगों के सामने ही आकर रुक गए. भीड़ भी जुटने लगी थी. फिर घोड़े को पलट के खड़ा कर दिया गया मानो अपने दूसरे साथियों की बाट जोह रहा हो. 15/20 मिनटों में एक दूसरा घोडा आ पहुंचा. अब दोनों घोड़े आमने सामने खड़े कर दिए गए थे. शायद आपस में कुछ गुफ़तगू हुई हो. धीरे धीरे अलग अलग दिशाओं से और भी घोड़े आ पहुंचे. जब सब इकट्ठे हो गए तो काफिला मंदिर की तरफ उछल कूद करते हुए चल पड़ा. अंततः सभी घोड़े (5 बड़े और 5 छोटे) मंदिर की चहार दीवारी के बाहर कतारबद्ध हो खड़े हो गए. फिर सिलसिला छोटे छोटे समूहों का था जो गाजे बाजे के साथ सर पर कलश लिए आता रहा और सीधे मंदिर के अंदर जाता. इनमे ऐसे भी लोग थे जिन्होंने अपने दोनों गालों के आर पार त्रिशूल घुसेड़ रखे थे. यह परंपरा मूलतः तामिलनाडु की है और मुरुगन (कार्तिकेय) के भक्तों द्वारा किया जाता है. इधर घोड़ों को व्यस्त रखने के लिए “मेलम ” नामक वाद्य प्रारम्भ हुआ जो 2/3 घंटे का होता है.
हम लोगों के लिए वहाँ 2/3 घंटे बने रहना कष्टदायक लगा फिर रात होने के पहले घर भी तो लौटना था इसलिए वापस लौटने की सोची. शाम 4 बज रहे थे और घोड़ों के अंदर प्रवेश के पूर्व एक प्रतियोगिता होनी थी. मंदिर प्रांगण के प्रवेश स्थल पर एक 20/25 फीट ऊंचा आयताकार मचान बना था. ऊपर सम्भवतः बांस की कमचिओं से मंच जैसा बना था जिसमें कोई ख़ास दम नहीं था. दर्शकोंने तो कह दिया कि घोडा उसके ऊपर से कूदकर अंदर जाएगा। उस ऊँचाई को देखते हुए यह तो असम्भव जान पड़ा. वास्तव में सभी घोड़े उसके नीचे से गुजरते हैं. प्रत्येक घोड़े को ऊपर उछाल कर घोड़े के सर से टाट को टकराया जाना होता है. जो घोडा इसमें सफल रहता है वह विजयी घोषित किया जाता है. यहाँ यह बताना उपयुक्त होगा कि ये घोड़े वास्तव में बांस की कमचियों, घांस फूंस से बने होते हैं और न कि सम्पूर्ण काठ के.
आगे आने वाले कार्यक्रमों में एक “विलिचप्पाड” को कंधे में लाद कर लाया जाना था. विलिचप्पाड वह व्यक्ति होता है जिस पर देवी आती है यह देवी और भक्तों के बीच संदेशवाहक का काम करता है. जब उस पर देवी आती है तो वह थर थर कांपता है उछल कूद भी मचाता है. भक्तों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर भी देता है. उसे कंधे पर लाद कर लाये जाने की परंपरा केवल यहीं है. किसी जमाने में विलिचप्पाड सर्प दंश से पीड़ित हुआ था और तब ऐसा करना पड़ा था. शायद उसी की याद में यह प्रथा अब भी जारी है.
संध्या 7 बजे आतिशबाजी का आयोजन था और उसके बाद कठपुतलिओं के माध्यम से रामायण का प्रदर्शन. यह कार्यक्रम लगातार 41 दिनों तक चलेगा.
इस आधुनिक युग में पर्याप्त मनोरंजन के साधनों के होते हुए भी ऐसे पारम्परिक आयोजनो में लोगों की रूचि सराहनीय है.