पर्यटन के लिए दक्षिण भारत जाने वाले तमिलनाडु की सांस्कृतिक राजधानी “मदुरै”, वहाँ के सबसे बड़े आकर्षण “मीनाक्षी अम्मान मंदिर” या “मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर” के दर्शनार्थ जाते हैं. इस लेख का उद्देश्य मंदिर दर्शन तो नहीं है पर सन्दर्भवश कुछ मोटी मोटी बातों से अवगत कराना चाहूँगा. यह मंदिर है तो बहुत ही पुराना जिसका उल्लेख ७ वीं सदी के तमिल साहित्य में मिलता है परंतु वर्तमान में दिखने वाला निर्माण लगभग १६३० का है जिसे नायक राजाओं ने प्रारंभ किया था. समझा जाता है कि पुराने मंदिर को मुसलमान आक्रमणकारी “मलिक कफूर” ने सन १३१० में ध्वस्त करवा दिया था. वर्तमान मंदिर ४५ एकड़ में फैला हुआ अपने १२ गोपुरमों (बुर्ज जैसा निर्माण) के साथ शहर के केंद्र में स्थित है. दक्षिण दिशा वाला गोपुर सबसे ऊँचा है जिसकी ऊँचाई १७० फीट है.
कुछ वर्षों पूर्व हम सपरिवार तामिलनाडु के भ्रमण में निकले थे. चेन्नई को हमने अपना मुख्यालय बना लिया था क्योंकि रिश्तेदारियाँ थीं. मदुरै तो जाना ही था. मीनाक्षी मंदिर जाने का कार्यक्रम बना पर हम अपने साथ केमरा नहीं ले गये क्योंकि अक्सर मंदिरों में चित्रांकन प्रतिबंधित रहता जो था. देवी के दर्शन किए और हम तो पहले ही बाहर आ गये. ताकि बाहर के शिल्पकला का आनंद ले सके. जब दूसरे भी आ गये तो फिर एक ओर चल पड़े. चलते चलते एक खंबे से जुड़ी एक अलौकिक विलक्षण प्रतिमा दिखी. किसी सुंदर देवी का अभय मुद्रा में भव्य रूप लिए खड़ी मूर्ती. शारीरिक संरचना कुछ ऐसी थी कि हमने चुप्पी बनाए रखना ही उचित समझा, महिलाएँ और बच्चे भी साथ जो थे. चिट्ठे पर भी प्रकाशित करने में हिचक ही रहा था क्योंकि आंशिक नग्नता प्रदर्शित हो रही है उस मूर्ति में. हमें आश्रय और बल मिला उन मिथकों से जो इस छवि के इर्द गिर्द है. अभी अभी हमें उस कलाकृति के सुंदर चित्र भी मिल गये जिसने हमारा उत्साह बढ़ा दिया.
मिथकों के अनुसार इस शिल्प में एक ऐसी नारी को प्रतिबिंबित करना था जो सौंदर्य में अद्वितीय , स्वाभिमान और शौर्य से परिपूर्ण, एक शासक के अनुरूप, जो शिव की सह्धर्मिणि बनने वाली हो और जिसकी प्रसिद्धि उसके मीन जैसे नयनों से रही. इन सब गुणों को एक पाशाण शिला में मूर्त रूप दे पाना सचमुच शिल्पकार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है.
तमिल साहित्य में एक कहानी मिलती है. पांडियन राजा मलयध्वज, भगवान शिव और शक्ति को पूर्णतः समर्पित एक महान उपासक था. परंतु उसकी कोई संतान नहीं थी जो उसके बाद सिंहासन संभाले. पुत्र प्राप्ति के लिए अपनी रानी कंचनमाला के साथ मिल कर वह घोर तप करता है और एक बड़ा यज्ञ करवाता है. परिणाम स्वरूप होम कुंड की अग्नि से एक तीन वर्षीय बालिका प्रकट होती है. वह बच्ची ‘अयोनिजा’ (गर्भ के बाहर उत्पन्न) थी. मलयध्वज उस बच्ची को देख अवाक रह जाता है क्योंकि उसके तीन स्तन रहते हैं. मलयध्वज अग्नि के समक्ष विनती करता है कि उसने पूरी निष्ठा से एवं विधि विधान से तपस्या की है और उसे पुत्र के बदले कन्या क्यों दी जा रही हैं वह भी तीन स्तनों से युक्त. उसी समय एक दिव्य वाणी सुनाई देती है.
