छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से रतनपुर होते हुए अंबिकापुर जाने वाले मार्ग पर ५० किलोमीटर दूर उत्तरपूर्व में एक गाँव था पाली जो अब छोटा शहर बन गया है. इस नगर के पश्चिमी छोर पर मनोरम वादियों में एक सुन्दर जलाशय है जिसके चारों तरफ कभी बहुत सारे मंदिर बने थे जो अब जमींदोज हो चुके हैं. एक मंदिर अब भी किनारे खड़ा है. मंदिर के सामने का महामंड़प क्षतिग्रस्त हो चला है परन्तु ढाँचे को बनाये रखने का प्रयास सीमेंट प्लास्टर से किया गया है. यह एक शिव मंदिर है जिसे महादेव का मंदिर भी कहते हैं.
मंदिर के चारों तरफ उकेरे गए शिल्प नयनाभिराम है. ऊपर की तरफ जहाँ देवी देवताओं को प्रदर्शित किया गया है वहीँ नीचे श्रृंगार रस से ओत प्रोत नायिकाओं को विभिन्न मुद्राओं में खजुराहो की तर्ज पर प्रदर्शित किया गया है.
अनुमान है कि प्रवेश द्वार से लगा एक छोटा बरामदा रहा होगा जिसके बाद ही गुम्बद युक्त अष्ट कोणाकार महामंड़प/सभामंड़प/जगमोहन फिर एक अंतराल और गर्भ गृह. अन्दर की ओर से जब गुम्बद को देखते हैं तो वह कई वृत्ताकार थरों से बना है और विभिन्न आकृतियों से सजाया गया है. मंडप का आतंरिक भाग और स्तम्भ भी विभिन्न देवी देवताओं/काव्यों में वर्णित पात्रों की कलाकृतियों से परिपूर्ण है. गर्भ गृह के द्वार का अलंकर भी अद्वतीय है.
यहाँ यह उल्लेखनीय है की मंदिर के अन्दर “श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम” ३ जगह खुदा हुआ है. इसके आधार पर यह माना जाता रहा कि मंदिर का निर्माण कलचुरी वंशीय यशस्वी राजा जाजल्लदेव प्रथम के समय ११ वीं सदी के अंत में हुआ होगा. १९ वीं सदी में भारत के प्रथम पुरातात्विक सर्वेक्षक श्री कन्निंघम की भी यही धारणा रही. परन्तु २० वीं सदी के उत्तरार्ध में डा. देवदत्त भंडारकर जी ने मंदिर के गर्भ गृह के द्वार की गणेश पट्टी पर बहुत बारीक अक्षरों में लिखे एक लेख को पढने में सफलता पायी. इस लेख का आशय यह है कि “महामंडलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य ने यह देवालय निर्माण कर कीर्ति दायक काम किया” भंडारकर जी को अपने शोध/अध्ययन के आधार पर मालूम था कि बाण वंश में विक्रमादित्य उपाधि धारी ३ राजा हुए हैं. पाली में उल्लिखित विक्रमादित्य, महामंडलेश्वर मल्लदेव का पुत्र था अतः “जयमेरू” के रूप में उसकी पहचान बाण वंश के ही दूरे शिलालेखों के आधार पर कर ली गयी. जयमेरू का शासन 8९५ ईसवी तक रहा. अतः पाली के मंदिर का निर्माण ९ वीं सदी का है. परन्तु कलचुरी शासक जाजल्लदेव (प्रथम) नें ११ वीं सदी में पाली के मंदिर का जीर्णोद्धार ही करवाया था न कि निर्माण.
शिल्पों की विलक्षण लावण्यता के दृष्टिकोण से यह मंदिर भुबनेश्वर के मुक्तेश्वर मंदिर (१० वीं सदी) से टक्कर लेने की क्षमता रखता है. वैसे बस्तर (छत्तीसगढ़) के नारायणपाल के मंदिर से भी इसकी तुलना की जा सकती है. यह मंदिर भी शिल्पों से भरा पूरा रहा होगा पर अब लुटा हुआ दीखता है.
नारायनपाल का शिव मंदिर
वहां भी मंडप गुम्बदनुमा ही रहा जो क्षतिग्रस्त हो गया. परन्तु इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजाओं के द्वारा १२ वीं सदी में किया गया था.
