भारत का पश्चिमी हिस्सा जिसे कोंकण भी कहते हैं अपने खूबसूरत समुद्री तट (“बीचों”) के अतिरिक्त ढ़ेर सारे किलों/दुर्गों के लिए भी जाना जाता है. समुद्र के अन्दर बने जलदुर्गों में “मुरुद जंजीरा” अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है. “मुरुद” समुद्र के तट से लगे कस्बे का नाम है जब कि “जंजीरा” समुद्र के अन्दर टापू पर बने किले को कहा जाता है. जंजीरा अरबी के الجزيرة “अल जज़ीरा” का अपभ्रंश है जिसका तात्पर्य “द्वीप” है. यही एक दुर्ग है जो अब तक अजेय रहा है. अरब सागर में एक 22 एकड़ का छोटा अण्डाकार टापू है जिस पर यह किला बना है. मूलतः 15 वीं सदी के उत्तरार्ध में मुरुद के एक स्थानीय मछुवारों के सरदार राम पाटिल ने काष्ट से वहां किलेबंदी की थी. अहमदनगर निजामशाही से सम्बद्ध पीरम खान ने उस टापू पर कब्ज़ा कर लिया. पीरम खान के उत्तराधिकारी बुरहान खान ने काष्ट दुर्ग को नष्ट कर 1567 – 1571 के दरमियान एक अभेद्य वृहद् किले का निर्माण करवाया. किसी एक “सिद्दी” अम्बरसतक को वहां का किलेदार बनाया गया था. ऐसा भी पढने को मिलता है कि एबीसीनिया (इथोपिया) के समुद्री लुटेरों ने, जिन्हें “सिद्दी” भी कहा गया है, वहां बने काष्ट किले पर हमला कर हथिया लिया था. इस बात का भी उल्लेख है कि अहमदनगर सल्तनत में कई सिद्दी सेवारत रहे हैं जो मूलतः गुलाम थे. उल्लेखनीय है कि पुर्तगालियों के व्यवसाय में पूर्वी अफ्रीका से पकड़ कर लाये गए हब्शियों (अल हबश, al-Ḥabašah الحبشة ) के विक्रय की रही है। बहुधा इन सिद्दियों को सेना में अथवा पहरेदारी के लिए रख लिया जाता था.
बीजापुर के सुलतान एवं मुग़ल सल्तनत के आधीन मुरुद जंजीरा के सिद्दियों की अपनी स्वतंत्र सत्ता थी. यहाँ के राजवंश का प्रारंभ 1605 में सिद्दी सुरूर खान से होता है. शासक प्रारंभ में “वज़ीर” कहलाये और 1885 के लगभग “नवाब” कहलाने लगे. पूरे पश्चिमी समुद्र तट पर उन लोगों ने आतंक मचा रखा था. पुर्तगालियों, अंग्रेजों और मराठों के द्वारा जंजीरा के किले पर कब्ज़ा करने के कई प्रयास हुए परन्तु वे सब विफल रहे. शिवाजी ने तो 13 बार उस किले पर धावा किया था लेकिन कुछ हाथ नहीं आया. शिवाजी के पुत्र ने भी एक कोशिश की थी जिसके लिए समुद्र तट से पानी के नीचे किले तक सुरंग खोदी गयी परन्तु नाकामी ही हाथ लगी. कालान्तर में अंग्रेजों ने मुरुद जंजीरा को, अपने सिक्के जारी करने के अधिकार सहित, देसी रियासत का दर्जा दे दिया. सिद्दियों की सत्ता भारत के आजादी तक जंजीरा पर बनी रही. गुजरात से लेकर कर्णाटक तक उनके अपने गाँव हैं और अनुमान है कि उनकी कुल आबादी 50,000 से अधिक है. अब वे वर्ण शंकर भी हो चले हैं. उनमें हिन्दू भी है, मुसलमान भी हैं और ईसाई भी परन्तु रोटी बेटी के लिए ये सभी दीवारें उनके लिए बेमानी हैं. अमरीकी राष्ट्रपति बरक ओबामा को कर्णाटक के सिद्दी अपना वंशज मानते हैं.
बहुत हो गया इतिहास अब किले की तरफ रुख करते हैं. अलीबाग (कोलाबा) के किले जैसे जंजीरा के लिए समुद्र में पैदल या घोडा गाडी से नहीं जाया जा सकता. राजपुरी नामका एक घाट है जहाँ से पतवार वाली नौकाएं चलती हैं और प्रति व्यक्ति जाने आने का 30 रुपये लेते हैं. नाव वाला आपको इतिहास भी बताता चलता है. किला राजपुरी की तरफ मुँह किये हुए है, अर्थात तट का सामना करते हुए, परन्तु यह दूर से नहीं दीखता ठीक किले के पीछे की ओर (अरब सागर की तरफ) एक छोटा चोर दरवाज़ा भी है जो संकट के समय बच निकलने के लिए बनाया गया है. चहार दीवारी लगभग 40 फीट ऊंची ग्रेनाईट पत्थरों से बनी हैं. कोल्हापुर के पास पन्हाला किले जैसा ही यहाँ भी चुनाई के लिए शीशे (lead) का प्रयोग कहीं कहीं दिखायी देता है.