“हे राजन डरो मत. जो कुछ भी हुआ है, अच्छे के लिए हुआ है. बच्ची का लालन पालन एक बालक की तरह करना. पुरुषोचित शिक्षा एवं प्रशिक्षण भी देना. इसे “तड़तगाई” (वीरांगना) नाम देना. जब भी उसका अपने भावी पति से सामना होगा, उसके वक्ष स्थल की विकृति दूर हो जवेगी”
उसके नयन मछली की तरह सुंदर थे इसलिए नाम पड़ गया “मीनाक्षी”. कालांतर में, उसके शारीरिक विकृति के बावजूद , वह एक सौंदर्य से परिपूर्ण नव युवती के रूप में बड़ी हो गयी. राजा के मरणोपरांत उसे ही शासन की बागडोर संभालनी पड़ी जिसके लिए वह सर्वथा परिपक्व थी. उसके शौर्य और पराक्रम की कोई मिसाल नहीं थी. उसके युद्ध कौशल की चर्चाएँ चारो ओर फैल गयी. उसने एक विजय अभियान चलाया और एक के बाद एक राजा उसके चरणों में आकर गिरने लगे. भूमंडल में विजय प्राप्त करने के लिए अब शिव के अतिरिक्त कोई नहीं बचा था. मीनाक्षी पूरे जोश ख़रोश के साथ अपनी विशाल सेना को ले कैलाश की ओर निकल पड़ी.
इस बीच भगवान शिव को मीनाक्षी के विजय अभियान की भनक लगी और तत्काल वे निकल पड़े उस से मिलने. व्याघ्र चर्म का वस्त्र पहने, सर्पों को आभरण बना, जनेऊ धारण किए हुए, पूरे शरीर पर भभूत लगा उनके अपने चिरपरिचित स्वरूप में. आमना सामना हुआ. शिवजी मुस्कुराए मानो मीनाक्षी से उनका पूर्व से परिचय रहा हो. उन्हें देखते ही सहसा मीनाक्षी का पौरुष ठंडा पड़ गया और उसकी जगह स्त्री सुलभ लज्जा ने ले ली. उसके तीसरे स्तन का लोप भी हो गया और उसे बोध हुआ की शिव जी ने ही तो अपने शरीर का आधा हिस्सा उसे दिया हुआ है. वही तो शक्ति स्वरूपिणि माता पार्वती थी जिसे राजा के यहाँ यज्ञ के प्रतिफल स्वरूप आना पड़ा था.
सन्दर्भित शिल्प से संबंधित बस इतना ही..
“अफ्रीकी माता” की एक विशाल प्रतिमा यहाँ देख सकते है, उसके तीन स्तन पृथ्वी, जल और वायु की उर्वरकता के प्रतीक माने जाते हैं.
छाया: श्रीमती शोभा रामकृष्णन
जनवरी 5, 2009 को 6:58 पूर्वाह्न
बहुत बहुत अभार आपका ! एक आवश्यक जानकारी मिल गई .
जनवरी 5, 2009 को 7:03 पूर्वाह्न
ज्ञानवर्धन हुआ, धन्यवाद
जनवरी 5, 2009 को 7:06 पूर्वाह्न
रोचक जानकारी है, आभार.
जनवरी 5, 2009 को 8:23 पूर्वाह्न
आपके ब्लोग पर आना हमेशा ही एक अनूठा अनुभव होता है
जनवरी 5, 2009 को 8:36 पूर्वाह्न
बहुत रोचक जानकारी है, धन्यवाद
जनवरी 5, 2009 को 8:50 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी जानकारी.. जब घूमने जायेगें तो जरुर देखेगें..