नारायनपाल के चित्र श्री राहुल सिंह के सौजन्य से
नवम्बर 13, 2010 को 8:55 पूर्वाह्न
मुझे याद आ रहा है कि मैं यह मन्दिर देख चुका हूँ। इसीलिए आपकी पोस्ट मेरे अतीत को खंगालने
नवम्बर 13, 2010 को 8:56 पूर्वाह्न
पाली का सौन्दर्य मंडित शिव मंदिर ,शिल्प सौष्ठव का अनुपम उदाहरण -शुक्रिया !
नवम्बर 13, 2010 को 9:04 पूर्वाह्न
हमेशा की तरह सुन्दर और ज्ञानपूर्ण .
नवम्बर 13, 2010 को 9:04 पूर्वाह्न
ेआज सुबह सुबह शिव मन्दिर के दर्शन कर धन्य हो गये। बहुत सुन्दर तस्वीरें और मूर्ती शिलप। धन्यवाद।
नवम्बर 13, 2010 को 9:17 पूर्वाह्न
सड़क से लगा, सड़क से गुजरते हुए उस तरह आकर्षित नहीं करता, लेकिन एक बार प्रांगण में पहुंच जाएं तो सम्मोहित कर लेता है. किसी गाइड की जरूरत नहीं होती और अगर थी भी तो यह पढ़कर जाने के बाद वह कमी बिल्कुल नहीं खटकेगी, देर न करें. अभी संभव न हो तो न सही, लेकिन गुजरें तो कतई न भूलें.
नवम्बर 13, 2010 को 9:18 पूर्वाह्न
शोधपूर्ण आलेख और नयनाभिराम चित्रों से यह प्रस्तुति बहुत अच्छी बन पड़ी है।…आगे भी इसी तरह के आलेखों की प्रतीक्षा है।
नवम्बर 13, 2010 को 9:36 पूर्वाह्न
आदरणीय सुब्रमणियन जी, आपका संपूर्ण आलेख पढ़ गया हूँ. इसमें उल्लिखित जानकारी मेघनेट पर लिंक सहित ले जाऊँगा, आपकी अनुमति दें.
नवम्बर 13, 2010 को 9:36 पूर्वाह्न
अच्छा लगा , बधाई .
नवम्बर 13, 2010 को 10:08 पूर्वाह्न
बहुत सुंदर कलाकारी के नमूने, पत्थर में जान डालते! शायद ऐसी ही कलाकारी देख किसी ने कहा, “खँडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी”…
गुम्बद से मुझे याद आया कि जब गौहाटी (गुवाहाटी) में अस्सी के दशक में मैंने नवग्रह मंदिर देखा तो पाया कि उसकी छत भी गुम्बदनुमा थी,,, और पुजारी ने बताया कि मान्यता है कि वो मंदिर अनादिकाल से उसी स्थान पर वैसे ही खड़ा है जैसे ब्रह्मा ने स्वयं पहले उसे बनाया था,,, और उसके पास प्रागज्योतिषपुर शहर बसाया जहां उन्होंने ज्योतिषी गणना शिष्यों को सिखाई!
नवम्बर 13, 2010 को 10:18 पूर्वाह्न
तस्वीरें देखता हूँ, उससे जूड़ा इतिहास पढ़ता हूँ. ज्ञान बढ़ता है.
कई विक्रमा दित्य हुए मगर आज की पीढी गाती है… बाबर का बेटा हुमायू, हुमायू का अकबर… बाकि की कहाँ खबर!!!!! 🙂
नवम्बर 13, 2010 को 11:28 पूर्वाह्न
छत्तीसगढ़ में खजाना भरा है…
नवम्बर 13, 2010 को 11:55 पूर्वाह्न
मंदिर की जानकारी प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. हर कोण से जो कलात्मकता को दर्शा रही है आपकी प्रस्तुति वाकई हमारे लिए एक नई चीज है
इस के लिए धन्यवाद.
नवम्बर 13, 2010 को 12:29 अपराह्न
अभी तक प्रत्यक्ष देखा नहीं हूँ लेकिन शुक्रिया आपका. आपने न केवल दर्शन करवा दिए बल्कि इतनी जानकारी भी दे दी
नवम्बर 13, 2010 को 2:40 अपराह्न
अदभुत सौंदर्य लिये हुए है ये मंदिर | सुंदर पोस्ट हेतु आभार |
नवम्बर 13, 2010 को 6:38 अपराह्न
अप्रतिम सौंदर्य!
आभार!
आशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
नवम्बर 13, 2010 को 7:09 अपराह्न
वैसे तो वहां जाकर कहां दर्शन कर पाते आपको धन्यवाद जो घर बैठे दर्शन करा दिये दर्शन ही नहीं बल्कि वहां का व्यौरा पढ कर भी एक एतिहासिक जानकारी भी मिली
नवम्बर 13, 2010 को 7:33 अपराह्न
great post, Sir.
mesmerising.