मुख्य दरवाजे के अन्दर घुसते ही सामने की दीवार पर एक शेर बना है जो हाथियों के पीठ पर अपने पंजे रखे है. एक हाथी को अपने पूँछ में जकड़े है और एक हाथी की पूँछ को मुह में लिए है. काफ़ी प्रयास किया यह जानने का कि यह किस बात का प्रतीक है. निश्चित ही इसका सम्बन्ध सीधे सिद्दियों से नहीं है क्योंकि महाराष्ट्र के कुछ अन्य किलों में भी इसी चिन्ह के होने की बात कही गयी है. इस किले के कुछ अन्य भागों में शेर और हाथियों को खेलते कूदते दिखाया गया है. सुरक्षा के लिए गोलाई लिए हुवे 22 बुर्ज बने हैं जिनपर तोप रखे हुए हैं . इस किले में सैकड़ों की तादाद में तोप हुआ करते थे परन्तु अब कुछ ही बचे हैं. इनमें विदेशी भी हैं और जंग खा रहे हैं.
अन्दर 22 एकड के भूभाग में राजमहल, अफसरों आदि के रिहायिशी मकानात, मकबरे, मस्ज़िद आदि के खँडहर फैले पडे हैं. कुछ भवन तो ठीक ठाक लगते हैं. पीने के पानी के लिए दो बडे तालाब भी हैं. यह सब उस किले की वैभव के मात्र प्रतीक रह गए हैं. मुरुद में नवाब की आलीशान कोठी है और राजपुरी में उनका कब्रगाह.
इस किले को देखना हो तो कोंकण रेल मार्ग पर मुंबई (लोकमान्य तिलक टर्मिनस) से रोहा तक जाना होगा और फिर बस या कार से 37 किलोमीटर चल कर मुरुद जंजीरा. सड़क मार्ग से मुंबई से पनवेल, पेण, रोहा होते हुए मुरुद जंजीरा पहुंचा जा सकता है और यह दूरी कुछ 155 किलोमीटर के लगभग पडेगी. मुंबई से अलीबाग होते हुए भी वहां पहुँच सकते हैं. इस रास्ते से दूरी में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा.
जुलाई 13, 2013 को 7:58 पूर्वाह्न
इस किले के अजेय होने की जानकारी मेरी लिए नई है, इससे पूर्व राजस्थान के अलवर जिले स्थित “बाला किले” के अजेय होने की जानकारी मिलती है। कभी मुंबई तो अवश्य ही इस किले को देखना चाहुंगा। नई जानकारी के लिए आभार
जुलाई 13, 2013 को 8:20 पूर्वाह्न
बहुत ही रोचक स्थान, इतिहास के साथ पिकनिक का भी आनन्द उठाया जा सकता है इसमें। अगली बार की पुणे यात्रा में जाना निश्चित रहा।
जुलाई 13, 2013 को 8:58 पूर्वाह्न
रोचक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिए एक नायाब विरासत …..
हाथी और शेर के भित्तिकला/शिल्प चित्रण के ऐसे कई संभाव्य संयोगों की व्याख्या क्या इतनी ही मुश्किल है ?
हम दोनों मिलकर आईये मामले को निपटा देते हैं 🙂
जुलाई 13, 2013 को 9:44 पूर्वाह्न
मुरूद जजीरा की सुंदर और विस्तृत चित्रमय जानकारी मिली, आभार.
रामराम.
जुलाई 13, 2013 को 10:17 पूर्वाह्न
हमारी सारी धरोहरें इसी तरह जंग खा रही हैं, और पर्यटक वहाँ कचरा फ़ैला रहे हैं, हमारे यहाँ कोई ऐसी एजेन्सी होनी चाहिये जो ऐतिहासिक धरोहरों का अच्छे से रखरखाव करे ।
जुलाई 13, 2013 को 10:33 पूर्वाह्न
अनिवर्चनीय आलेख । सुन्दर शैली के साथ सजीव वर्णन । मज़ा आ गया ।
जुलाई 13, 2013 को 11:38 पूर्वाह्न
आनंद आ गया जी। हम भी घूम लिए।
जुलाई 13, 2013 को 12:12 अपराह्न
आपके आलेख को पढ़कर एक नए दर्शनीय स्थल के बारे में ज्ञात हुआ. मैं गत वर्ष कोंकण रेल से ही गोवा गया था पर मुझे इस स्थल के बारे में कुछ मालूम ही न था, शायद उसी यात्रा में दर्शन हो जाते. आपको धन्यवाद, आपकी व्याख्या रोमांचक और सजीव थी, मुझे आनंद की अनुभूति हुई. आपके समस्त परिवार को शुभकामनाएं.
जुलाई 13, 2013 को 1:55 अपराह्न
आकर्षक स्थल, रोचक विवरण.
जुलाई 13, 2013 को 2:18 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकरी है.
शेर और हाथी का भित्ति चित्र …इतन बारीकी से आप ही इन तक पहुँच सकते हैं.
सामान्य लोग तो ध्यान भी नहीं देते होंगे दीवारों के उभारों पर.
जुलाई 13, 2013 को 11:42 अपराह्न
नाम ही खासा रौबदार लग रहा है, अपनी ड्रीमलिस्ट में इसे भी जोड़ लेते हैं।
जुलाई 14, 2013 को 1:12 अपराह्न
आपका वृतांत और चित्रांकन इस अभेद दुर्ग को देखने के लिए अधीर किए दे रहा है.
जुलाई 14, 2013 को 4:31 अपराह्न
आपने यात्रा वर्णन से पुराने यात्रा के समय को जीवित कर दिया १९८९ शैक्षणिक भ्रमण
जुलाई 14, 2013 को 6:42 अपराह्न
अद्भुत, अनोखी, “सजीव” जानकारी के लिए हार्दिक आभार।