जनवरी 5, 2009 को 9:00 पूर्वाह्न
मीनाक्षी मन्दिर दो बार देखा, दोनों ही बार देवी-दर्शन भी किए किन्तु इस मूर्ति के दर्शन आपने ही कराए-वह भी इतने महत्वपूर्ण और सुन्दर सन्दर्भों सहित।
न पढता तो घाटे में रहता।
धन्यवाद।
जनवरी 5, 2009 को 9:00 पूर्वाह्न
मीनाक्षी मंदिर के बारे में सुना जरुर है पर देखा नही, यहाँ इतनी रोचक और जिवंत जानकारी के लिए आभार..
regards
जनवरी 5, 2009 को 9:34 पूर्वाह्न
बहुत रोचक, महत्वपूर्ण और सुन्दर सन्दर्भ
जनवरी 5, 2009 को 9:42 पूर्वाह्न
रोचक वर्णन, आपका ब्लॉग इस विषय पर अनूठा है, कृपया इन पुरातात्विक विषयों पर लिखते रहें, यह विषय आपकी सशक्त लेखनी पाकर और रुचिकर और ज्ञान वर्धक होंगे ऐसा मेरा विश्वास है !
सादर
जनवरी 5, 2009 को 10:17 पूर्वाह्न
बहुत ही रोचक, सरस वर्णन.
भई, नग्नता व अश्लीलता में फर्क होता है. भारत में नग्नता कभी अस्वीकार्य नहीं रही. गुलामी के बाद की बात अगल है. अतः आपकी झिझक समझ में नहीं आई. तीन स्तनों वाली माता के बारे में पहली बार पता चला. आभार.
जनवरी 5, 2009 को 10:32 पूर्वाह्न
सुब्रमण्यम जी नमस्कार,
हर मंदिर हर मूर्ति के पीछे एक कहानी होती है. इसे जनश्रुतियों से और ज्यादा बल मिलता है. मिनाक्षी मंदिर का नाम तो बहुत सुना था. इसे विश्व के सात नए आश्चर्यों के लिए भी नामांकित किया गया था. इसके पीछे की जो कहानी है, उसे जानकर अच्छा लगा. कभी मौका मिला तो जरूर मदुरै जाकर देखूँगा.
जनवरी 5, 2009 को 11:08 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने। छायाचित्र भी कमाल के हैं।
धन्यवाद
जनवरी 5, 2009 को 12:27 अपराह्न
तमिलनाडु के विख्यात मीनाक्षी मंदिर के बारे में सुना तो बहुत था, लेकिन आज आपसे कई अन्य जानकारियां भी मिल गयीं। ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद।
जनवरी 5, 2009 को 12:55 अपराह्न
बहुत लाजवाब जानकारी दी आपने. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
जनवरी 5, 2009 को 12:55 अपराह्न
बहुत ही अच्छी जानकारी दी आपने…इतने दिनो से चेन्नई में हूँ अभी तक मौका नही मेल पाया है मदुरै जाने का…अब जल्दी ही जाऊँगा
जनवरी 5, 2009 को 1:13 अपराह्न
धन्यवाद इस जानकारी कि लिए. पढ़ के बहुत कुछ जानने को मिला और आपने बहुत अच्छे शब्दो मे जानकारी उपलब्ध कराई …
जनवरी 5, 2009 को 5:45 अपराह्न
मीनाक्षी मंदिर के बारे में सुना तो बहुत था, लेकिन आज ज्ञानवर्धन हुआ, धन्यवाद!!
जनवरी 5, 2009 को 7:46 अपराह्न
बहुत महत्व की जानकारी ! मगर ढेर सारे सवाल !
१-अफ्रीकी देवी नाम क्यों ?
२-इस प्रतिमा से जुडी दंत कथा से अनव्याही मीनाक्षी देवी कन्याकुमारी का क्या कोई सम्बन्ध साक्ष्य भी है ?