नवम्बर 13, 2010 को 8:25 अपराह्न
बिलासपुर की पोस्टिंग के समय संभवतः गया हूँ यहाँ। सुन्दर चित्रमयी विवरण।
नवम्बर 13, 2010 को 9:47 अपराह्न
बड़ी अच्छी जानकारी दी आपने, धन्यवाद आपका
नवम्बर 13, 2010 को 11:30 अपराह्न
बेहतरीन !
नवम्बर 14, 2010 को 6:03 अपराह्न
आशा करनी चाहिये कि सरकार इन धरोहरों को बनाए रखेगी.
नवम्बर 15, 2010 को 6:45 पूर्वाह्न
Very informative and interesting 🙂
I really like your Hindi blog as well. Thanks for drawing my attention towards this.
नवम्बर 15, 2010 को 7:43 पूर्वाह्न
कोरबा के पास एक गांव में शिविर लगाये हुए था और रतनपुर जा रहा था … तभी रास्ते पर इस मंदिर को भी देखा था … बहुत सुन्दर मंदिर है पर देखभाल हो तो और बेहतर लगे …
जानकारी के लिए शुक्रिया !
नवम्बर 15, 2010 को 4:16 अपराह्न
दक्षिण भारत में एक से बढ़कर एक कलाकारी और चित्रकारी वाले मंदिर हैं.
नवम्बर 15, 2010 को 7:33 अपराह्न
आपके पोस्टों से बिना गए भी स्थान विशेष में विचरण का पूरा आनंद मिल जाता है..और जो ज्ञानवर्धन होता है वह तो अद्भुत है…
बहुत बहुत आभार आपका…
नवम्बर 16, 2010 को 12:26 पूर्वाह्न
सच में शिल्प नयनाभिराम हैं और अद्भुत भी…
इन के बारे में आप के द्वारा ही इतने विस्तार से जाना.
आभार
नवम्बर 16, 2010 को 5:02 अपराह्न
कलाकारी का अदभुत नमूना। आभार जानकारी के लिए ।
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गायब होने का सूत्र।
क्या आप सच्चे देशभक्त हैं?
नवम्बर 16, 2010 को 10:56 अपराह्न
दुनिया में कौन सी कला मुकाबला कर सकती है इस शिल्प का .अद्भुत अप्रतिम सौंदर्य .आभार इस पोस्ट का..
नवम्बर 20, 2010 को 2:40 पूर्वाह्न
बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक, हमेशा की तरह.. फोटो भी सुन्दर हैं..
नवम्बर 25, 2010 को 4:17 अपराह्न
Very good shots, thanks for sharing.
Reminded me of the temples of Khajuraho, especially the 2nd and 3rd photographs. Mastery in sculpturing.
अगस्त 30, 2011 को 8:54 अपराह्न
[…] रतनपुर के पास बरसात शुरु हो चुकी थी। इस मार्ग पर कोयला और स्लेग के भारी वाहन (कैप्शुल) चलते हैं। पाली के पास तो सड़क ही गायब हो चुकी है। पता चला की भारी बरसात का परिणाम है। पाली से कभी चतुरगढ जाने का मन है, अबकी बार नवरात्रि में जाने का प्लान बनाया है। पाली का प्राचीन शिवमंदिर प्रसिद्ध है। बरसों के बाद रास्ते में फ़ुट दिखाई दिए, इन्हे हरियाणा में “हैजा” नाम से संबोधित किया जाता है। क्योंकि गंदे नाले या नाली में उगे फ़ुट खाने से टट्टी-उल्टी होती है और हैजा हो जाता है। इसकी खुश्बु खरबूजे जैसी ही होती है, पर मीठे होने की बजाए थोड़ी सी खंटास लिए होते हैं। हमने “हैजा” खरीद लिया, घर पहुंचने पर इसका ही इस्तेमाल पहले करने की सोची। हैजा खाने के बाद भी हमें हैजा नहीं हुआ। कटघोरा पहुंचने पर देखा कि वहाँ गड्ढों में सड़क ही नहीं दिखाई दे रही। बरसात का असर कुछ अधिक ही हुआ। […]
जुलाई 24, 2012 को 12:25 अपराह्न
gr8 travel descriptions amazing write up inspiring
अक्टूबर 14, 2016 को 8:47 अपराह्न
बहुत सुंदर। हर हर महादेव
अगस्त 9, 2020 को 5:54 अपराह्न
Malhar Is Religious Place.