३-महिलाओं के तीन स्तन कीक्थायें और प्रतिमाएँ दूसरी संस्कृतियों में भी वर्णित है -क्या यह मूर्ति उनसे भी प्रभावित हैं ? कृपया देखें -http://indianscifiarvind.blogspot.com/2008/07/2.हटमल
जब मैंने नारी के कई स्तनों वाली बात लिखी थी तो लोगों को यह नयी जानकारी लगी थी -आप के इस पोस्ट से इस सन्दर्भ में भारतीय उद्धरण भी मिल गया .
४-जब मैं मदुराई गया था तो इस शिल्प सौन्दर्य को नही देख पाया
५-हाँ वहाँ कुछ इरोटिक मूर्तियों पर नजर अवश्य पडी थी जो शायद एक कालक्रम की शिल्प संस्कृति को बयान कर रही थीं !
बहुत आभार !
प्रिय श्री अरविंद जी,
सर्वप्रथम हमारा आभार स्वीकार करें. अब हम सिलसिलेवार आपके प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करते हैं:
१. हम स्वयं ढूँदने का प्रयास कर रहे थे कि क्या अन्यत्र भी ऐसे कोई उदहरण हैं. “गूगल इमेजस” में हमें ऐसे कई मिले पर फिक्सन पर आधारित. जिसे हमने “अफ्रीकी माता” कहा है इसका भी चित्र मिल गया. यह दक्षिण आफ्रिका के किसी पर्यटन स्थल पर स्थापित है और तीनों स्तनों को भूमि, जल और वायु की उर्वरक्ता का प्रतीक बताया गया था. नामकरण हमारा ही है.
२. मीनाक्षी की कथा स्वतंत्र है. कन्याकुमारी से कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध नही है. उसके बारे में एक पोस्ट और सही.
३.दूसरे किसी संस्कृति का प्रभाव पड़ा हो इसकी संभावनाएँ दृष्टिगोचर नहीं हो रही हैं. यदि आप डी.एन.ए स्टडीस के आधार पर उस माइग्रेशन की सोच रहे हों तो वह बात हज़ारों वर्ष पूर्व की रही होगी. इस ऐतिहासिक युग की तो नहीं. दूसरी बात ये की यह कलाकृति और उसका आधार ईसा पूर्व का भी नहीं है (प्राचीन ज़रूर है).
४. हमने आपकी पुरानी प्रविष्टि का अध्ययन किया. दिए गये उदाहरण फ्रीक्स ही रहे होंगे. हम शरीर विज्ञान के बारे में कम ही जानते हैं.
हम अपनी टिप्पणी वहाँ नहीं कर पाए क्योंकि वह जा ही नहीं रही है.
पुनः आभार.
सुब्रमणियन
जनवरी 5, 2009 को 8:11 अपराह्न
रोचक जानकारी है, आभार.
जनवरी 5, 2009 को 8:55 अपराह्न
बहुत सुंदर जानकारी दी आप ने,एक बात हमारे देवी देवताओ की मुर्तिया चाहे नगन हो लेकिन आशील नही लगती, क्योकि उन से हमे श्रद्धा है, कभी मोका मिला तो जरुर यहां भी जायेगे. आप का धन्यवाद इतनी सुंदर जानकरी देने के लिये.
जनवरी 5, 2009 को 9:32 अपराह्न
रोचक वर्णन और अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद !
जनवरी 5, 2009 को 10:23 अपराह्न
आज आप के ब्लॉग पर आ कर धन्य हो गया ,
भारत वर्ष इतना विशाल है की हम कभी उस के बारे मे सम्पुर्ण रूप से नही जान सकते , परन्तु आप के ब्लॉग पर आने के पश्चात् मै आज फिर से भारत भर्मन पर निकल जाउगा , चोकिय मत ये यात्रा मे आप के ब्लॉग के द्वारा ही पुर्ण करूगा.
जनवरी 5, 2009 को 11:27 अपराह्न
डा. अरविन्द जी के प्रश्न ही मेरे भी प्रश्न हैं !
मेरी प्रकृति ही तह को कुरेदने की है, क्षमा करें !
जनवरी 6, 2009 को 12:36 अपराह्न
बहुत ही अचंभित हूँ इस जानकारी से. मीनाक्षी मंदिर के दर्शन दो बार किए हैं और मद्रास भी घूमे हैं. मगर ऐसी कोई कहानी कभी किसी ने नहीं सुनाई. नयी बातें और नये आश्चर्यजनक चित्र भी देखे..पुरातन कथा सुनाने के लिए धन्यवाद.
जनवरी 6, 2009 को 6:46 अपराह्न
इस नयी जानकारी के लिये आभार।
जनवरी 6, 2009 को 6:56 अपराह्न
वाह दादा वाह…. आपकी दी हर जानकारी भी गजब की रोचक रहती है….. बधाई..
जनवरी 6, 2009 को 8:45 अपराह्न
सबसे पहले तो आप को याद दिला दूँ कि भारतीय संस्कृति यौन संबंध को बहुत स्वस्थ नजरिये से देखती है और इसी कारण कई मंदिरों में रतिचित्र उकेरे जाते हैं. यदि मानव जीवन को इस समग्र नजरिये से देखा जाये तो यौन जीवन एवं तथाकथित यौनांगों के प्रति भी एक स्वस्थ नजरिया विकसित हो जायगा.
इस नजरिये से देखने पर आपके चिट्ठे पर ये चित्र एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आत्मिक रोल अदा कर रहे हैं.
मैं तो इस मूर्ति के छायाचित्र को देख कर उछल पडा, क्योंकि प्राचीन हिन्दुस्तान में इस तरह का हर निर्माण किसी न किसी आध्यात्मिक-दार्शनिक कारण से किया जाता था. इस कारण को तलाश करने के लिये कहीं भटकना नहीं पडा क्योंकि इस मूर्ति के पीछे छिपी कहानी आप ने बता दी है.
पढ कर बहुत अच्छा लगा.
ईश्वर करे कि आपके एतिहासिक अध्ययन दिन रात प्रगति करे !!
सस्नेह — शास्त्री
जनवरी 7, 2009 को 11:22 पूर्वाह्न
सबसे पहले आपसे माफ़ी चाहते है क्योंकि इतने दिनों से हम ब्लॉग न तो पढ़ रहे थे और न ही लिख रहे थे । आज बहुत दिनों बाद आपका जानकारी से भरपूर्ण ब्लॉग पढ़ा ।
वैसे मीनाक्षी मन्दिर को ७८ में देखा था । और उस समय इस मन्दिर की कला देख कर अचंभित रह गए थे ।
जनवरी 7, 2009 को 4:21 अपराह्न
पर्यटन की दुनिया में आप का ब्लॉग हमारे पाठकों के बहुत काम का लगा। मूमल यात्रा, मल्हार का अनुसरण करके गर्व का अनुभव करेगा। मदुरेई के मीनाक्षी अम्मान मन्दिर की यात्रा प्रस्तुति काफी अच्छी लगी।
जनवरी 7, 2009 को 6:17 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकारी. बहुत देर से पढ़ने आया हूं, इसलिये टिप्पणी कुछ खास नहीं .
जनवरी 7, 2009 को 7:17 अपराह्न
jaankari ke liye dhanyawaad, ab ek aur destination hamari list me jud gaya!!
जनवरी 7, 2009 को 9:49 अपराह्न
bahut gyanwardhak jaankari…thanks
जनवरी 7, 2009 को 11:08 अपराह्न
जय भोलेनाथ – जय हो मीनाक्षी अम्मा की –
लिखते रहीयेगा शुभकामना सहित
लावण्या
जनवरी 8, 2009 को 8:48 पूर्वाह्न
इस ग्यावर्द्ध्क जान्कारी के लिये धन्यबाद
अप्रैल 19, 2009 को 12:16 अपराह्न
MY INDIA IS MOTHER OF ALL WORD.
अप्रैल 19, 2009 को 12:22 अपराह्न
I LOVE YOU VIVEK
अप्रैल 23, 2010 को 6:29 अपराह्न
mujhe bhut accha laga